बिना विचारे काम मत करो।,दयाका फल ,ईश्वर सब कहीं है,मित्रकी सलाह ,स्वर्गके दर्शन की आध्यात्मिक कहानी।
बिना विचारे काम मत करो।,दयाका फल ,ईश्वर सब कहीं है,मित्रकी सलाह ,स्वर्गके दर्शन की आध्यात्मिक कहानी।
बिना विचारे काम मत करो।
एक किसानने एक नेवला पाल रखा था । नेवला बहुत चतुर और स्वामिभक्त था । एक दिन किसान कहीं गया था । किसानकी स्त्रीने अपने छोटे बच्चेको दूध पिलाकर सुला दिया और नेवलेको वहीं छोड़कर वह घड़ा और रस्सी लेकर कुएँपर पानी भरने चली गयी । किसानकी स्त्रीके चले जानेपर वहाँ एक काला साँप बिलमेंसे निकल आया ।
बच्चा पृथ्वीपर कपड़ा बिछाकर सुलाया गया था और साँप बच्चेकी ओर ही आ रहा था । नेवलेने यह देखा तो साँपके ऊपर टूट पड़ा । उसने साँपको काटकर टुकड़े – टुकड़े कर डाला और घरके दरवाजेपर किसानकी स्त्रीका रास्ता देखने गया ।
किसानकी स्त्री घड़ा भरकर लौटी । उसने घरके बाहर दरवाजेपर नेवलेको देखा । नेवलेके मुखमें रक्त लगा देखकर उसने समझा कि इसने मेरे बच्चेको काटा है । दुःख और क्रोधके मारे भरा घड़ा उसने नेवलेपर पटक दिया । बेचारा नेवला कुचलकर मर गया । वह स्त्री दौड़कर घरमें आयी । उसने देखा कि उसका बच्चा सुखसे सो रहा है और वहाँ एक काला साँप कटा पड़ा है । स्त्रीको अपनी भूलका पता लग गया ।
है ।
वह दौड़कर फिर नेवलेके पास आयी और मरे नेवलेको गोदमें उठाकर रोने लगी । लेकिन अब उसके रोनेसे क्या लाभ ? इसीलिये कहा
बिना बिचारे जो करै , सो पाछे पछताय ।
काम बिगारे आपनो , जगमें होत हँसाय ॥ उक ०
दयाका फल
बादशाह सुबुक्तगीन पहले बहुत गरीब था । वह एक साधारण सैनिक था । एक दिन वह बंदूक लेकर , घोड़ेपर बैठकर जंगलमें शिकार खेलने गया था । उस दिन उसे बहुत दौड़ना और हैरान होना पड़ा । बहुत दूर जानेपर उसे एक हिरनी अपने छोटे बच्चेके साथ दिखायी पड़ी ।
सुबुक्तगीनने उसके पीछे घोड़ा दौड़ा दिया । हिरनी डरके मारे भागकर एक झाड़ीमें छिप गयी ; लेकिन उसका छोटा बच्चा पीछे छूट गया । सुबुक्तगीनने हिरनीके बच्चेको पकड़ लिया और उसके पैर बाँधकर घोड़ेपर उसे लाद लिया ।
बहुत ढूँढ़नेपर भी जब उसे हिरनी नहीं मिली तो उस बच्चेको लेकर ही वह लौट पड़ा । हिरनीने देखा कि उसके बच्चेको शिकारी बाँधकर लिये जा रहा है । वह अपने बच्चेके मोहसे झाड़ीसे निकल आयी और सुबुक्तगीनके घोड़ेके पीछे – पीछे दौड़ने लगी ।
दूर जाकर सुबुक्तगीनने पीछे देखा । अपने पीछे हिरनीको दौड़ते देख उसे आश्चर्य हुआ और दया आ गयी । उसने उसके बच्चेके पैर खोलकर घोड़ेसे उतार दिया । हिरनी प्रसन्न होकर अपने बच्चेको लेकर भाग गयी ।
उस दिन घर लौटकर जब रातमें सुबुक्तगीन सोया तो उसने एक स्वप्न देखा । उससे कोई देवदूत कह रहा था – -‘सुबुक्तगीन ! तूने आज एक गरीब हिरनीपर जो दया की है , उससे प्रसन्न होकर परमात्माने तेरा नाम बादशाहोंकी सूचीमें लिख लिया है ।
तू एक दिन बादशाह बनेगा । ‘ सुबुक्तगीनका स्वप्न सच्चा था । वह आगे चलकर बादशाह हुआ । एक हिरनीपर दया करनेका उसे यह फल मिला । जो जीवोंपर दया करता है , उसपर भगवान् अवश्य प्रसन्न होते हैं ।
– ईश्वर सब कहीं है
