प्रत्येक परिस्थिति मे  प्रसन्नता का राजमार्ग।

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प्रत्येक परिस्थिति मे  प्रसन्नता का राजमार्ग।


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जब मन चंगा तो कठौती में गंगा।

हर व्यक्ति सुख शांति और प्रसन्नता से जीना चाहता है लेकिन उसके जीवन में उतनी दुख, अशांति और उद्विग्नता दिखती है। सुबह से शाम तक हमारा मन सुख और दुख के बीच ढोलता रहता है। कभी प्रसन्नता होती है तो कभी खिन्नता होती है, कभी सुख होता है तो कभी दुख होता है। कभी आनंद होता है तो कभी अवसाद, तो कभी उत्साह रहता है तो कभी उदासी।

आखिर क्या कारण है कि हमारा जीवन सुख और दुख के हिण्डोले में झूलने के लिए अभिशप्त है क्या ऐसा भी कोई मार्ग है जो हमें स्थिरता और प्रसन्नता का जीवन दे सके?

संत कहते हैं कि मार्ग है। जो व्यक्ति अपने जीवन की वास्तविकता को समझता है, जीवन को समता से पहचानता है और जीवन जीने की कला को जान लेता है

उसे वह मार्ग प्राप्त हो जाता है जिसे जीवन जीने की कला का ज्ञान हो, वो व्यक्ति अपने जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव के मध्य भी स्थिरता और प्रसन्नता से जीने का आदी और अभ्यासी बन सकता है।

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हम कभी सुखी होते हैं कभी दुखी होते हैं। आदमी चाहता है कि वह सदैव आनंदित रहे लेकिन कभी सुख तो कभी दुख दिखते हैं। हम थोड़ा देखें कि ये मुख और दुख है क्या? सुख और दुख कुछ नहीं ये सब हमारी इन्द्रिय चेतना की अभिव्यक्ति हैं। ख का अर्थ होता है इन्द्रियां जो हमारी इन्द्रियों ने अनुकूल है वह सुख और जो प्रतिकूल है यह दुख है।

हमारी इन्द्रियों को क्या अनुकूल हो जाये और कम क्या प्रतिकूल हो जाये कहा नहीं जा सकता क्योंकि हमारी इन्द्रिय चेतना हमारी। मानसिकता से नियंत्रित होती है। ठीक रहने पर प्रतिकूलताओं में भी व्यक्ति को अनुकूलता का अहसास होता है और मानसिकता के बिगड़ जाने पर अनुकूलता में भी व्यक्ति तकलीफ भोगता है। जिसे व्यक्ति अपने जीवन का सुख अथवा दुख कहता है, सच्चे अर्थों में देखा जाये ये सब उसकी मानसिक परिणत्तियां हैं।

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एक व्यक्ति भोजन करने के लिये बैठा है और उसे रूखी-सूखी रोटी भी मिली है पर मन अनुकूल है तो रूखी-सूखी रोटी में भी रसगुल्ले से ज्यादा मधुर स्वाद का अहसास होता है। दूसरी ओर थाली में तरह-तरह के व्यंजन परोसे गये हैं पर मूड खराब है तो रसगुल्ले का भी रस गोल हो जाता है। चीजों से सुख नहीं मिलता, सुख की अनुभूति मनुष्य की मानसिकता से होती है हमारी मानसिकता कैसी है, हमारे जीवन का सारा सुख उस पर निर्भर करता है।

मानसिकता अनुकूल रहने पर व्यक्ति तमाम प्रतिकृतताओं में भी प्रसन्नता से जी सकता है और मानसिकता की अनुकूलता के अभाव में व्यक्ति सब प्रकार की अनुकूलता में भी तकलीफ पाता है। एक गरीब मजदूर फुटपाथ पर अखबार बिछाकर पूरी रात चैन से गुजार लेता है और दूसरा व्यक्ति एयर कण्डीशन में भी करवटें बदल-बदलकर रात गुजारने को मजबूर होता है।

बात स्पष्ट है कि बाहर की परिस्थितियों से ज्यादा महत्वपूर्ण हमारी मानसिकता है, मानसिकता के अनुकूल होने पर सब कुछ अनुकूल हो जाता है और मानसिकता के प्रतिकूल होने पर सब कुछ प्रतिकूल होता है। सुख और बाहर की है, दुख और दुविधा भी बाहर की चीज है। उसकी अनुभूति हमारी मानसिकता से सम्बद्ध है।

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