तुलसी पौधे और सुगंध आध्यात्मिक कहानी।

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  तुलसी पौधे और सुगंध ।


सामान्यतः ऐसा कहा जाता है कि रामायण पारिवारिक जीवन की कथा है और महाभारत पारिवारिक द्वेष की कथा है । पारिवारिक जीवन कैसा होना चाहिए , रामायण इसका आदर्श प्रस्तुत करती है और यह जीवन कैसा नहीं होना चाहिए , महाभारत इसकी कथा कहता है । क्या यह सत्य है कि महाभारत में पारिवारिक जीवन और विशेष रूप से दांपत्य जीवन के आदर्श के लिए पर्याप्त प्रमाण नहीं मिलते ? पारिवारिक जीवन के जो ताने – बाने हैं , उनमें किस प्रकार के पारस्परिक संबंध होने चाहिए , इस संबंध में महाभारत क्या कोई मार्गदर्शन आज के संदर्भ में देता है ? 

रामायण में जो पारिवारिक जीवन है , वह प्रायः एकसूत्री और सरल है । इसके अनेक पात्र आदर्श जीवन जीते हैं तो उसमें ऐसे भी कुछ पात्र हैं कि जिनका जीवन इस आदर्श से एकदम भिन्न है । भाई का आदर्श लक्ष्मण या भरत के जीवन से प्राप्त किया जा सकता है तो उसके साथ ही सुग्रीव या विभीषण का इस विपरीत आचरण भी आँखों के सामने ही है ।

राम के एक पत्नित्व के आदर्श के विपरीत राजा दशरथ की तीन सौ रानियों ( तीन नहीं , बल्कि तीन सौ ) से भरा अंतःपुर भी है । रामायण के ये पात्र अपने आदर्श के विषय में थोड़ी भी चर्चा नहीं करते हैं । इसके विपरीत महाभारत के पात्रों के जीवन से हमें इन पारस्परिक संबंधों की आदर्श स्थिति क्या होनी चाहिए , इस विषय में समय – समय पर भरपूर चर्चाएँ पढ़ने को मिलती हैं ।

 महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास के अनुसार संयुक्त परिवार बहुधा स्वागत योग्य है । द्रौपदी विराट् पर्व में कृष्ण से कहती है – हे केशव , इतने इतने भाइयों , श्वसुरों और पुत्रों के होते हुए भी मैं दुःख भोग रही हूँ ! लड़कियों की शिक्षा के विषय में द्रौपदी की शिक्षा के लिए राजा द्रुपद ने विशेष आचार्य की नियुक्ति की थी , ऐसा उल्लेख मिलता है । 

पति का चुनाव करने का अधिकार बहुधा कन्या को रहा हो , ऐसा लगता है । द्रौपदी ने स्वयंवर में पति प्राप्त किया था और अंबा ने भी शाल्व को मन – ही – मन पसंद किया था । शकुंतला ने राजा दुष्यंत के साथ पिता की अनुपस्थिति में गंधर्व विवाह किया था । उससे यह संकेत मिलता है कि स्त्रियों को अपने साथी चुनाव करने का पूरा अधिकार था ।

इसके साथ ही पिता या भ्राता को भी कन्या के विवाह के लिए उत्तरदायी ठहराया गया है । जो पिता अपनी पुत्री का विवाह उसके स्त्रीधर्म में आने के बाद तीन वर्ष तक नहीं करता , उस कन्या को स्वेच्छया विवाह कर लेने का अधिकार महाभारतकार ने दिया है । सास – ससुर का स्थान ऊँचा है ; यह बात बार – बार दृष्टि में आती है ।

अनुशासन पर्व में भीष्म ने स्त्री के लिए ‘ श्वश्रुः श्वशुरवर्तिनी ‘ शब्द का प्रयोग किया है । इसका अर्थ है कि पारिवारिक जीवन में बहू द्वारा सास और ससुर का अनुसरण करना आदर्श माना गया है । अरण्यवास में अर्जुन जब पाशुपतास्त्र पाने के लिए हिमालय जाते हैं तो उस समय उसे विदा करते हुए द्रौपदी ने कहा है — ‘ हे धनंजय , आपके जन्म के समय माता कुंती ने आप से जो अपेक्षाएँ रखी थीं , वे सभी आपको प्राप्त हों । ‘ इसका अर्थ यह हुआ कि संयुक्त परिवार में बहू भी पति से ऐसी ही अपेक्षा रखती थी कि पति का जीवन उसकी जनेता की अपेक्षानुसार हो । पितामह भीष्म जब शरशय्या पर मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे , उस समय कुरुकुल की ‘ स्नुषाएँ ‘ उन्हें पंखों से हवा डुला रही थीं । इसमें मात्र बहू के