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दातादीन अपने लड़के गोपालको नित्य शामको सोनेसे पहिले कहानियाँ सुनाया करता था । एक दिन उसने गोपालसे कहा – ‘ बेटा ! एक बात कभी मत भूलना कि भगवान् सब कहीं हैं । ‘ – गोपालने इधर – उधर देखकर पूछा- ‘ पिताजी ! भगवान् सब कहीं हैं ? वह मुझे तो कहीं दीखते नहीं । ‘ – दातादीनने कहा – ‘ हम भगवान्को देख नहीं सकते ; किंतु वे हैं सब कहीं और हमारे सब कामोंको देखते रहते हैं ।
‘ गोपालने पिताकी बात याद कर ली । कुछ दिन बाद अकाल पड़ा । दातादीनके खेतों में कुछ हुआ नहीं । एक दिन गोपालको लेकर रातके अँधेरेमें वह गाँवसे बाहर गया । वह दूसरे किसानके खेतमेंसे चोरीसे एक गट्ठा अन्न काटकर घर लाना चाहता था ।
गोपालको मेड़पर खड़ा करके उसने कहा – ‘ तुम चारों ओर देखते रहो , कोई इधर आवे या देखे तो मुझे बता देना । ‘ – जैसे ही दातादीन खेतमें अन्न काटने बैठा गोपालने कहा – ‘ पिताजी ! रुकिये । ‘ – दातादीनने पूछा – ‘ क्यों , कोई देखता है क्या ? ” गोपाल – ‘ हाँ , देखता है । ‘ ईश्वर सब कहीं है ।
दातादीन खेतसे निकलकर मेड़पर आया । उसने चारों ओर देखा । जब कोई कहीं न दीखा तो उसने पुत्रसे पूछा- ‘ कहाँ ? कौन देखता है ? ” गोपाल – ‘ आपने ही तो कहा था कि ईश्वर सब कहीं है और सबके सब काम देखता है । तब वह आपको खेत काटते क्या नहीं देखेगा ? ‘ दातादीन पुत्रकी बात सुनकर लज्जित हो गया । चोरीका विचार छोड़कर वह घर लौट आया ।
मित्रकी सलाह
दुर्गादास था तो धनी किसान ; किंतु बहुत आलसी था । वह न अपने खेत देखने जाता था , न खलिहान । अपनी गाय -भैंसोंकी भी वह खोज – खबर नहीं रखता और न अपने घरके सामानोंकी ही देख – भाल करता था । सब काम वह नौकरोंपर छोड़ देता था ।
उसके आलस और कुप्रबन्धसे उसके घरकी व्यवस्था बिगड़ गयी । उसको खेतीमें हानि होने लगी । गायोंके दूध – घीसे भी उसे कोई अच्छा लाभ नहीं होता था । एक दिन दुर्गादासका मित्र हरिश्चन्द्र उसके घर आया ।
हरिश्चन्द्रने दुर्गादासके घरका हाल देखा । उसने यह समझ लिया कि समझानेसे आलसी दुर्गादास अपना स्वभाव नहीं छोड़ेगा । इसलिये उसने अपने मित्र दुर्गादासकी भलाई करनेके लिये उससे कहा – ‘ मित्र ! तुम्हारी विपत्ति देखकर मुझे बड़ा दुःख हो रहा है ।
तुम्हारी दरिद्रताको दूर एक सरल उपाय मैं जानता हूँ । ‘ – – दुर्गादास – ‘ कृपा करके वह उपाय तुम मुझे बता दो । मैं उसे अवश्य करूँगा । ‘ हरिश्चन्द्र – ‘ सब पक्षियोंके जागनेसे पहिले ही मानसरोवरपर रहनेवाला एक सफेद हंस पृथ्वीपर आता है । वह दो पहर दिन चढ़े लौट जाता है । यह तो पता नहीं कि वह कब कहाँ आवेगा ; किन्तु जो उसका दर्शन कर लेता है ,
उसको कभी किसी बातकी कमी नहीं होती । ‘ दुर्गादास – ‘ कुछ भी हो , मैं उस हंसका दर्शन अवश्य करूँगा । ‘ हरिश्चन्द्र चला गया । दुर्गादास दूसरे दिन बड़े सबेरे उठा । वह घरसे बाहर निकला और हंसकी खोजमें खलिहानमें गया ।
वहाँ उसने देखा कि एक आदमी उसके ढेरसे गेहूँ अपने ढेरमें डालनेके लिये उठा रहा है । दुर्गादासको देखकर वह लज्जित हो गया और क्षमा माँगने लगा । . खलिहानसे वह घर लौट आया और गोशालामें गया ।
वहाँका रखवाला गायका दूध दुहकर अपनी स्त्रीके लोटेमें डाल रहा था । दुर्गादासने उसे डाँटा । घरपर जलपान करके हंसकी खोजमें वह फिर निकला और खेतपर गया । उसने देखा कि खेतपर अबतक मजदूर आये ही नहीं थे । वह वहाँ रुक गया ।
जब मजदूर आये तो उन्हें देरसे आनेका उसने उलाहना दिया । जहाँ इस प्रकार वहीं उसकी कोई – न – कोई हानि रुक गयी । सफेद हंसकी खोजमें दुर्गादास प्रतिदिन सबेरे उठने और घूमने लगा । अब उसके नौकर ठीक काम करने लगे ।
