ध्यान क्या है , मौलिक प्रश्न क्या है ।
ध्यान के विषय में बहुत कुछ लिखा गया , कहा जाता है परन्तु किसी की पकड़ में नहीं आता । इस का कारण यह है कि ध्यान ईश्वर की तरह अनुभूति की चीज़ है । यह तर्क – विर्तक या अध्यन की चीज़ नहीं है । ध्यान पकड़ में अनुभव एवं अभ्यास से ही आएगा ।
मन ही मनुष्य के मोक्ष तथा बँधन का कारण है । मनुष्य खाली मांस , मज्जा और हड्डी का ही पुतला नहीं है । परन्तु उस में मन भी है । मन में भिन्न भिन्न प्रकार के विकार और संस्कार भरे पड़े हैं । बचपन से मन पर जिस जिस विषय का प्रभाव पड़ा है वहीं उस का कुछ न कुछ असर पड़ा है ।
जिस समय उस पर काम , क्रोध , अंहकार और राग द्वेष का ज़ोर पड़ता है तो उसी समय उस का प्रभाव शरीर पर , श्वास और मन पर पड़ता है । क्रोध में शरीर पर Control खत्म हो जाता है । गति बदल जाती है । शरीर कांपने लगता है , रंग पीला पड़ जाता है । शरीर पर दिखाई देने वाले प्रभाव से कहीं अधिक प्रभाव मन पर पड़ता है ।
यह सब संस्कारों के रुप में मन के किसी न किसी भाग में थमे रहते हैं । ध्यान सब के लिए आवश्यक है । इस के बिना जीवन दिन प्रतिदिन कठिनाइयों में धंसता जा रहा है । ध्यान लगे या न लगे , हर व्यक्ति को 10 – 15 मिन्ट अभ्यास करना चाहिए । इस में कुछ मौलिक – बुनियादी प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूँ । ताकि कुछ – कुछ आप की समझ में आ जाए । आप की पकड़ में आ सके , आप गहराई में उतर सकें ।
ध्यान क्या है , मौलिक प्रश्न क्या है । ध्यान क्यों करें । कैसे और कब करें
ध्यान की व्याख्या करना इतना ही कठिन है जैसे आकाश को घड़े में बन्द करना , गागर में सागर को भरना । जैसे सुन्दरता , अच्छाई या भगवान की व्याख्या करना कठिन हैं । इन सब चीज़ों का अनुभव किया जा सकता है परन्तु वर्णन करना सरल नहीं है ।
इन्हे शब्दों में बाँधना सरल नहीं है । ऐसी चीज़ों की परिभाषा अपूर्ण होगी । फिर भी हम समझाने के लिए इन बीजों की परिभाषा करने का यत्न करते है । इसी सोच से ध्यान का वर्णन भी किया जाता है । ध्यान को हम यूं भी कह सकते हैं कि ध्यान चित्त की निर्विकार अवस्था है ।
जब हमारा मन एकाग्र हो कर शान्त अवस्था में आता है , तब ध्यान लगता है । खाली चेतन ( Concious ) मन ही नहीं केवल अवचेतन और अचेतन ( Sub concious and unconciousness ) जब तक मन सक्रिय है तब तक मन नहीं लग सकता ।
चेतन + अवचेतन + अचेतन = 3 स्तरों को मिला कर चित्त बनता है । इसी लिए ( महार्षि ) पतंजिल जी ने योग की परिभाषा देते हुए कहा है ” योगः चित्त वृति निरोधः ” योग चित्त की वृतियों ( Tendencies ) का निरोध या रुक जाना ।
मन की क्रियाएँ , क्रिया क्लाप तीनों स्तरों पर बन्द हो जाते हैं । तब हम ध्यान की गहराई , समाधि में पहुँचते हैं । यह वह अवस्था हैं जब शरीर और मन के पार आत्मा के स्तर पर पहुँच जाते हैं । यह शुद्ध चेतन है । चेतन और कुछ भी नहीं । वहाँ पहुँचने पर परम आनन्द की अनुभूति होती है ।
Technique या ध्यान कैसे करें 10 प्रक्रिया के हिसाब से हम यूँ कह सकते हैं कि अन्तर्जगत की यात्रा या आत्मानुसंधान का ऐसा तरीका जिस के द्वारा साधक अपने अस्तित्व की गहराइयों में प्रविष्ट होता है । यहाँ पर वास है जीवन स्तोत्र का । शान्ति और आनन्द का ।
ध्यान मन की इस खण्डित और द्वन्द्वात्मक स्तर के पार जाने का नाम है । ध्यान की परिभाषा निम्न शब्दों में ही कर सकते हैं । ध्यान क्यों करे । ध्यान क्यों लगाया जाए । इस के पहले हमें देखना है कि ध्यान में हम करते क्या हैं और करना क्या है । ध्यान के द्वारा हम सोई हुई शक्तियों को जागृत करते हैं ।
अष्टांग योग के अनुसार हमारा शरीर सात हिस्सों यानि की सात चक्रों में बंटा हुआ है । सात हिस्सों को हम शास्त्रिय भाषा में साधना चक्र कहते हैं ।
इन का सम्बन्ध ” कुण्डलिनी शक्ति से है । कुण्डलिनी क्या है । इस का वर्णन करने का प्रयत्न कर रहा हूँ ।
कुण्डलिनी
