गुरु भक्त उत्तंक की कहानी आध्यात्मिक ज्ञान।

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गुरु भक्त उत्तंक ।

महर्षि आयोद धौम्य के शिष्य महर्षि वेद ने अपने ब्रह्मचर्य आश्रम के जीवन में गुरु – गृह में अनेक कष्ट भोगे थे । उन कष्टों का स्मरण करके अपने यहां अध्ययन के लिए आने वाले किसी बालक को वे किसी कार्य में नियुक्त नहीं करते थे और न उनसे अपनी सेवा ही लेते थे । उनके शिष्यों में प्रधान थे उत्तंक । एक बार जब महर्षि वेद अपने आश्रम से किसी यात्रा पर जाने लगे , तब उन्होंने उत्तंक को अपनी अनुपस्थिति में अपना समस्त कार्य सम्हालने की आज्ञा दी । महर्षि वेद की पत्नी के मन में यह बात आई कि इस थोड़ी अवस्था के बालक पर उनके पतिदेव ने आश्रम का पूरा उत्तरदायित्व क्यों सौंपा । अतएव उन्होंने उत्तंक की परीक्षा लेने का विचार किया । ऋषिपत्नी ने कहा- ‘ उत्तंक ! महर्षि ने जाते समय तुम्हें आज्ञा दी है कि उनकी अनुपस्थिति में उनके सभी कार्यों को सम्पन्न करो । मैं ऋतुमती हूं , अतः तुम्हें मेरे ऋतु को सफल करने का , महर्षि का कार्य भी पूरा करना चाहिए । ‘ उत्तंक ने थोड़ी देर विचार करके बड़ी नम्रता से प्रार्थना की- ‘ आप मेरे गुरुदेव की पत्नी हैं । आपकी आज्ञा से आपकी प्रसन्नता के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं , किन्तु माता ! आप मुझे ऐसा अनुचित काम करने की आज्ञा न दें , यह पाप मैं नहीं कर सकूँगा । ‘
। उत्तंक की दृढ़ श्रद्धा और संयम देखकर गुरुपत्नी प्रसन्न हो गईं । जब महर्षि वेद लौटे तब उनकी पत्नी ने स्वयं उनसे सब बातें बताईं क्योंकि उन्होंने तो उत्तंक की केवल परीक्षा लेना चाहा था । सब बातें सुनकर महर्षि ने उत्तंक को आशीर्वाद दिया- ‘ बेटा ! तुम्हारी समस्त कामनाएं पूर्ण हो । तुम्हें समस्त ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जाए । ‘ अब उत्तंक ने गुरुदेव को गुरुदक्षिणा देने की इच्छा प्रकट की । महर्षि ने गुरुपत्नी से पूछने को कहा । पूछने पर गुरुपत्नी ने बताया कि ‘ महर्षि के दूसरे शिष्य राजा पौष्य की पतिव्रता पत्नी के कानों में जो अमृतसावी कुण्डल हैं , उन्हें पर्व के अवसर पर मैं पहनना चाहती हूं । ‘ पर्व का समय केवल चार दिन शेष था । उत्तंक राजा के पास वह कुण्डल मांगने चल पड़े ।
देवराज इंद्र ने देखा कि नागराज तक्षक बहुत दिनों से उन कुण्डलों को हरण करना चाहता है । राजा की पतिव्रता पत्नी के पास से कुण्डलों को लेने का तो उसमें साहस नहीं , पर यदि उत्तंक उन कुण्डलों को लेकर चले तो तक्षक किसी न किसी रूप में अवश्य कुण्डलों का हरण कर लेंगे । यद्यपि नागराज तक्षक इंद्र के मित्र हैं , किन्तु देवराज होने के कारण इंद्र को यह उचित जान पड़ा कि वे उत्तंक की सहायता करें । एक संयमी , तपस्वी , गुरुभक्त ब्राह्मण बालक यदि अपनी गुरुपत्नी को उनको मांगी दक्षिणा न दे सके तो उसे कितना खेद होगा , यह देवराज जानते थे और यह भी जानते थे कि उस समय उस तेजस्वी बालक के क्रोध को शांत करना सरल नहीं हो सकेगा । वह शाप देकर किसी भी लोकपाल को पदच्युत कर सकता है ।
 अतः इंद्र ने सहायता देने का उपाय पहले से निश्चित कर लिया । उत्तंक को राजा की पत्नी ने बड़ी श्रद्धा से अपने वे देवदुर्लभ कुण्डल दे दिए । छल करके तक्षक ने उस कुण्डलों को मार्ग में ही चुरा लिया , किन्तु इंद्र की सहायता से पाताल जाकर उत्तंक ने फिर कुण्डलों को प्राप्त किया और समय से पहले ही गुरुपत्नी को उन्हें अर्पित किया । जिसमें पूरा संयम और अटल गुरुभक्ति है , इसके निश्चय को भला त्रिलोकी में कोई भी व्यर्थ कैसे कर सकता है ?

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