ही सास या ससुर के प्रति के कर्तव्य की बात नहीं बल्कि सास को भी कैसा व्यवहार करना चाहिए , इसका उदाहरण कुंती उद्योग पर्व में देती है । कुंती पांडवों को जो संदेशा भेजती है , उसमें कहती है , ‘ हे पुत्रो , द्रौपदी जैसा कहे , वैसा ही करना । द्रौपदी का सम्मान बना रहे , यह भूलना नहीं । ‘

इसके साथ ही कुंती द्रौपदी को भी संदेशा भेजती है , ‘ हे पुत्री , तूने मायके और ससुराल इन दोनों ही पक्षों का नाम उज्ज्वल किया है । तू स्त्रियों का धर्म अच्छी तरह जानती है । ‘ दांपत्य जीवन के विषय में महाभारतकार को जो कहना है , उसका उत्तम उदाहरण वन पर्व में आया द्रौपदी सत्यभामा संवाद अत्यंत उल्लेखनीय है ।

यहाँ सत्यभामा द्रौपदी से पूछती है – हे द्रुपदकुमारी , तुम ऐसा तो क्या करती हो कि जिससे पाँच प्रतापी पति सदैव तुम्हारे वशवर्ती रहते हैं । तुम जो कोई विद्या अथवा मंत्र जानती हो , मुझे बताओ , जिससे मेरे पति श्रीकृष्ण भी मेरे वश में रहें ।

इसके उत्तर में द्रौपदी ने एक बहुत ऊँची मनोवैज्ञानिक बात कही है । उसने कहा- ” बहन सत्यभामा , आप जो प्रश्न पूछ रही हैं , वह प्रश्न मूल से ही पति को पत्नी से दूर ले जानेवाला है । जब कोई पति यह जानता है कि उसकी पत्नी उसे अपने वश में करने के लिए तंत्र , मंत्र या अन्य उपायों का प्रयोग कर रही है तो उस पति के मन में पुरुष प्रकृति के अनुसार ऐसी स्त्री के लिए अरुचि ही पैदा होती है । ‘

चरणेषु दासी ‘ को चरितार्थ करती हो , इस तरह द्रौपदी कहती है कि ‘ पत्नी के रूप में मैं अपनी इच्छाओं से अधिक अपने पति के मन की भावनाओं को महत्त्व देती हूँ । ” ‘ दास – दासियों के होते हुए भी पति की जरूरतों का ही मैं हमेशा ध्यान रखती हूँ । मेरे परिवार में सेवक तक भी भोजन न कर लें , तब तक मैं भोजन नहीं करती ।

परिवार में में सबसे पहले उठती हूँ और सोने के लिए सबसे अंत में जाती हूँ । पति को नापसंद हों , ऐसी बातें मैं नहीं करती और कभी भी बहुत अधिक हँसती भी नहीं तथा क्रोध भी नहीं करती । ‘ हँसना और क्रोध , इन दोनों शब्दों को यहाँ एक ही स्थान पर रखा है ।

जीवन में दोनों का स्थान है , परंतु स्त्री के लिए ये दोनों मर्यादित रूप में आभूषण बन जाते हैं । अमर्यादित रूप से हँसती स्त्री या फिर बहुत अधिक क्रोध करनेवाली स्त्री , दोनों ही स्थितियाँ गृह जीवन के लिए दृषित हैं । द्रौपदी पारिवारिक जीवन में स्त्री को मात्र ‘ चरणेषु दासी ‘ ही नहीं कहती , बल्कि ‘ कार्येषु मंत्री ‘ भी कहती है ।

वह कहती है कि इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर के महल में जो हजारों ब्राह्मण भोजन करते थे , उसकी व्यवस्था वह स्वयं ही सँभालती थी । प्रतिदिन यज्ञ – यज्ञादि कर्मों के लिए जो हजारों ब्राह्मण आते थे , उनके सत्कार – पूजन की व्यवस्था भी द्रौपदी ही करती थी । महल में जो हजारों दास – दासियाँ थीं , उनकी पूरी जानकारी , उनके काम और नाम के साथ द्रौपदी रखती थी ।

यहाँ प्रत्येक दास दासी को वह नाम से पहचानती थी , ऐसा कहने में एक सुंदर मनोवैज्ञानिक पहलू प्रकट होता है । इसके उपरांत स्त्री का ‘ शयनेषु रंभा ‘ रूप भी द्रौपदी के लक्ष्य से बाहर नहीं । वह कहती है , ‘ हे सत्यभामा , आपको अपने पति पर भरपूर विश्वास और प्रेम तो रखना ही चाहिए , पर यह विश्वास और प्रेम आपके व्यवहार में प्रकट भी होना चाहिए ।

