नकारात्मक तत्त्वों की दारुण पराजय ।
नकारात्मक तत्त्वों की दारुण पराजय ।
मनुष्य में त्याग , सेवा , प्रेम , समर्पण जैसे सकारात्मक और अहंकार , ईष्या , द्वेष , वैर आदि नकारात्मक , इस प्रकार दोनों अंतिम एक साथ रहते हैं । जिस समाज में जिन तत्त्वों का तात्कालिक प्राधान्य होता है , वह समाज उस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक होता है । वर्तमान युग नकारात्मक तत्त्वों से व्याप्त है , ऐसा हम सभी सामान्यतः स्वीकार करते हैं और उससे मुक्त होकर सकारात्मक तत्त्वों का प्राधान्य स्थापित करना आदर्श रहा है । इस संदर्भ में महाभारत के कथानक हमें किस तरह दिशा – निर्देश कर सकते हैं ?
समग्र मानवजाति के इतिहास में कोई भी कालखंड पूरा का पूरा सकारात्मक हो या पूरा का पूरा नकारात्मक हो , ऐसा कभी हुआ नहीं बीती सदी के पत्र – पत्रिकाओं में कवि नर्मद का ‘ डॉडियो ‘ ( गुजराती ) देखें तो उसमें कवि ने उग्रता से शिकायत की है कि यह जमाना बहुत बारीक आया है और लोगों में सद्गुणों का इस हुआ है । चार हजार वर्ष पुराना एक शिलालेख इजिप्ट में मिला है और उसमें ऐसी निराशा व्यक्त की गई है कि इस युग में जन्म लेना अतिशय कठिन काम है ।
इस शिलालेख का उल्लेख डॉ . राधाकृष्णन ने अपने एक ग्रंथ में किया है । महाभारत काल में जैसे और जितने कुकृत्य हुए हैं , उतने और वैसे दुष्कृत्य शायद आज के युग में ढूँढ़े भी नहीं मिलेंगे । इसके बावजूद आज का युग अधिक नकारात्मक मूल्यों से भरा लगता है तो इसका एक ही कारण हो सकता है कि महाभारत के तमाम नकारात्मक कृत्यों के बीच श्रीकृष्ण या भीष्म जैसे उत्तुंग शिखर भी थे । आज हमारे बीच ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं , इसके कारण ही हमारे जीवन में एक रिक्तता का निर्माण हो गया है ।
एक तरह से देखें तो महाभारत ऐसे नकारात्मक मूल्यों का ही योग है । अहंकार , द्वेष , ईर्ष्या , वैर , ये सब महाभारत के लगभग सभी पात्रों में और उनके आचरण में इस सीमा तक प्रतिबिंबित होते हैं कि कभी – कभी तो हमें लगता है कि महामनीषी व्यास से क्या , इन सभी के आलेखन के लिए ही यह ग्रंथ रचा है ।
इस सतही प्रश्न के भीतर जाकर देखें तो तुरंत खयाल आता है कि ऐसे नकारात्मक तत्वों की विजय नहीं बल्कि दारुण पराजय हो महाभारतकार को अभिप्रेत है । दुर्योधन आदि नकारात्मक तत्त्वों की विजय तो हुई और इस तरह ‘ धर्म की जय ‘ यह सूत्र स्थापित तो किया , परंतु ये विजेता तत्व भी नकारात्मक मूल्यों से मुक्त नहीं थे और इसीलिए महाभारतकार ने इन विजेताओं से रुदन कराया है तथा स्वर्गारोहण में आत्म विलोपन ( आत्महत्या ) कराया है ।
सामान्य रूप से हम रामराज्य को एक आदर्श स्थिति कहते हैं । रामराज्य माने सुख , समृद्धि और सद्गुणों का योगफल , ऐसा हमें अभिप्रेत होता है । पर रामराज्य में ही जीवित रहने और तप जैसे अपराध के लिए शिरोच्छेद का दंड पानेवाले शंबूक को यह रामराज्य कैसे सकारात्मक लगा होगा ? इसी प्रकार लंका विजय के बाद सौता के सतीत्व की परीक्षा अग्निप्रवेश द्वारा नजरो – नजर देखने के बाद भी राम ने गर्भवती पत्नी को एकमात्र धोबी के कुवचन के आधार पर वन में असहाय अवस्था में त्याग दिया ।
