छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरिनाम नहीं’ ।

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छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरिनाम नहीं’ ।

एक बार देवर्षि श्रीनारदजी महाराज जब वीणापर मधुर स्वरमें ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का हृदयाकर्षक सुधास्वरूप कीर्तन-गायन करते हुए आकाश मार्ग से विचरण कर रहे थे, तब उनके हृदयमें यह प्रश्न उदय हुआ कि श्रीभगवान् विशेषरूप से कहाँ निवास करते हैं? वैसे तो साधारण रूपसे भगवान्‌ के विषय में वेदशास्त्रप्रणीत  यह सिद्धान्त ‘मानस’ में शंकरभगवान्के मुखारविन्दसे तुलसीबाबाने प्रकट किया हो है कि ‘हरि व्यापक सर्वत्र समाना प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।।’ किंतु विशेषरूप से किधर ?

जब यह प्रश्न उनके अन्तःकरणको बारम्बार उद्वेलित करने लगा तो वे तत्काल वैकुण्ठधाममें नील नीरद श्याम, चतुर्भुजी, शङ्खचक्रगदापद्मधारी, पीताम्बर परिवेष्ठित, अनेकानेक भूषणभूषित, सर्वदा मंद मुसकान एवं कृपामयी चितवनसे युक्त श्रीविष्णुभगवान्‌ के पास पहुंचे। भगवान्ने अपनी अमृतमयी वाणी से मुनिश्रेष्ठ नारदजी का स्वागत करते हुए कहा-‘आओ देवर्षि कहो क्या बात है ?”

नारदजी भगवान्‌को प्रणाम करके एक पलको उनकी भुवनमोहिनी छविके दर्शनरूप रसपानसे मुग्ध होकर अपनी जिज्ञासाको भूल गये, फिर सँभालकर बोले- ‘प्रभो । यहीं जानना चाहता हूँ कि आप विशेषरूप से कहाँ निवास करते हैं ?

भगवान् बोले-‘सुनो, नारद। यद्यपि साधारण जन विशेषरूपसे मुझे वैकुण्ठमें निवास करनेवाला मानते हैं तथा योगीजन ध्यानयोगद्वारा अपने हृदयकमलमें मेरा दर्शन करते हैं, किंतु मेरा निवास विशेषरूपसे तो वहाँ होता है, जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे प्रेममें विभोर होकर संसारकी सुध बुध भूलकर मेरा नाम संकीर्तन करते हैं

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥

इसलिये अनुभवी नाम रसिकों एवं भावुक भक्तजनोंको

सर्वदा यही अनुभूति होती है कि

सन्मुख रहो कीर्तनमें नित, तजो तनिक स्थान नहीं,
लखें भाव दुगसे प्रेमी जन, सुध-बुध रहे जहान नहीं।

बँधे प्रीतिकी डोर दयामय, अब तो दो वरदान यही
छूट जाये सब कुछ पर छूटे, रसना हरिनाम नहीं ॥

इस घोर कलिकालमें जिन घरोंमें प्रभु नामका कीर्तन परिवारके समस्त सदस्य मिलकर प्रीतिपूर्वक नित्य नियमसे करते हैं, वहीं राग-द्वेष, दुःख तदरिद्रता, पाप-तापका प्रवेश कथञ्चित् नहीं हो पाता। से श्रीहरिनामके प्रभावसे श्रीलक्ष्मीमाता वहाँ नित्य क्रीड़ा करती हैं, यथा

कमला करें किलोल मुदित मन, वजे गेह अभिराम नहीं
अर्चा चर्चा संत समागम, रुके जहाँ वसु याम नहीं।

गूंजे सुमधुर नाम नादसे, खींच लाय प्रभु कृपा प्रसाद,
, छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरिनाम नहीं ॥

. भगवान् के अमोघ नामकी सत्ता स्थापित हो जानेपर

वह घर या स्थान प्रभुका निज धाम ही बन जाता है। ने श्रीहरिनामकी ऐसी विशेषता है कि वह तीर्थधाम गये बिना भी मनुष्य के सभी पापोंका सर्वथा विनाश कर देता है। जैसा कि गोस्वामीजी ने मानसमें लिखा है- ‘तीरथ अमित की कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन ॥’ नी वैसे तो सभी तीर्थधाम भी श्रीहरिनामकी महिमा एवं ही भजनसाधन से ही बने हैं। देखें

 कोटि तीर्थ हरि नाममें, जो देखे दुग खोल ।
 अगर चाहिये पूर्ण फल, तो अंतरसे बोल ॥

अतएव भक्तोंकी अनुभूति यही है कि

हुआ भजन जब प्रीतिपूर्वक, सुध-बुध रही जहान नहीं,  गद्गद हुआ भक्त अब मुझको, जाना कोई धाम नहीं