कुण्डलिनी महाशक्ति प्रकृति सर्वोच्च उर्जा है , महाशक्ति है । यह महाशक्ति सुप्त अवस्था में मूलाधार चक्र की जड़ में साढ़े तीन चक्र लगा कर नीचे की तरफ मुहँ कर अपनी पूंछ अपने ही मुंह में दवा कर विराजमान है । मस्ती मे बैठी हुई है । उर्जा शक्ति होने के कारण यह महाशक्ति सुप्तावस्था में भी मनुष्य के शरीर में अपना कार्य करती है । कुण्डलिनी को
ध्यान कैसे करें जानने से पहले , सातों चक्रों का ज्ञान होना बहुत ज़रूरी है । इस के साथ – साथ साधक को शरीर तन्त्र का पूरा ज्ञान होना जरुरी है । सत्यता यह है कि प्राणों को नियंत्रित कर के ही कुण्डलिनी शक्ति जागृत की जाती है ।
श्री योगीश्वर भगवान शंकर जी ने नियंत्रित करने के लिए 400 विधियां बताई हैं । मन , प्राण को शान्त करने वाली विधियों में से किसी विधि को अपनाकर अपने प्राणों की कुण्डलिनी महाशक्ति हेतु शुद्ध कर सकता है ।
शक्तिपात भी एक चम्तकारक मार्ग है । यह केवल योग्य गुरु के द्वारा ही सम्भव है । यह कुण्डलिनी महाशक्ति निरन्तर ध्यान साधना करने से , गुरु कृपा , ईष्ट कृपा से भी जागृत हो जाती है । पुराने समय से ही योग विज्ञान के अंर्तगत विभिन्न योग ” क्रियाओं का विस्तार के साथ वर्णन है ।
जैसे पातंजल योग , मंत्र योग , ध्यान योग , तन्त्र योग , स्वर योग , जप योग , शक्ति योग इत्यादि । कितने ही योग मार्गों का Detail में विस्तार रुप से हमें शास्त्रों में वर्णन मिलता है । इन योग साधनाओं का नियमित अभ्यास करने से साधक की सब से बडी शक्ति का आधार , परम महाशक्ति कुण्डलिनी के ध्यान की गहराई एकाग्रता की स्थिति उत्पन्न होने लगती है ।
उस समय शक्ति दायनी कुण्डलिनी स्वरुपा सिद्धि के स्थल में , एक विशेष प्रकार की स्पन्दन ( Sensation ) शुरु हो जाती है । कई साधकों के प्रारम्भिक समय में ही साधारण सी स्पन्दन ( Sensation ) होने लगती है । अगर साधक को किसी भी योग चक्र को थोड़ा सा भी जागृत करना हो तो उसे उसी
है । कई साधकों के प्रारम्भिक समय में ही साधारण सी स्पन्दन ( Sensation ) होने लगती है । अगर साधक को किसी भी योग चक्र को थोड़ा सा भी जागृत करना हो तो उसे उसी ध्यान कैसे करें 12
चक्र पर ध्यान को केन्द्रित करना चाहिए । ऐसा करने से उस स्थान पर चक्र पर दिव्य शक्ति निवास करती है , धीरे – धीरे जागृत होने लगती है , विकसित होने लगती है । सब से पहले मूलाधार चक्र में ( लं ) शब्द है । यह इस का बीज मंत्र है ।
इस का निरन्तर जप करने से और ध्यान करते रहने से , इस चक्र की शक्तियों का उदय होता है । कुण्डलिनी जगाने से पूर्व साधक के लिए जरूरी है कि वह लगातार अभ्यास और साधना से मूलवन्ध को मजबूत करे परिपक्व अवस्था में पहुँचा दे ।
” मूलवन्ध ” साधना की परिपक्व अवस्था को प्राप्त होते ही साधक की संकल्प एवं धारण शक्ति अत्यन्त प्रवल हो जाती है | साधक की वाणी , आकृति एवं दृष्टि में एक विशेष आकर्षण उत्पन्न हो जाता है । उसी में सम्मोहन शक्ति का विकास भी होता है ।
साधारण व्यक्ति स्वाभविक ही उस की और आकर्षित होने लगते हैं । सम्पर्क स्थापित होने पर उन्हें साधक का ध्यान बार – बार आता रहता है । कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए ” मूलवन्ध ” ही महाशक्तिशाली सशक्त माध्यम है । उस की कुंजी है । यह तथ्य साधक भली भांति जान लें , समझ लें कि इस मार्ग पर चलते हुए ” मृत्यु ” तो कभी भी नहीं हो सकती क्योंकि इस मार्ग पर चलने से मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली जाती है ।
आखिर में मैं यही कहना चाहूँगा की जो साधक अपनी मानसिक इच्छाओं , कामनाओं या जो भी अनुचित्त वृत्तियाँ हैं , उन सब पर साधना द्वारा अंकुश लगा लेता हैं । अँकुश लगाने की इच्छा शक्ति प्राप्त कर लेता है ।
अभिमान के बिना , आत्म विश्वास के साथ योग साधना निरन्तर करता है ।
साधक को इस महाशक्ति की साधना का अधिकार प्राप्त हो जाता है । जो बिना गुरु , जल्दी – जल्दी , बिना निर्दश साधना शुरु करता है , उस का शीघ्र पतन हो जाता है ।