इस परित्यक्ता पत्नी के पेट से अवतरित हुए दो पुत्र लव और कुश को पिता का यह राज्य किस तरह का आदर्श राज्य लग सकता है ? इस प्रकार कोई भी कालखंड का पूर्णतः सकारात्मक अथवा नकारात्मक होना संभव ही नहीं । महाभारत में ऐसे नकारात्मक मूल्यों का योगदान बड़ा है । लगभग सभी पात्र ऐसे तत्त्वों से ही प्रेरित हैं , इसे स्वीकार भी करना चाहिए । महाभारत का आरंभ ही वैर भावना से होता है । उत्तुंग नाम का एक ब्राह्मण अपना विद्याध्ययन पूर्ण करने के बाद गुरु से गुरुदक्षिणा स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करता है ।
गुरु को तो कोई लालसा नहीं किंतु गुरुपत्नी उत्तुंग से कहती है कि चार दिन के बाद यहाँ आश्रम में एक उत्सव है और इस उत्सव में सभी अतिथियों को भोजन परासेते समय मैं कान में सुवर्ण कुंडल पहनना चाहती हूँ । राजा पौष्य की रानी ने जो कुंडल धारण किए हैं , वही कुंडल पाना चाहती हूँ । गुरु ने गुरुपत्नी की यह इच्छा पूरी करने के लिए उत्तुंग को कहा उत्तुंग ने राजा पौष्य की रानी से ये कुंडल याचना करके प्राप्त तो किए , किंतु जब वह इन कुंडलों को लेकर आश्रम लौट रहा था तो मार्ग में उसके पास से साधुवेशधारी तक्षक नाग ने उन्हें चुरा लिया ।
( साधु के लिए यहाँ महाभारत में ‘ क्षपणक ‘ शब्द प्रयुक्त हुआ है और संस्कृत भाषा में क्षपणक ‘ शब्द दिगंबर या बौद्ध साधु के लिए ही प्रयुक्त होता रहा है । इसे ध्यान में रखते हुए तक्षक को यहाँ ‘ क्षपणक ‘ कहा गया है । यह मुद्दा रसप्रद और विचारणीय है । ) उत्तुंग बहुत ही श्रमपूर्वक यह कुंडल तक्षक के पास से वापस प्राप्त करता है और गुरुपत्नी को दक्षिण के रूप में देकर ऋणमुक्त होता है । परंतु तक्षक ने उसके मार्ग में अकारण ही जो विघ्न खड़ा किया था , उससे वह रोष से भरा था ।
इस रोष से प्रेरित होकर वह तक्षक से प्रतिशोध लेना चाहता था । प्रतिशोध की अग्नि में जलता हुआ वह हस्तिनापुर में राजा जनमेजय के पास गया । जनमेजय अर्थात् अभिमन्यु का पौत्र जनमेजय के पिता परीक्षित की मृत्यु तक्षक नामक नाग के डसने से हुई थी । से तक्षक नाग ने परीक्षित को डसा , वह भी परीक्षित के प्रति ऋषिकुमार शृंग के वैरभाव के कारण ही था ।
परीक्षित ने श्रृंग के पिता शमिक को मृत सर्प से अपमानित किया था और उससे क्रोध में भरे शमिक के पुत्र श्रृंग ने राजा को तक्षक नाग इसे , ऐसा शाप दिया था । इस शाप के अनुसार तक्षक नाग द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुए परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने यह बात भुला दी थी उत्तुंग जब तक्षक नाग से प्रतिशोध लेने के लिए जनमेजय के पास आया , उस समय जनमेजय तक्षशिला गए हुए थे ।
