मानव व्यवहार का शाश्वत धर्म ।

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 मानव व्यवहार का शाश्वत धर्म ।


 

महाभारत के विषय में भारतीय भाषाओं में ही नहीं , विदेशी भाषाओं में भी अब तक बहुत कुछ लिखा गया है और अभी भी अविरत लिखा जा रहा है । पाठकों में भी महाभारत के विषय में अलग – अलग दृष्टिकोण से उसे सतत पढ़ते रहने का आकर्षण अक्षुण्ण रहा है । महाभारत कोई बाइबल या कुरान जैसा धर्मग्रंथ नहीं है , तथापि सदियों से लेखकों और पाठकों , दोनों पक्षों में इसमें सतत नवीनता बनी रही है । इसका क्या कारण हो सकता है ? : 

महाभारत धर्मग्रंथ नहीं , यह बात आंशिक सत्य है । सही कहें तो महाभारत तमाम धर्मों का योग है । यहाँ ‘ धर्म ‘ शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । धर्म माने कोई संप्रदाय नहीं । अंग्रेजी में जिसे Religion कहते हैं , उस अर्थ में ‘ धर्म ‘ शब्द का उपयोग महाभारत में नहीं हुआ है । महाभारत का धर्म मानव व्यवहार का शाश्वत धर्म है ।

महाभारत की बराबरी करने के लिए जिनके नाम प्रायः लिये जाते हैं , वे ग्रीक भाषा के ग्रंथ ‘ ईलियड ‘ और ‘ ओडिसी ‘ निश्चित राजकुलों की बात करते हैं । इसी प्रकार महाभारत के साथ ही जिसका नाम लिया जाता है , उस ग्रंथ ‘ रामायण ‘ में भी केंद्र स्थान पर एक व्यक्ति है । रामायण के रचयिता ‘ वाल्मीकि ‘ ब्रह्मा से राम की कथा लिखने का आदेश प्राप्त करते हैं और एक ऐसे पुरुष की कथा का आलेखन करना चाहते हैं , जो पुरुष धर्म का ज्ञाता हो , सत्यनिष्ठ हो , सफल , ज्ञानी , पवित्र , जितेंद्रिय , धनुर्विद्या में प्रवीण तथा सर्वगुण संपन्न हो ।

नारद ने वाल्मीकि को ऐसे पुरुष के रूप में राम का परिचय कराया और क्रौंचवध के बाद व्यथित हुए कवि को ब्रह्मा ने ही रामकथा लिखने का सुझाव दिया है । इस रामकथा में इसके सर्जक को कथानायक राम के जीवन के किन किन पहलुओं को समेट लेना है , इसकी भी ब्योरेवार सूची नारद ने कवि को दी है । इस प्रकार रामायण की रचना का आरंभ वाल्मीकि की करुणा और व्यथा के साथ हुआ है ।

 इसमें इस करुणाभाव के उपरांत भक्तिभाव भी प्रधान स्थान पर है । महाभारत के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता । वेदों में एक शब्द प्रयुक्त हुआ है- सावित्री मंत्र । वेदों का सावित्री मंत्र है गायत्री सावित्री मंत्र माने एक ऐसा मंत्र , जो समग्र ग्रंथ के नाभि – स्थान पर हो , जिस मंत्र को केंद्र में रखकर सर्जक द्वारा रची गई सृष्टि का रहस्य पाया जा सके । 

आधुनिक संदर्भ में हम इसे ‘ मास्टर की ‘ कह सकते हैं । कई सेफ डिपॉजिट लॉकर केवल एक ही ‘ मास्टर की ‘ से खुलते हैं , पर कोई – कोई सेफ डिपॉजिट लॉकर ऐसे होते हैं कि जिनमें एक अतिरिक्त चाबी की व्यवस्था की गई होती है । महाभारत में जिसे हम ‘ मास्टर की ‘ कह सकते हैं , ऐसे दो श्लोक उपलब्ध हैं ।

इन दोनों को हम महाभारत का सावित्री मंत्र कह सकते हैं अथवा एक ही सावित्री मंत्र के दो भाग कह सकते हैं । आदिपर्व के पहले अध्याय में महर्षि व्यास महाभारत की रचना के लिए अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए ब्रह्मा से निवेदन करते हैं ।

