मन पर अधिकार करने की विधि।
मन पर अधिकार करने की विधि
मन के विषय में प्राय : व्यक्ति ऐसा कहते हैं कि ” मेरा मन तो रुकता ही नहीं है , मन में खूब विचार आते हैं और जितना मैं इन्हें रोकने का प्रयल करता हूँ उतने ही अधिक विचार आते हैं ” इत्यादि । किन्तु ये सब मान्यतायें मिथ्या हैं ।
वास्तविकता यह है कि मन , जड़ प्रकृति से बनी हुई एक जड़ वस्तु है , यह चेतन नहीं है । इसलिये इस मन में अपने आप कोई विचार नहीं आता , और न ही यह स्वयं किसी विचार को उठाता है ।
इस जड़ मन को चलाने वाला चेतन जीवात्मा है । जब जीवात्मा अपनी इच्छा से किसी अच्छे या बुरे विचार को मन में उठाना चाहता है , तब ही उस विषय से सम्बन्धित विचार मन में उत्पन्न होता है ।
जैसे टेप ( Tape ) में अनेक प्रकार की ध्वनियों का संग्रह होता है । ऐसे ही मन में भी अनेक प्रकार के विचार संस्कारों के रूप में संग्रहीत रहते हैं ।
जब व्यक्ति अपनी इच्छा व प्रयत्न से टेप को चलाता है तो ध्वनियां सुनाई देने लगती हैं , अपने आप ध्वनियां सुनाई नहीं देती । इसी प्रकार से जब जीवात्मा मन में संग्रहीत संस्कारों को अपनी इच्छा व प्रयत्न से उठाता है तभी मन में विचार उत्पन्न होते हैं ।
यह मन के कार्य करने की एक पद्धति हुई । इसके अतिरिक्त मन का कार्य एक कैमरा यंत्र के समान भी समझना चाहिए ।
जैसे फोटोग्राफर अपनी इच्छा से जिस वस्तु का चित्र उतारना चाहता है , उस वस्तु का चित्र शीशे ( Lens ) के माध्यम से कैमरे का बटन दबाकर रील में उतार लेता है । और जिस वस्तु का चित्र उतारना नहीं चाहता ,
उसका चित्र नहीं उतारता है । ठीक इसी प्रकार से जीवात्मा जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करना चाहता है उस वस्तु का ज्ञान मन में , शरीर तथा इन्द्रियों के माध्यम से संग्रहीत कर लेता है ।
इस दृष्टान्त में शरीर कैमरे के समान है , फोटोग्राफर चेतन जीवात्मा है , मन रील है , जिस पर चित्र उतरते हैं , तथा इन्द्रियां शीशा ( Lens ) के समान हैं ।
इसी प्रकार से जैसे स्कूटर , कार , पंखा , मशीन आदि जड़ यंत्र बिना चेतन मनुष्य के चलाये अपने आप नहीं चलते हैं न रुकते हैं , ठीक वैसे ही बिना जीवात्मा की इच्छा तथा प्रेरणा के जड़ मन किसी भी विषय की ओर न अपने आप जाता है , न उसका विचार करता है
अज्ञान के कारण ही , चेतन जीवात्मा स्वयं को मन का चालक न मानकर , मन को ही विषयों का उठाने वाला ( उनका विचार करने वाला ) मान लेता है ।
जब जीवात्मा को अपनी चेतनता और कर्तापन का तथा मन की जड़ता व साधनपन का ज्ञान हो जाता है , तब वह मन को अपने अधिकार में रखकर इसे अपनी इच्छा के अनुसार चलाता है । विद्वान् योगी व्यक्ति का ज्ञान ठीक होने के कारण वह अपने मन को अधिकारपूर्वक अपनी इच्छा अनुसार ,
ठीक वैसे ही चलाता है जैसे लौकिक व्यक्ति अपनी इच्छा अनुसार अधिकारपूर्वक स्कूटर को चलाता है ।
जैसे कोई नया स्कूटर चलाने वाला यह कहे कि ‘ मेरा स्कूटर तो बहुत तेज चलता है , मैं इसे रोकना चाहता हूँ , पर यह तो रुकता ही नहीं है , मैं बायें चलाना चाहता हूँ किन्तु यह दायें जाता है , मैं इसे सड़क पर चलाना चाहता हूँ , पर यह तो सड़क से नीचे चला जाता है ‘ ऐसी स्थिति में हम यही कहेंगे कि इस व्यक्ति को स्कूटर चलाना नहीं आता , और इसको अभ्यास भी नहीं है ।
यहाँ विचारने की बात यह है कि क्या स्कूटर अपने यह आप चलता या रुकता है ? अपने आप दायें या बायें जाता है ? नहीं , तो चलाने वाले की ही कमी है ।
ठीक ऐसे ही मन के विषय में भी समझना चाहिए की जड़ मन अपने किसी विषय की ओर नहीं जाता , जैसे स्कूटर अपने आप सड़क से नीचे नहीं जाता । योगाभ्यासी को चाहिये कि उपासना काल में आसन पर बैठते ही मन में यह निश्चय करे कि “
मेरा मन जड़ है , इसको चलाने वाला मैं चेतन जीवात्मा हूँ । मेरी इच्छा तथा प्रयत्न के बिना यह जड़ मन किसी भी विषय को नहीं उठाता । इस समय मैं इसे अपने अधिकार में रखकर ईश्वर के चिंतन में ही लगाऊंगा ” अन्य सांसारिक विषयों में नहीं लगाऊंगा ऐसा निश्चय करने से मन के नियंत्रण में सहायता मिलती है । परन्तु ऐसा संकल्प करने के पश्चात् भी ध्यान के समय योगाभ्यासी असावधानी व अज्ञान से मन को अन्य विषय की ओर लगा देवे तो तत्काल वहाँ से हटाकर , पुनः ईश्वर में लगा देना चाहिए ।
प्रारंभिक काल में योगाभ्यासी को अन्य विषयों में लगाये हुए मन को प्रयत्न पूर्वक हटाकर बार – बार ईश्वर में लगाना पड़ता है । कालान्तर में जब मन विषयक ज्ञान तथा अभ्यास अच्छा हो जाता है तो व्यक्ति का मन के ऊपर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है और वह जिस विषय से मन को हटाना चाहे , सरलता से हटा सकता है और जिस विषय पर लगाना चाहे लगा सकता ।
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