पति द्वारा कही हुई बात भले ही एकदम मामूली हो , फिर भी आपके मुँह से वह बात दूसरे के कान में जानी नहीं चाहिए । पति जब अपने दैनिक कार्यों से निपटकर घर वापस आए तो सुंदर वेशभूषा पहनकर उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए और प्रसन्न मुख से उसका स्वागत करना चाहिए । ‘

घर वापस लौटे पति की नजर के सामने सुंदर वेशभूषा के साथ उपस्थित होने की बात महर्षि व्यास दांपत्य जीवन में कामशास्त्र का कितना महत्त्व है , आँकते हैं , इसका प्रमाण है । दांपत्य जीवन में संतान प्राप्ति का मूल्य बहुत ऊँचा है । शांति पर्व में एक स्थल पर ऐसा कहा गया है कि पत्नी मात्र पतिव्रता हो , इतना ही पर्याप्त नहीं , उसे संतानों की माता भी होना चाहिए ।

पितामह एक उदाहरण देकर कहते हैं कि जो स्त्री पति को संतुष्ट नहीं कर सकती , वह स्त्री पत्नी कहलाने के योग्य नहीं स्त्री के लिए पति का महत्त्व आँकते हुए पितामह भीष्म कहते हैं कि पिता के पास से स्त्री को जो कुछ प्राप्त होता है , वह सीमित है । माता और पुत्र का सुख भी मर्यादित है , परंतु पति के पास से जो सुख प्राप्त हो सकता है , वह असीमित होता है ।

दूसरे पक्ष में पत्नी के अधिकारों और पति के कर्तव्यों के विषय में भी महाभारतकार जाग्रत् हैं । शांति पर्व में ही भीष्म ने पुत्र युधिष्ठिर को परिवार जीवन के धर्म को समझाते हुए कहा है कि जो पुरुष अपनी पत्नी का पालन और रक्षण नहीं कर सकता , वह पति होने के लायक नहीं ; इतना ही नहीं , जो पुरुष वैवाहिक जीवन के सहधर्माचार प्रतिज्ञा को भंग करके निंदनीय व्यवहार करता है , उसे अपनी पत्नी की निंदा करने का अधिकार नहीं ।

निंद्य पत्नी की सेवा करना भी पति का सहज कर्म माना गया है । वन पर्व में द्रौपदी जब मूर्च्छित हो जाती है तो पाँचों पतियों में से सबसे छोटे नकुल और सहदेव पत्नी के चरण दबाते हैं उसे युधिष्ठिर आदि भी स्वीकार करते हैं । दांपत्य जीवन में पवित्रता का मूल्य आँकते हुए अनुशासन पर्व में कहा गया है कि ‘ सुक्षेत्र ‘ और ‘ सुबीज ‘ के समन्वय से ही प्रतापी संतान पैदा होती है ।

यहाँ प्रयुक्त ये दोनों शब्द पति और पत्नी की पवित्रता तथा दोनों के बीच के मानसिक ऐक्य को सूचित करते हैं । परिवार में माता का स्थान बहुत ऊँचा रहा है । माता मात्र संतानों की जनेता या जन्मदात्री हो , इतना ही पर्याप्त नहीं । बालक के संस्कार निर्माण के लिए माता को ही प्रेरणादायी माना गया है । सगर्भा स्त्री परिवार में आदर की अधिकारिणी होती थी और सबसे पहले उसके भोजन के लिए व्यवस्था होती थी ।

अरण्यवास के दौरान भीम जब अजगर के मुँह में जकड़ गए थे और अजगर ने जब उन्हें अपना ग्रास बना लिया था तो भीम को सबसे पहले अपनी माता ही याद आती है । भीम आक्रंद करते हुए कहते हैं ‘ मुझे मृत्यु का दुःख नहीं , किंतु पुत्रों पर अपार प्रेम करनेवाली अपनी माता कुंती की अवस्था का विचार करके शोक होता है । ‘

माता – पिता का स्थान संतानों के लिए सर्वोच्च बताया गया है । गर्भ में रहते हुए अष्टावक्र ने पिता के अनुचित कर्म की आलोचना की थी , इसलिए गर्भावस्था में ही उस बालक का शरीर आठ प्रकार से वक्र ( टेढ़ा ) हो गया । माता – पिता अथवा गुरु अनुचित कर्म कर रहे हों तो भी उनका दोष देखना संतान के लिए घोर आचरण माना गया है । महाभारत के विशाल घटाटोप में पारिवारिक जीवन का यह तुलसी पौधा सहसा दिखाई नहीं देता , पर उसकी सुगंध का आनंद महाभारत में हम जगह – जगह पा सकते हैं ।

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