उसके यहाँ चोरी होना बंद हो गया । पहिले वह रोगी रहता था , अब उसका स्वास्थ्य भी ठीक हो गया । जिस खेतसे उसे दस मन अन्न मिलता था , उससे अब पचीस मन मिलने लगा । गोशालासे दूध बहुत अधिक आने लगा ।
एक दिन फिर दुर्गादासका मित्र हरिश्चन्द्र उसके घर आया । दुर्गादासने कहा- ‘ मित्र ! सफेद हंस तो मुझे अबतक नहीं दीखा ; किंतु उसकी खोजमें लगनेसे मुझे लाभ बहुत हुआ – हरिश्चन्द्र हँस पड़ा और बोला – ‘ परिश्रम करना ही वह सफेद हंस है ।
परिश्रमके पंख सदा उजले होते हैं । जो परिश्रम न करके अपना काम नौकरोंपर छोड़ देता है , वह हानि उठाता है और जो स्वयं परिश्रम करता है तथा जो स्वयं नौकरोंकी देखभाल करता है , वह सम्पत्ति और सम्मान पाता है । ‘
स्वर्गके दर्शन
लक्ष्मीनारायण बहुत भोला लड़का था । वह प्रतिदिन रातमें सोनेसे पहले अपनी दादीसे कहानी सुनानेको कहता था । दादी उसे नागलोक , पाताल , गन्धर्वलोक , चन्द्रलोक , सूर्यलोक आदिकी कहानियाँ सुनाया करती थी ।
एक दिन दादीने उसे स्वर्गका वर्णन सुनाया । स्वर्गका वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मीनारायण स्वर्ग देखनेके लिये हठ करने लगा । दादीने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता ; किंतु लक्ष्मीनारायण रोने लगा । रोते – रोते ही वह सो गया । उसे स्वप्नमें दिखायी पड़ा कि एक चम चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं— ‘ बच्चे ! स्वर्ग देखनेके लिये मूल्य देना पड़ता है ।
तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न ? स्वर्ग देखनेके लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे । ‘ स्वप्नमें ही लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादीसे रुपये माँगूँगा । लेकिन देवताने कहा- ‘ स्वर्गमें तुम्हारे रुपये नहीं चलते ।
यहाँ तो भलाई और पुण्यकर्मोका रुपया चलता है । अच्छा , तुम यह डिबिया अपने पास रखो । जब तुम कोई अच्छा काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमेंसे उड़ जायगा । जब यह डिबिया भर जायगी , तब तुम स्वर्ग देख सकोगे ।
जब लक्ष्मीनारायणकी नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी । डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ । उस दिन उसकी दादीने उसे एक पैसा दिया । पैसा लेकर वह घरसे निकला ।
एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा । लक्ष्मीनारायण भिखारीको बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था , इतनेमें उसने अपने अध्यापकको सामनेसे आते देखा । उसके अध्यापक उदार लड़कोंकी बहुत प्रशंसा किया करते थे । उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायणने भिखारीको पैसा दे दिया । अध्यापकने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की ।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायणने वह डिबिया खोली ; किंतु वह खाली पड़ी थी । इस बातसे लक्ष्मीनारायणको बहुत दुःख हुआ । वह रोते – रोते सो गया । सपनेमें उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- ‘ तुमने अध्यापकसे प्रशंसा पानेके लिये पैसा दिया था , सो प्रशंसा मिल गयी । अब रोते क्यों हो ?