उत्तुंग ने जनमेजय के आने तक उसकी प्रतीक्षा की और फिर अपने वैर की बात करने के बजाय तक्षक ने जनमेजय के पिता को दंश दिया था और इसलिए पितृभक्त पुत्र के रूप में जनमेजय को इस तक्षक नाग से प्रतिशोध लेना ही चाहिए , इस तरह उसे उकसाया उत्तुंग की यह युक्ति सफल भी हुई और राजा जनमेजय ने तक्षक का संहार करने के लिए सर्पसत्र यज्ञ आरंभ किया । ( यहाँ एक अन्य रसप्रद निरीक्षण भी ध्यान करने लायक है । रामायण का महाविनाश सीता द्वारा की गई कांचनमृग की माँग के कारण संभव हुआ था ।
इसी प्रकार महाभारत में राजा जनमेजय द्वारा जो महासंहार होता है , उसे भी उत्तुंग से सुवर्णकुंडल की माँग करनेवाली गुरुपत्नी की घटना के साथ जोड़कर देखा जा सकता है । ) छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए योग्य कन्या खोज लाने के लिए भीष्म ने राजा शाल्व की तीन पुत्रियों का अपहरण किया ।
इन तीनों में से बड़ी पुत्री अंबा मन – ही – मन अन्यत्र वरी जा चुकी थी , इसलिए भीष्म ने उसका त्याग किया । इसके बाद अंबा का कहीं स्वीकार नहीं हुआ , यह कथा सर्वविदित है और अंत में अपनी इस दुर्दशा के लिए भीष्म ही कारणभूत हैं , यह मानकर अंबा ने भीष्म का नाश करने के प्रयास किए । उसमें उसे सफलता
नहीं मिली , इसलिए कठोर तपश्चर्या करके भीष्म से बदला लेने के लिए उसने दूसरा जन्म प्राप्त किया । दूसरे जन्म में वह राजा द्रुपद की पुत्री शिखंडी बनी और इस शिखंडी के रूप में उसने भीष्म से प्रतिशोध लिया । इसी प्रकार कर्ण और अर्जुन के बीच के वर की कथा प्रसिद्ध है ।
आचार्य द्रोण ने कुरुकुमारों के अस्त्र – शस्त्र विद्या की जब परीक्षा ली , उस समय कर्ण ने अर्जुन को चुनौती दी थी , किंतु ‘ तू सूतपुत्र है और अर्जुन राजकुमार है , ‘ यह कहकर उसे भगा दिया गया था । इस अपमान से प्रेरित कर्ण ने आजीवन अर्जुन के प्रति मन में रोष रखा था ।
इंद्रप्रस्थ में राजसूय यज्ञ के समय मयदानव द्वारा निर्मित महल में जल को स्थल मानकर और स्थल को जल मानकर भ्रमित हुए दुर्योधन को लज्जित किया गया था दुर्योधन ने छूतसभा में द्रौपदी को लज्जित करके इस अपमान का बदला लिया , परंतु द्रौपदी की इस लज्जित अवस्था के कारण ही भीम ने दुर्योधन की जाँघ तोड़ने और दुःशासन का रुधिर पान करने की प्रतिज्ञा की और यह प्रतिज्ञा उसने पूरी भी की ।
इसी प्रकार द्रोण और द्रुपद के बीच वैर की बात भी महाभारत की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक है । द्रुपद द्वारा अपमानित होकर द्रोण ने अपना ब्राह्मणधर्म त्याग कर हस्तिनापुर का वैतनिक आचार्य पद स्वीकार किया और इस आचार्य पद की गुरुदाक्षिणा के रूप में उन्होंने अर्जुन द्वारा द्रुपद को पराजित कराया पराजय के इस बैर को शांत करने के लिए द्रुपद ने यज्ञवेदी से द्रोण का वध कर सके , ऐसा पुत्र धृष्टद्युम्न प्राप्त किया ।