 राम यहीं हैं, राम यही हैं, राम यहीं, राम यही
छूट जाय सब कुछ पर छूटे, रसनासे हरिनाम नहीं।

नाम संकीर्तन नित्य कीर्तन करनेवालेके हृदयको हो तोर्थस्वरूप बनाकर उसे कृतकृत्यताको अनुभूति करा देता को है । संसारकी आपा-धापी माया मोह, मद-मत्सर, कुटिल कामनाएँ इन सभीसे ऊपर उठाकर कीर्तन भक्तको सीधे भगवान्की नित्यानन्दमयी गोदमें बिठा देता है, जिसकी अनुभूति प्राप्त करके जीव सर्वदाके लिये निर्भय, निरामय,

निश्चिन्त एवं निरुद्वि हो जाता है तथा निरतिशय प्राप्तकर धन्य-धन्य हो जाता है। परम वात्सल्यमयी हृदय की गोद छोटेसे शिशुको जो स्थिति रहता है, वैसी हो या उससे भी बढ़कर नामकीर्तन, नामजप किया नामसुमिरन करनेवालेको हो जाती है।

श्रीरामचरितमानस में भगवान् श्रीराधवेन्द्र देवर्षि नारदसे अपनी अमृत वाणीमें यह बात स्वयं ही कहते है

सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥
करउँ सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी ॥

नन्हे बालकका माँ कितना ध्यान रखती है, यह सभी जानते हैं। इसी प्रकार सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् प्रभु नामसुमिरन करनेवालेका तर प्रकारसे नहीं सावधानीपूर्वक ध्यान रखते है तथा उसको उचित आवश्यकताओंको सम्यक् पूर्ति भी करते रहते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता (९/२२) में भगवान् श्रीकृष्ण इसी प्रकारका मन्तव्य प्रकट करते हैं। यथा-

  अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥

भगवानपर सर्वथा निर्भर होकर जो प्रीतिपूर्वक भजन करते हैं और जिन्हें भगवान्की दयालुता भक्तवत्सलता तथा सर्वशक्तिमतापर पूर्ण विश्वास है, परमात्मा उनका सब प्रकारसे प्रतिपालन करते हैं, यह स्वानुभवकी बात है, इसमें कहीं कोई भी संदेह नहीं है।

नामजापक जिस तरहसे योग्य बन जाय, प्रबुद्ध बन जाय अपने आनन्दस्वरूप (आत्मस्वरूप) को प्राप्तकर कृतकृत्य हो जाय, वैसी ही व्यवस्था प्रभु उसके लिये करते हैं। इसमें उसे यदि कुछ कर भी हो, असुविधा भी हो तो उसके विशेष हितके लिये प्रभु उस भक्तके हृदयमें विराजमान होकर उसके साथ स्वयं भी कष्टमें हिस्सा र टाते हैं, वाइस देते हैं, पर किसी भी स्थितिमें कभी भी उसका साथ नहीं छोड़ते, वे तो जीवके नित्यसखा वो हैं। यथा

नित्य सखा नारायण तेरे

ते तुझेन एक निमिषको रखते कृपाभावमें घेरे।

भले भूल जाय तू उनको, फँसकर माया मोह घनेरे ।
वे रखते नित तुझे हृदयमें निशिमें दिनमें सांझ-सबेरे ॥ दुखमें सुखमें सदा सहायक, नाशें जन्म-मरणके फेरे । ‘हरीदास’ दर्शन दें निश्चय, व्याकुल हो जब उनको टेरे ।।

नी कीर्तन – सुमिरन करनेवाले किन्हीं सुजनोंको ऐसा प्रतीत होता है कि हमने बहुत कीर्तन-भजन किंवा नामजप किया, पर अपेक्षित लाभ नहीं हुआ ? इसमें तनिक समझनेकी आवश्यकता है-जैसे निपुण वैद्य रोगीके लिये औषधिकी व्यवस्था देते हुए उसे पथ्य भी बतलाता ।। है तथा कुपथ्यसे बचनेकी सलाह भी देता है, तभी वह औषधि अधिक कारगर होकर रोगीको पूर्ण स्वस्थ बनाती है। इसी प्रकार नामसंकीर्तन अथवा नाम-जपरूपी संजीवनी न वटी भी संयम-नियमरूप कुछ पथ्यकी अपेक्षा रखती है। वैसे भी लाभ तो होता ही है, चाहे जैसे नाम ले, पर  विशेष लाभ चाहनेवालेको कुछ सावधानियाँ रखना आवश्यक है, तभी वह पूर्णतया प्रभुकृपाका अधिकारी बनकर अपना और अपने सम्पर्क में आनेवाले प्रत्येक व्यक्तिका यथोचित कल्याण करनेमें समर्थ हो सकेगा।

(  स्वामी श्रीमदानन्दजी सरस्वती ‘हरिदास’)

 

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