किसी लाभकी आशासे जो अच्छा काम किया जाता है , वह तो व्यापार है , वह पुण्य थोड़े ही है । ‘ दूसरे दिन लक्ष्मीनारायणको उसकी दादीने दो आने पैसे दिये । पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे ।
उसका साथी मोतीलाल बीमार था । बाजारसे लौटते समय वह अपने मित्रको देखने उसके घर चला गया । मोतीलालको देखने उसके घर वैद्य आये थे । वैद्यजीने दवा देकर मोतीलालकी मातासे कहा- ‘ इसे आज संतरेका रस देना । ‘
मोतीलालकी माता बहुत गरीब थी । वह रोने लगी और बोली – ‘ मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ । इस समय बेटेकी बीमारीमें कई दिनसे काम करने नहीं जा सकी । मेरे पास संतरे खरीदनेके लिये एक भी पैसा नहीं है । ‘
लक्ष्मीनारायणने अपने दोनों संतरे मोतीलालकी माँको दिये । वह लक्ष्मीनारायणको आशीर्वाद देने लगी । घर आकर जब लक्ष्मीनारायणने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे ।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेलमें लगा था । उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनोंको उठाने लगी । लक्ष्मीनारायणने उसे रोका । जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया । बेचारी लड़की रोने लगी । इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहलेके इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं ।
अब उसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ । उसने आगे कोई बुरा काम न करनेका पक्का निश्चय कर लिया । मनुष्य जैसे काम करता है , वैसा उसका स्वभाव हो जाता है । जो बुरे काम करता है , उसका स्वभाव बुरा हो जाता है । उसे फिर बुरा काम करनेमें ही आनन्द आता है । जो अच्छा काम करता है , उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है । उसे बुरा काम करनेकी बात भी बहुत बुरी लगती है ।
लक्ष्मीनारायण पहले रुपयेके लोभसे अच्छा काम करता था । धीरे – धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करनेका हो गया । अच्छा काम करते – करते उसकी डिबिया रुपयोंसे भर गयी ।
स्वर्ग देखनेकी आशासे प्रसन्न होता , उस डिबियाको लेकर वह अपने बगीचेमें पहुँचा । लक्ष्मीनारायणने देखा कि बगीचेमें पेड़के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है । वह दौड़ता हुआ साधुके पास गया और बोला – ‘ बाबा ! आप क्यों रो रहे हैं ? ‘ साधु बोला- ‘ बेटा ! जैसी डिबिया तुम्हारे हाथमें है , वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी ।
बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयोंसे भरा था । बड़ी आशा थी कि उसके रुपयोंसे स्वर्ग देखूँगा ; किंतु आज गङ्गाजीमें स्नान करते समय वह डिबिया पानीमें गिर गयी । ‘
लक्ष्मीनारायणने कहा- ‘ बाबा ! आप रोओ मत । मेरी डिबिया भी भरी हुई है । आप इसे ले लो । ‘ साधु बोला- ‘ तुमने इसे बड़े परिश्रमसे भरा है , तुम्हें इसे देनेसे दुःख होगा । ‘ – लक्ष्मीनारायणने कहा- ‘ मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ । मुझे अभी पता नहीं कितने दिन जीना है ।
मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हूँ । आप बूढ़े हो गये हैं । आप अब दूसरी डिबिया पता नहीं भर पावेंगे या नहीं । इसलिये आप मेरी डिबिया ले लीजिये । ‘ साधुने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायणके नेत्रोंपर हाथ फेर दिया । लक्ष्मीनारायणके नेत्र बंद हो गये । उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा – – ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादीने जो स्वर्गका वर्णन किया था , वह वर्णन तो स्वर्गके एक को कोनेका भी ठीक वर्णन नहीं था ।
जब लक्ष्मीनारायणने नेत्र खोले तो साधुके बदले स्वप्नमें दिखायी पड़नेवाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था । देवताने कहा – ‘ बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं , स्वर्ग उनका घर बन जाता है । तुम इसी प्रकार जीवनमें भलाई करते रहोगे तो अन्तमें स्वर्ग में पहुँच जाओगे । ‘ – देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये । – ° —
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