भगवान श्री राम जी की गुरु भक्ति ?

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जो साधक सच्चे श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु को पूर्ण परमात्म स्वरुप जानकर हृदय के पवित्र भाव से उनकी सेवा भक्ति करते हैं वे साधक आत्मज्ञान की प्राप्ति कर पाते हैं । सद्गुरु की जो सेवा करते हैं वे संपूर्ण विश्व की सेवा करते हैं । विनम्रता और प्रेम से , अहंकार और उकताए बिना की गई गुरुदेव की सेवा से साधक के हृदय मंदिर में आत्मज्ञान का प्रकाश जगमगा उठता है । यहाँ हमने ऐसे ही कुछ गुरु भक्त शिष्यों की पावन कथाएँ आपके लिए उपलब्ध कराई हैं । आइए इनका रसपान करें ।
भगवान श्रीराम 
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम अपने शिक्षागुरु विश्वामित्र के पास बहुत संयम , विनय और विवेक से रहते थे । गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे । उनकी सेवा के विषय में भक्त कवि तुलसीदास ने लिखा है-
 मुनिवर सयन कीन्हीं तब जाई । लागे चरन चापन दोऊ भाई ।। 
 जिनके चरन सरोरुह लागी । करत विविध जप जोग विरागी ।। 
 बार बार मुनि आज्ञा दीव्हीं । रघुवर जाय सयन तब कीन्हीं ।।
  गुरु ते पहले जगपति जागे राम सुजान । सीता – स्वयंवर में जब सब राजा धनुष उठाने का एक – एक करके प्रयत्न कर रहे थे तब श्रीराम संयम से बैठे ही रहे । जब गुरु विश्वामित्र की आज्ञा हुई तभी वे खड़े हुए और उन्हें प्रणाम करके धनुष उठाया । सुनि गुरु बचन चरन सिर नावा । हर्ष विषादु न कछु उर आवा । गुरुहिं प्रनाम मन हि मन किव्हा । अति लाघव उठाइ धनु लिन्हा ।। श्री सद्गुरुदेव के आदर और सत्कार में श्रीराम कितने विवेकी और सचेत थे , इसका उदाहरण जब उनको राज्योचित शिक्षण देने के लिए उनके गुरु वशिष्ठजी महाराज महल में आते हैं तब देखने को मिलता है । सद्गुरु के आगमन का समाचार मिलते ही सीताजी सहित श्रीराम दरवाजे पर आकर सम्मान करते हैं
गुरु आगमनु सुनत रघुनाथा । द्वार जाय पद नावउ माथा ।। ।। गुरुभक्ति । 
सादर अरघ देइ घर आने । सोरह भांति पूजि सनमाने ।। 
 
गहे चरन सिय सहित बहोरी । बोले राम कमल कर जोरी ।। 
इसके उपरांत भक्तिभावपूर्वक कहते हैं- ‘ नाथ ! आप भले पधारे । आपके आगमन से घर पवित्र हुआ । परन्तु होना तो यह चाहिए था कि आप समाचार भेज देते तो यह दास स्वयं सेवा में उपस्थित हो जाता । ‘ इस प्रकार ऐसी विनम्र भक्ति से श्रीराम अपने गुरुदेव को संतुष्ट रखते हैं ।

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