कलि केवल मल मूल मलीना । आध्यात्मिक ज्ञान।

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~~श्री हरि~~
कलि केवल मल मूल मलीना । 
. पाप पयोनिथि जन मन मीना ।।
कलियुगमें ऐसा जोरोंसे पाप छा जायगा कि मनुष्योंका मन जलमेँ मछलीकी तरह पापोमें रम जायगा अर्थात् जैसे मछलीको जलसे दूर
कर देनेपर वह घबरा जाती है, उसको पहले अगर यह समझमें आ जाय कि तुम्हें जलसे दूर कर देंगे तो वह घबरा जायगी; क्योंकि वह ज़लके बिना जी नहीं सकती, ऐसे ही ‘पाप पयोनिधि’ -पापरूपी तो हुआ समुद्र और उसमें ‘जन मन मीना’ …-मनुष्योंका मन मछली हो गया । आज अगर कहा जाय कि ब्लेक मत करो, झूठ-कपट मत करो, बेईमानी मत करो, न्यायसे काम करौ तो कहते हैं, “महाराज  झूठ-कपटके बिना आजके जमानेमेँ काम नहीं चलता । ईंमानदारीसे अगर काम करें तो बडी मुश्किल हो जायगी । हमारेसे यह नहीं होगा ।’ पापसे दूर करनेकी बात सुनते ही काँपते हैं । वे डरते हैं कि पाप अगर छोड़ देंगे तो गजब हो जायगा फिर तो हमारा निर्वाह होगा ही नहीं  हमारा तो झूठ-कपट-बेईंमानीसे ही काम चलता है । इन बातोंसे ऐसा नही मानना चाहिये कि दुराचारी-पापी, अन्यायी भनुष्य भजनमेँ नहीँ लग सकता । गीता तो कहती है…
अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाकृ ।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्याग्व्यवसितो हि स : ।। ‘ 
सांगोपांग दुराचारी भी यदि पक्का विचार करके भजनमेँ लग जाय तो उसे मामूली आदमी नहीं समझना चाहिये । भगवान् कहते हैं… ‘उसे साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने निश्चय पक्का कर लिया । ‘ भगवान्ने गीतामें चार प्रकारके भक्त बताये हैं… ‘आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ’ आर्त और ‘अर्थार्थी ‘ भक्त भगवान का नाम लेते हैं । जिज्ञासु भी उनका नाम लेता है । परंतु ज्ञानी तो प्रथुहिं बिसेषि पिआरां ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ वह तो
भगवान की आत्मा ही है ।
 
रुचिर स्कार बिन तज दी सती सी नार,
किनी नाहीं रति रुद्र पायके कलेश को ।
गिरिजा ‘भाईं है पुनि तप ते अपर्णा तबे,’
कीनी अर्धगा प्यारी लगी गिरिजेश को ।।
विष्जु पदी गंगा तउ धूर्जटी धरि न सीस,
भागीरथी भईं तब धारी है अशेष को ।
बार बार करत रकार और मकार थ्वनि,
पूरंण है प्यार राम-नाम ये महेश कौ ।।
सबसे श्रेष्ठ -सती है, पर उनके नाममे ‘स’ और ‘त’ है, पर ‘र’ और ‘म’ तो है ही नहीं । इस कारण भगवान शंकरने सतीको छोड दिया । ‘वे सतीका त्याग कर देनेसे  अकेले दु:रव पा रहे हैं । उनका मन भी अकेले नहीँ लगा । इस कारण काकभुशुण्डिजीके यहाँ हंस बनकर गये और उनसे ‘रामचरित’ की कथा सुनी । ऐसी बात आती है कि एक बार सत्तीने सीताजीका रूप धारण … कर” लिया था, इस कारण उन्होंने फिर सतीसे प्रेम नहीं किया और साथमेँ रहते हुए भी उन्हें अपने सामने आसन दिया, सदाक्री तरह बायें भागमेँ आसन नहीं दिया । फिर सतीने जब देह-त्याग कर दिया -तो वे उसके वियोगमेँ व्याकुल हो गये ।
सतीने पर्वतराज हिमाचलके यहाँ ही जन्म लिया, और कोई देवता नहीं थे क्या ? परंतु उनक्री पुत्री होनेसे सतीको गिरिजा, पार्वती नाम पिला और तभी इन नामोंमेँ ‘र’ कार आया । इतनेपर भो भगवान
शंकर मुझे स्वीकार करेगे या नहीं, क्या पता ? इसलिये तपस्या करने लगी ।

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