माला तो करमेँ फिरे जीभ फिरे मूख माहि ‘।
~~श्री हरि~~
माला तो करमेँ फिरे जीभ फिरे मूख माहि ‘।
मनवा तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नाहि ।।
‘ भजन होगा नहीं -यह कहाँ लिखा है ? यहाँ तो ‘सुमिरन नाहि‘ऐसा लिखा है । सुमिरन नहीं होगा, यह बात ठीक है; क्योंकि ‘मनवा तो चहुँ दिसि फिरे‘ “ मन संसारमेँ घूमता है तो सुमिरन कैसे होगा?
सुमिरन मनसे होता है; परंतु ‘यह तो जप नाहि’ अ-कहाँ लिखा है ? जप तो हो ही गया । जीभ-मात्रसे भी अगर हो गया तो नाम-जप तो हो ही गया ।
हमे एक सन्त मिले थे । वे कहते थे कि परमात्मा के साथ आप किसी तरहसे ही अपना सम्बन्थ जोड लो । ज्ञान-पूर्वक जोड लो, और मन-बुद्धिपूर्वक जोड़ लो तब तो कहना ही क्या है ? और नहीं तो जीभसे ही जोड़ लो । केबल ‘राम’ नामका उच्चारण करके भी सम्बन्ध जोड़ लो । फिर सब काम ठीक हो जायगा । ‘अनिच्छया हि संस्मृष्टो दहत्येव हि पावक: ‘ …आग बिना मनके छू जायेगे तो भी वह जलायेगी ही, ऐसे ही भगवान्का नाम किसी तरहसे ही लिया जाय…
भायँ कृभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।।
इसका अर्थ उलटा नहीं लेना चाहिये कि हम कुभावसे ही नाम ले और मन लगावे ही नहीं । बेगारखाते ऐसे ही नाम लें-ऐसा नहीं । मन लगानेका उद्योग करो, सावधानी रखो, मनको भगवान्में लगाओ, भगवान्का चिन्तन करो, पर न हो सके तो घबराना बिलकुल नहीं चाहिये । मेरे कहनेका मतलब यह है कि मन नहीं लग सका तो ऐसा मत मानो कि हमारा नाम-जप निरर्थक चला गया । अभी मन न लगे तो परवाह मत करौ; क्योंकि आपकी नीयत जब मन लगनेकी हैं तो मन लग जायगा । एक तो हम मनको लगाते ही नहीं और एक मन लगता नहीं…-इन दोनों अवस्थाओंमे बडा अन्तर है । ऐसे दीखनेमे तो दोनोंकी एक-सी अवस्था ही दीखती है । कारण कि दोनों अवस्थाओंमे ही मन तो नहीं लगा । दोनोंकी
यह अवस्था बराबर रही; प’रतु बराबर होनेपर भी बडा भारी अन्तर है । जो लगाता ही नहीं,
उसका तो उद्योग भी नहीं है, उसके मन लगनेका विचार ही नहीं है । दूसरा व्यक्ति मनको भगवान्मेँ लगाना चाहता है, पर लगता नहीं । भगवान् सबके हृदयक्री बात देखते हैँ…
करत सुरति सय बार हिए की ।। “
भगवान् हृदयक्री बात देखते हैं कि यह मन लगाना चाहता है पर मन नहीं लगा । तो महाराजा उसका बडा़ भारी पुण्य होगा । भगवान्पर उसका बडा़श असर पड़ेगा । वे सबकी नीयत देखते हैं । अपने तो मन लगानेका प्रयत्न करो, पर न लगे तो उसमें घबराओ मत और नाम लिये जाओ ।
राम ! राम ! राम ! राम !.