इस धृष्टद्युम्न ने अंत में द्रोण का वध तो किया , परंतु पिता के वध से रोषित हुए द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने अठारहवें दिन की रात में सेनापति धृष्टद्युमन की हत्या की उसकी हत्या के कारण ही अश्वत्थामा ने प्राण बचाने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और इस ब्रह्मास्त्र ने एकमात्र बचे गर्भस्थ कुरुवंशज परीक्षित का संहार किया परीक्षित ने कृष्ण की कृपा से पुनर्जीवन तो प्राप्त किया , पर ऊपर कही गई शामिक ऋषि और तक्षक नाग की घटना के साथ यह वैर – चक्र सतत चलता ही रहा ।
तत्कालीन समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता का एक उदाहरण भी देखने योग्य है । आचार्य द्रोण ब्राह्मण गुरु और शिक्षक हैं । विद्वान् भी हैं , परंतु अपने एकमात्र पुत्र को दूध की एक बूँद भी पिला सके , ऐसी उनकी स्थिति नहीं थी । जो समाज एक तरफ समृद्धि में लोटता हो , उसी समाज में दूसरे छोर पर विद्वान् ब्राह्मण और अध्यापक ऐसी दारुण विपन्नता में जीवन व्यतीत करता हो , उस समाज में रक्तरंजित संक्रांति निश्चित रूप से प्रकट होती ही है । इस आर्थिक असुरक्षा के कारण ही द्रोण ने अपने ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध जाकर राजा द्रुपद से याचना की ब्राह्मण और अध्यापक को याचक ही होना चाहिए ।
द्रोण याचक नहीं रहे और अपने धर्म का त्याग करके याचक बने फलस्वरूप इसके बाद जो घटनाएँ घटी , उनका अंत महाभारत के महासंहार के रूप में हुआ है , यह याद रखने लायक है , द्रोण के इस अधर्म का प्रत्युत्तर द्रुपद ने भी धर्मविरुद्ध ‘ पुत्रेष्टि ‘ यज्ञ द्वारा द्रोण के वध के लिए पुत्र प्राप्त करके दिया है । इस प्रकार अधमों की यह हारमाला लंबी होती गई है ।
वैरभावना के उपरांत दुर्योधन का अहंकार , ईर्ष्या , असूया , द्वेष , ये सभी तत्त्व भी महाभारत में भरपूर दिखाई में देते हैं । विशेषरूप से ईर्ष्या , द्वेष और असूया इन तीन मानवसहज दुर्बलताओं ने महाभारत के कथानकों में जो भूमिका निभाई है , वह ध्यान देने योग्य है । इसे ध्यान में रखने के पहले इन तीनों शब्दों को उनके सही अर्थों में समझ लेना चाहिए ।
ऊपर से ये तीनों शब्द एक ही अर्थ देते हों , इस तरह हम इनका उपयोग करते हैं , पर ताविक रूप से ये तीनों शब्द भिन्न भाव अभिव्यक्त करते हैं । जो वस्तु प्राप्त करने की मुझे आकांक्षा हो और उस वस्तु के लिए मैं अपने आपको सबसे अधिक योग्य व्यक्ति भी मानता होऊ , वही वस्तु मुझे प्राप्त होने के बदले अन्य किसी को प्राप्त हो जाए तो उस व्यक्ति के प्रति मेरे मन में जो भाव प्रकट होगा , वह ईष्याभाव है । इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर को अपार समृद्धि प्राप्त हुई और आर्यावर्त्त के तमाम राजाओं ने युधिष्ठिर की अपरिमेय सत्ता का स्वीकार भी किया ।
इससे दुर्योधन के मन में प्रचंड ईर्ष्या उत्पन्न हुई और इस ईर्ष्या के कारण ही युधिष्ठिर के पास से सारा कुछ छीन लेने के लिए उसने अपने मामा शकुनि की सलाह के अनुसार द्यूत का आयोजन किया । इसमें दुर्योधन का यह मानना स्वाभाविक सही ही था कि जो ऐश्वर्य और सत्ता युधिष्ठिर को प्राप्त हुई थी , वह सब उसकी अपेक्षा मेरे लिए अधिक उचित कही जाएगी । यह हुआ ईर्ष्याभाव ! राजसूय यज्ञ में शिशुपाल ने श्रीकृष्ण की अग्रपूजा का विरोध किया । शिशुपाल का यह कृत्य ईष्याभाव नहीं था ।
