ताते करहि कृपानिधि दूरी। आध्यात्मिक ज्ञान।

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       ~~श्री हरि~~

 




अभिमानसे बहुत पतन होता है । उस अभिमानको भगवान्दूऱ करते है । आसुरीसम्पत्ति और जितने दुर्गुण-दुराचार है, सब-के-सब अभिमानकी छायामें रहते हैं ।

महाभारतमे आया है-बहेड़ेकी छायामे कलियुगका निवास है, ऐसे ही सम्पूर्ण आसुरी सम्पतिका निवास अभिमानकी छायामे है धनका, विद्याका भी अभिमान आ जाता है । हम साधु हो जाते है तो वेश-भूषाका भी अभिमान आ जाता है कि हम साधु है । हमे वया समझते हो…यह भी एक फूंक भर जाती है । अरे भाई, फूँक भर जाय दरिद्रताकी । धनवत्ताकी भरे उसमें तो बात ही क्या है ! घनीके यहां’ रहनेवाले मामूली नौकर आपसमें बात करते हैँ…’कोईं भाग्यके कारण पैसे मिल गये; परंतु सेठमेँ अक्ल नहीं है ।’ उनको पूछा जाय,’तुम ऐसे अक्लमन्द होकर बेअकलके यहाँ क्यों रहते हो’  ऐसे ही पंडितोंको अभिमानी लोग वन्हते हैं…’पढ़ गये तो क्या हुआ अक्ल है ही नहीं ।’ मानो अक्ल तो सब-की-सब उनके पास ही है । दूसरे सब बेअक्क है ।

“अकलका अधूरा और गाँठका पूरा’ मिलना बडा मुश्किल है । धन मेरे पास बहुत हो गया, अब धनकी मुझे जरूरत नहीं है और मेरेमे समझकी कमी है, थोडा और समझ लूँ…ऐसे सोचनेवाले आदमी कम मिलते हैँ । दोनोंका अजीर्ण हुआ रहता है । दरिद्रताका भी अभिमान हो जाता है । साधारण लोग कहते हैं…’सेठ हैं, तो अपने घरकी सेठानीके हैं । हम क्या धरावें सेठ है तो ? ‘ यह बहुत ही खराब है भगवान्ही बचायें तो आदमी बचता है, नहीं तो हरेक हालतमे अभिमान आ जाता है । इसलिये अभिमानमे सदा सावधान रहना चाहिये ।

संतो के अभिमान नहीं होता।   वे भगवान्के प्यारे होते हैं और सबको बडा मानते है ।


सीय राममय सब जग जानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी । । 


जितने पुरुष हैं, वे हमारे रामजी हैं और जितनी स्रियाँ हैं, वे सब सीताजी-माँ हैँ । इस प्रकार उनका भाव होता है । ‘मै’ सेवक सचराचर रूम स्वामि भगवंत‘ -वे सबकोंभगवान् मानते हैं, इस कारण उनके भीतर अभिमान नहीं आता । वे ही भगवान्को प्यारे लगते हैं; क्योंकि “निज प्रभुमय देखहि ‘जगत केहि सन करहि बिरोध‘ -वे किसके साथ विरोध करे । ३

श्रीचैतन्य-महाप्रभुके समयमे जगाई-मथाई नामके पापी थे । उनको नित्यानन्दजीने नाम सुनाया तो उन्हें खूब मारा । मार-पीट सहते हुए वे कहते कि तू हरि बोल, हरिं बोल । उनपर भी कृपा की । चैतन्य-महाप्रभुने उनको भक्त बना दिया । उन्होनै ऐसा निश्र्चय किया कि जो अधिक पापी, धनी एवं पंडित होते हैँ, उनपर बिशेष कृपा करनी चाहिये; क्योंकि उनको चेत कराना बडा़। मुश्किल होता है । और उपायोंसे तो ये चेतेंगे-नहीँ, भक्तिकी बात सुनेंगे ही नहीं; क्योंकि उनके भीतर अमिमान भरा हुआ है । चैतन्य-महाप्रभुने ऐसे लोगोंके द्वारा भी भगवन्नाम उच्चारण करवाकर कृपा की । भगवान्के नाम-क्रोर्तनमेँ वे सबको लगाते । पशु-पक्षीतक खिंच जाते उनके भगवन्नाम-कीर्तनमें ।

जग पालक बिसेषि जन त्राता’ -ऐसे नाम महाराज दुष्ठोंका भी पालन करनेवाले, अभिमानियों का अभिमान दूर कराकर भजन करानेवाले एवं साधारण मनुष्यों को ‘भी भगवान्की तरफ लगानेवाले हैं । ये सबको लगाते है कि सब भगवान्के प्यारे बन जायँ ।

सर्वे भवन्तु सृखिन: सर्वे सन्तु निरामया: ‘ केवल नीरोग ही नहीं, भगवान्के प्यारे भक्त बन जायें…यह उन नाम-महाराजकी इच्छा रहती है । इसी प्रकार संतोंके दर्शनसे भी बडा पुण्य होता है, बडा भारी लाभ होता है । क्यों

होता है ? उनके हृदयमें भगवद्बुद्धि बनी रहती है और वे सबकी सेवा करना चाहते हैँ । इस कारण उनके दर्शनमात्रका असर पड़ता है । स्मरणमात्रका एवं उनकी बातमात्रका असर पड़ता है । क्योंकि उनके हृदयमे भगवद् भाव और सेवा-भाव लबालब भरे रहते हैं । इसलिये उनके दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन आदिका लोगोपऱ असर पड़ता है, लोगोंका बडा़ भारी कल्याण होता है ।

जैसे बीडी़-सिगरेट पीनेवाले लोग अपनी टोली बना लेते हैं, वैसे संत लोग भी कुछ-न-कुछ अपनी टोली बना लेते हैं । आप-से-आप उनकी टोली बन” जाती है । भजन करनेवाले इक्ट्ठे हो जाते हैं और भजनमे लग जाते हैं । बहुत युगोंसे यह परम्परा चली आ रही है । बड़े-बड़े अच्छे महात्माओँको हुए सैकडो़ं वर्ष हो गये; परंतु फिर भी उनके नामसे उनके क्षेत्र चल रहे हैं । वहाँ भगबन्नाम-जप, स्मरण-कीर्तन, उपकार, दान, पुण्य, दुनियाका हित आदि होता रहता है । नाम-महाराजके प्रभावसे ऐसा होता है । भगवान्का नाम अपने भक्त-ज़नोंका बिशेष त्राता है, अर्थात् विशेषतासे रक्षा करनेवाला है ।

                          जय श्री राम 

 

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