सुवरण को दूँढ़त फिरत कवि व्यभिचारी चोर ।
~~श्री हरि~~
सुवरण को दूँढ़त फिरत कवि व्यभिचारी चोर ।
चरण धरत धड़कत हियो नेक न भावत शोर । ।
कवि, व्यभिचारी और चोर…-ये तीनों ही ‘सुवर्ण’ ढूँढते है, कबि तो सुवर्ण…अच्छे-अच्छे अक्षरोंको ढूँढते हैँ । व्यभिचारी सुन्दर स्वरूपको ढूँढता है और चोर सोना ढूँढता है । ‘चरण धरत धड़कत हियो’ -कवि भी किसी श्लोकका चरण रखता है तो उसका हदय धड़कता है । मानो उसके यह भाव आता है कि श्लोक बढिया लिखा गया या नहीं । श्लोक्वे चार चरण होते हैं । व्यभिचारी और चोरका भी चरण रखते हृदय धडकता है कि कोईं देख न ले । “नेक न भावत शोर’ –न कविको हल्ला-गुल्ला सुहाता है, न व्यभिचारीको और न चोरको । “इस तरह तीनों ‘सुवर्ण’ को ढूँढते फिरते हैं ।
‘कामिहि नारि पिआरि जिमि‘ …इस उदाहरणसे श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप लिया गया और ‘लोभिहि प्रिय जिमि दाम‘ लोभीकी तरह मेरेको भगवान्का नाम प्यारा लगे । लोभीको सुन्दर रूप नहीं, प्रत्युत संरव्या प्यारी लगती है । उसको एक रुपयेका नोट बढिया गड्डीमेँसे निकाल कर दे दो और पॉच या दसका फटा हुआ नोट दिखाओ और उससे पूछो की दोनोंमेँसे कौन-सा लोगे ? लोभी एक रुपयेका सुन्दर नोट नहीं लेगा, पुराना, मैला, फटा दस रुपयेका ही लेगा । एक रुपया सुन्दर है तो वह क्या करे ? वह तो गिनती देखता है कि यह पां’चका है, यह दसका है । ऐसे ही गोस्वामीजी कहते हैं, सुन्दर रूप रामजीका प्यारा लगे और नामकी गिनती बढाते ही चले जायें । ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई’ -नाम लोभीकी तरह लिया जाय ।
यहाँ ये दो दृष्टान्त बत्तानेका तात्पर्य है कि इन दोपर ही लोग आकृष्ट होते हैँ-माधोजीसे मिलना कैसे होय । सबल बैरी बसे घट भीतर कनक कामिनी दोय । । एक तो खी और एक रुपयोंकी
गिनती इन दोकी जगह क्या करे ? इनमें संसारकी सुन्दरताकी जगह तो श्रीरघुनाथजी महाराजका रूप बैठा दे और रुपयोंकी गिनतीकी जगह भगवान्के नामको बैठा दें । इस तरह दोनोंकी खाना-पूर्ति हो गयी न ! सुन्दरता मगवान्के रूपकी और गिनती उनके नामकी । इतना कहनेपर भी सन्तोष नहीं हुआ । फिर कहा-“तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम‘ -निरन्तर नहीं होगा तो गलती रह जायगी । सांसारिक रुपये हैं तो प्यारे और अच्छे भी लगते हैं परंतु जब इंक्वायरी आ जाती है, दो नम्बरके रुपये भीतर रखे हैं, इधर सिपाही आ जाते हैँ, तो मनसे यह इच्छा होती है कि अभी रुपये नहीं होते तो अच्छे थे । रुपयोंका लोभ होनेपर भी वह रुपयोंको नहीं चाहता । उसी तरह भोगोंको भी निरन्तर नहीं चाहता है । गोस्वामीजीने दृष्टान्त देनेमें ध्यान रखा कि साथमें ‘नहीं’ न आ जाय कहीं। कामी और लोभीको रूपं और दाम प्यारे तो लगते हैं, पर प्रियतामें कभी-कभी अन्तर भी पड़ जाता है । हमारे श्रीरघुनाथजीके रूप और नामकी प्रियतामें कहीँ अन्तर नहीं पड़ जाय ।
‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’ –-भगवान्के नामका जप होता रहे और मनमे भगवान्के श्रीविग्रहका ध्यान होता रहे, मन खिंच जाय उधर ‘राम‘ नाममे ही बस, उसके बाद आप-से-आप ‘राम-राम’ होता है । ‘रोम-रोम उचरंदा हैं’ फिर करना नहीं पड़ता । ‘राम’ नाम लेना नहीं पडता । इतना खिच जाता है कि छुडाये नहीं छूटता ।
बंगालपे चैतन्य महाप्रभु भगवान्के नामके बड़े प्रेमी हुए हैँ । उनके यहाँ कोई एक भक्त था । वह ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण —-५ ‘निरन्तर जप करता रहता था । किसीने चैतन्य महाप्रभुसे जाकर कह दिया…’महाराज़ ! यह तो टट्टी फिरता दुआ भी नाम जपता रहता है ।जब उससे पूछा गया तो उसने कहा ‘ऐसा होता तो है ।‘ चैतन्य महाप्रभुने बुलाकर उससे कहा…’उस समय ख्याल रखा कर, बोला मत कर ।’ अब वह क्या करता ? टट्टी फिरता तो जीभको पकड़ लेता फिर उसकी लोगोंने शिकायत की…’महाराज ! यह टट्टी जाते समय जीभको पकड़े रखता है ।’ महाप्रभुने कहा…’तू यह क्या करता है ?’ तो उसने कहा-‘महाराज ! मैं क्या करूँ, जीभ मानती ही नहीं, पर आपने कह दिया इसलिये आपकी आज्ञा-पालन करनेके लिये जीभको पकड़ लेता हूँ ।’ तब उन्होंने कहा कि ‘तेरे लिये किसी अवस्थामे नाम जपनेमें कोईं दोष नहीं है, पर जीभ मत पकडा़ कर ।’ इस प्रकार जिसको भगबन्नाममेँ रस आता है, वही जानता है कि नाममे कितनी विलक्षणता है, क्या अलौकिकता है ! लोगोंकी शिकायत होती है कि मन लगता नहीं, जप होता नहीँ । पर जो हरदम ही नाम जपते हैं रातमेँ, दिनमेँ, उनके हरदम ही नाम-जप होता रहता है । ऐसे ही अर्जुनकी बात आती है । अर्जुनके सोते समय ‘कृष्ण कृष्ण‘ नाम उच्चारण होता रहता था । इसी कारण एक बार अर्जुन जब सो रहे थे तो वहाँ नारदजी, शंकरजी, ब्रह्माजी सब आ गये । बड़े-बड़े सन्त इकट्ठे हो गये । भगवान् भी आ गये । अर्जुनके रोम-रोमसे नामों उच्चारण हो रहा था । “सहजॉ नाम सिवरंदा है’ –मुखसे ही नहीं, रोम रोमसे भगवान्नाम उच्चारण होता है । गोरखपुरके पास ही बरहज गाँवमेँ एक परमहंसजी महाराज रहा करते थे । उनके शिष्यका नाम श्रीराघवदासजी था । वे उत्तरप्रदेश के गांधी कहे जाते थे । उन परमहंसजी महाराजके शरीरको छुआ जाता तो ‘ॐ’ का उच्चारण होता । एक बार पहलवान राममूर्तिजी उनसे मिलनेके लिये गये । परमहंस बाबाके पैरकी अँगुली व ऊँगूठेसे जप हो रहा था । उन्होंने पहलवान से कहा…-अँगूठेको हिलनेसे रोको । परंतु वे अँगूठेको रोक नहीं सके । तो कहा कि ‘तुम्हारेमेँ जितना बल है । उससे ज्यादा बल तो बाबा के एक अंगूठे में है नाम महाराज का कितना विलक्षण प्रभाव है वह प्रभाव आदर प्रेम पूर्वक जपने वालों के सामने प्रकट होता है बाकी दूसरे क्या जाने।