अग्रपूजा कृष्ण के बदले उसकी स्वयं की होनी चाहिए ऐसा आग्रह शिशुपाल का बिल्कुल नहीं था । वह कृष्ण के समकक्ष नहीं और अग्रपूजा का अधिकारी नहीं , यह बात शिशुपाल मन – ही – मन अच्छी तरह जानता है , पर रुक्मिणी का विवाह स्वयं उसके साथ न होकर ओकृष्ण के साथ हुआ , इसके कारण उसके मन में कृष्ण के लिए रोष धधकता था ऐसी परिस्थिति में आर्यावर्त के प्रथम पुरुष के रूप में कृष्ण स्वीकार किए जाएँ , यह शिशुपाल को सहन हो , यह संभव नहीं था और इसीलिए कृष्ण के बदले भीष्म , द्रोण या दूसरे किसी का भी पूजन हो , ऐसा वह आग्रह करता है ।
इसमें भीष्म या द्रोण के लिए शिशुपाल के मन में अहोभाव या आदरभाव नहीं है , केवल कृष्ण को अग्रपूजा से वंचित रखने का द्वेषभाव ही है । इस प्रकार द्वेष ईर्ष्या से अधिक हीन कोटि की विभावना ईर्ष्या और द्वेष जैसे ही और बहुत कुछ इन दोनों शब्दों के समान अर्थ में एक तीसरे शब्द का हम प्रयोग करते हैं । यह शब्द है असूया मूल संस्कृत भाषा में ‘ सू ‘ धातु से यह शब्द बना है । ‘ सू ‘ का अर्थ है जन्म इस पर से ‘ सूया ‘ अर्थात् ‘ जन्म देना ‘ और सूयाणी यानी जन्म देनेवाली स्त्री , ‘ दाई ये शब्द प्रचलित हुए हैं । असूया शब्द भी इस सू ‘ धातु पर से ही बना है । सूया माने जन्म देना और असूया माने जो किसी को भी जन्म नहीं दे सके वह ईष्या या द्वेष का मूल कारण असमर्थता है ।
व्यक्ति अपनी असमर्थता इस भाव में प्रकट करता है । ईर्ष्या और द्वेष से कुछ भी नहीं पाया जा सकता है । इससे कुछ भी नहीं जनमता है , इसलिए जिसमें से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता , उस भाव को असूया कहते हैं । दुर्योधन की ईर्ष्या या शिशुपाल के द्वेष की बात हमने देख ली है । ऐसा ईर्ष्याभाव मात्र दुर्योधन ने ही पाल रखा था , ऐसा हम कहें तो दुर्योधन के प्रति अन्याय होगा ।
अर्जुन जब सुभद्रा को व्याहकर हस्तिनापुर ले आए तो द्रौपदी ने भी अपनी इस सौतन के विरुद्ध ऐसी ही ईष्या प्रकट की है । अरण्यवास काल में कुती जब मंत्र द्वारा तीन पुत्र प्राप्त करती है , उस समय माद्री भी ऐसे ईष्याभाव से पीड़ित होती है । माद्री के पास कोई मंत्रसिद्धि नहीं है और पति पांडु राजा संतान पैदा कर सकने में असमर्थ हैं , इसलिए माद्री अपना यह ईर्ष्याभाव पति के समक्ष व्यक्त करके कुंती के दो मंत्र स्वयं उसे मिले , ऐसा आग्रह करती है ।
माता गांधारी जब गर्भवती थी , उस समय अरण्यवास में कुंती ने ज्येष्ठ पांडुपुत्र युधिष्ठिर को जन्म दिया है , यह बात उन्होंने जानी तो उनके मन में तीव्र असूया पैदा हुई थी । कुंती का पुत्र पहले जनमा , इसका अर्थ यह हुआ कि इसके बाद युवराज भी वही बनेगा और
गांधारी के पुत्र का स्थान सामान्य राजकुमार से विशेष कुछ नहीं रहेगा । इस असूयाभाव से प्रेरित होकर हताश हुई गांधारी ने अपना संपूर्ण रोष अपने गर्भ पर उतारा और बलपूर्वक गर्भ को त्याग दिया था । अहंकार का सर्वोत्तम उदाहरण दुर्योधन है । दुर्योधन प्रचंड वीर और समर्थ योद्धा था ।
हस्तिनापुर में राज्यशासन उसने कुशलता और कुशाग्रता से किया था । उसने कई युद्ध जीते थे । अनेक यज्ञ किए थे और बहुत अधिक दान भी दिए थे । वह शास्त्रों का ज्ञाता भी था । इतना ढेर सारा ज्ञान होते हुए भी वह पांडुपुत्रों के प्रति अपनी ईर्ष्या का त्याग नहीं कर सका ; इतना ही नहीं , युद्ध में और अन्यत्र भीम या अर्जुन के हाथों सतत पराजित होते रहने के बावजूद उसने निरी वास्तविकता के साथ समझौता नहीं किया ।
उसका अहंकार उसे ऐसा करने नहीं देता और इस अहंकार के कारण ही युद्ध के अठारहवें दिन जब पूरी कौरव सेना का नाश हो गया , उस समय वह जल में छुप में गया था , परंतु कृष्ण ने उसके अहंकार को झकझोर कर जल के तल पर छिपा दुर्योधन सुन सके , इस तरह जोर जोर से कहा कि यह दुर्योधन भीम से डरकर छुप गया है , पर यदि एक बार वह भीम की नजर में पड़ जाए तो भीम उसे अवश्य मार डालेंगे । जल में दुर्योधन का अहंकार इससे आहत हुआ और वह खुद ही आगे बढ़कर बाहर आया , फलस्वरूप भीम ने उसका वध किया ।
इस प्रकार महाभारत के असंख्य कथानक ऐसे नास्तिवाचक ( नकारात्मक ) भावों से प्रेरित हैं । यदि ऐसे नकारात्मक भावों का ही आलेखन और प्राधान्य रखना हो तो महर्षि व्यास जैसे क्रांतिद्रष्टा हमें यह कथा क्यों सुनाएँ ? इन तमाम भावों द्वारा कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता ; इतना ही नहीं , जो भी सिद्धि होती हुई प्रतीत होती है , वह प्रायः सपाटी के ऊपर की कामचलाऊ व्यवस्था होती है । द्यूतसभा में दुर्योधन की विजय या फिर अरण्यवास के दौरान द्रौपदी की हुई अवहेलना , यह सब सहन करना ही पड़ता है ।
एक तरह से देखें तो द्यूत में पराजित पांडवों के लिए दुर्योधन से भी अधिक युधिष्ठिर इसके लिए उत्तरदायी थे । अरण्यवास में उन्होंने स्वयं ही कहा है कि मेरे मन में ऐसा था कि मैं धूत की पासा विद्या में प्रवीण हूँ , इसलिए दुर्योधन को हराकर हस्तिनापुर का राज्य में युद्ध किए बिना ही प्राप्त कर लूँगा । इस प्रकार युधिष्ठिर स्वयं की पापभावना से प्रेरित थे । द्रौपदी की लज्जास्पद अवस्था के लिए युधिष्ठिर की खुद की जवाबदारी भी कम नहीं थी ।
नकारात्मक भाव किसी भी उत्तम समझे जानेवाले व्यक्ति में भी रहे ही हैं । इसे अस्वीकार करना वास्तविकता से आँख मूँदने जैसा ही है । इसे निर्मूल नहीं किया जा सकता है । महाभारतकार इन भावों के कथानकों से मानो भावी पीढ़ियों को यह बताना चाहते हैं कि व्यक्ति को जो भी प्रयत्न करने हैं , उसे ऐसे भावों से यथासंभव कम से – कम प्रेरित होकर अपने जीवन का विकास सिद्ध करना चाहिए । दुर्योधन और युधिष्ठिर दोनों में ही ऐसे नकारात्मक भाव निश्चित रूप से रहे हैं , पर युधिष्ठिर ने उसे निर्बलता समझकर अपना जीवनक्रम निश्चित किया है । जब कभी ऐसी निर्बलता प्रकट भी हुई तो उसे सँभाल लेने के लिए उन्होंने जागरूकता भी दिखाई है , और यही महाभारतकार को अभिप्रेत भी रहा है ।
मनुष्य प्रकाश और अंधकार , इन दो तत्त्वों का अजीब सम्मिश्रण है । कोई मनुष्य कभी भी पूर्ण नहीं पूर्णता की प्राप्ति के लिए यात्रा , यही मानव जीवन की पराकाष्ठा है । इस यात्रा पथ में अनेक विघ्न हैं । मनुष्य की अपनी अपार निर्बलताएँ हैं । प्रत्येक मनुष्य अर्जुन जैसा भाग्यशाली भी नहीं होता कि जिसके रथ की लगाम किसी अदृष्ट कृष्ण के हाथ में रखी रहने वाली है । एक अन्य गर्भित सूचितार्थ भी महाभारत के घटनाचक्र से निकाला जा सकता है । सकारात्मक मूल्यों का प्राधान्य बनाए रखकर जो भी सहज प्रवृत्तियाँ यथाशक्ति , यथामति आचरित की हुई हों , उनके फलस्वरूप जो भी प्राप्त होता है , वह भी कोई सुखद या शाश्वत नहीं होता है ।
सुख सतह पर की भ्रामक कल्पना है । युद्ध को टालने के लिए मनुष्य से हो सके , वे सभी प्रयास करने के बावजूद कृष्ण और उनका समग्र यादव परिवार माता गांधारी द्वारा शापित होकर नष्ट हो गया । कृष्ण की यादवी सेना दुर्योधन के पक्ष में लड़ी थी और स्वयं कृष्ण ने निःशस्त्र रहकर पांडवों के पक्ष में सारथि का कर्तव्य निभाया था । इसके बावजूद ये सभी यादव शापित हुए और विनाश को प्राप्त हुए । कोई युग स्वर्णयुग नहीं होता ।
कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं कोई कृत्य परिणाम विहीन नहीं । महाकाल प्रत्येक कृत्य को तराजू में तौलकर निर्णय नहीं करता । काल एक सतत बहती सरिता नहीं बल्कि एक स्थिर सरोवर है और हम सभी इस सरोवर के किनारे व्यर्थ गोल – गोल घूमते रहते हैं और अपनी इस प्रदक्षिणा में जो कुछ प्राप्त होता है , उसे अपने भोलेपन से सिद्धि मान लेते हैं । सिद्धि अर्थ , काम या मोक्ष से प्राप्त नहीं होती । यदि धर्म का अनुसरण न हुआ हो तो अर्थ , काम और मोक्ष निरर्थक शब्द बन जाते हैं ।
इन शब्दों का व्यतिक्रम करके मनुष्य जब धर्म का सेवन करता है , तभी उसका जीवन सार्थक होता है । अन्यथा दुर्योधन हो या युधिष्ठिर , जीवन एक समस्या बन जाता है । इस समस्या के निराकरण के लिए अधिकांशतः कृष्ण से और कुछ अंशों में भीष्म से हमें मार्ग प्राप्त होता है । जो समाज अश्वमेध यज्ञ की सिद्धि को आँख फाड़कर आदर्श मानता है , उस समाज को महाभारतकार ने आधे सुवर्णदेहवाले नेवले की कथा प्रस्तुत करके उचित दिशा – निर्देश किया है ।
युधिष्ठिर की समृद्धि , विजय अथवा दान को नैमिषारण्य के ब्राह्मण परिवार के अन्न की महत्ता के समक्ष नगण्य माना है । अकिंचन ब्राह्मण के त्याग से अपनी आधी देह सोने की कर सकनेवाला नेवला युधिष्ठिर के इस अश्वमेध यज्ञ के द्वारा भी अपना शेष आधा शरीर सोने का नहीं कर पाता है । समाज में सर्वोच्च स्थान त्याग का है । जीवन में उच्चतम शिखर तप का है । समृद्धि , सत्ता , विजय ये सब जरूरी हों , तो भी उसका क्रम प्रथम नहीं , द्वितीय ही रहेगा ।
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