( रामायण की रचना में भी सर्जक वाल्मीकि ब्रह्मा से ही अनुज्ञा प्राप्त करते हैं और महाभारत के सर्जक महामनीषी व्यास भी अपने सर्जन के विषय में सर्वप्रथम ब्रह्मा से ही अनुज्ञा माँगते हैं । इन दोनों महाग्रंथों के आरंभ में ही ब्रह्मा का यह योगदान ध्यान देने योग्य है । ) व्यास कहते हैं कि मेरे इस महाकाव्य में वेदों , उपनिषदों , इतिहास , पुराण , भूत , वर्तमान और भविष्यकाल , जरा ( वृद्धत्व ) , मृत्यु , भय , रोग आदि के उपरांत ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र , इन चारों वर्णों का कर्तव्यविधान , तपस्या , ब्रह्मचर्य , पृथ्वी , चंद्रमा , सूर्य , ग्रह , नक्षत्र , तारे , सत्युग , त्रेतायुग , द्वापरयुग और कलियुग , इन सभी का समावेश किया गया है ।

इसके उपरांत न्याय , शिक्षा , चिकित्सा , दान , तीर्थों , देशों , नदियों , पर्वतों और समुद्रों का इसमें वर्णन किया गया है । इस ग्रंथ में युद्ध , शांति , विज्ञान , लोक व्यवहार , आयुर्वेद , स्थापत्य , उत्पत्ति और लय , इस संबंध में विचार किया गया हैं । महर्षि व्यास ने महाभारत की रचना के लिए अपने इन उद्देश्यों की सूची ब्रह्मा को दी है , उसमें कहीं भी किसी व्यक्ति विशेष या घटना विशेष की बात नहीं है । 

इसका अर्थ यह हुआ कि व्यास ने महाभारत में जो कथानक आख्यान , उपाख्यान कहे हैं , वे कथन उनके लिए साध्य नहीं बल्कि मात्र साधन ही हैं । कुरुवंशी कौरवों और पांडवों की बात महाभारत में केंद्रस्थान पर है , ऐसा अवश्य लगता है । श्रीकृष्ण या भीष्म महाभारत के कथानायक हों , ऐसा अवश्य लगता है ।

श्रीकृष्ण या भीष्प महाभारत के कथानायक हों , ऐसा मानने के लिए मन अवश्य ललचा जाता है , परंतु ग्रंथ के आरंभ में ही इसके रचयिता व्यास ने अपने उद्देश्य के विषय में जो स्पष्टता की है , उसे लक्ष्य में रखें तो तुरंत समझ में आ जाता है कि महाभारत किसी व्यक्ति की कथा नहीं है ।

सावित्री मंत्र का यह पूर्व – भाग देखने के बाद उसके उत्तर भाग की भी जाँच कर लेते हैं । इस उत्तर भाग को लक्ष्य में लिये बिना महाभारत का गंतव्य स्थान नहीं पाया जा सकता । सावित्री मंत्र का यह दूसरा भाग महाभारत के बिल्कुल अंत में स्वर्गारोहण पर्व के अंतिम अध्याय का 62 वाँ और 63 वाँ श्लोक है ।

इन श्लोकों में महर्षि व्यास अतिशय हताश होकर दोनों हाथ ऊँचा करके पुकार पुकारकर कहते हैं कि मेरी बात कोई सुनता नहीं । महर्षि वेदना व्यक्त करते हैं कि धर्म सनातन है , और सुख – दुःख तो क्षणिक हैं और ऐसा होते हुए भी लोग धर्म का परिसेवन क्यों करते नहीं ? महाभारत के लगभग एक लाख जितने श्लोकों में इस सावित्री मंत्र के पाँच श्लोकों के पास महाभारत को समझने की ‘ मास्टर की ‘ है ।

यह ‘ मास्टर की ‘ यदि एक बार समझ में आ जाए तो फिर आदि और अंत के बीच फैले महासागर समान इस ग्रंथ शिरोमणि के पास जाने का बार – बार मन हुए बिना रहेगा नहीं । सामान्य रूप से मानवसर्जित कोई भी कलाकृति अपने भोक्ता को सतत एक जैसा आनंद या संतोष नहीं दे सकती ।

विश्व साहित्य की कोई भी उत्तम कृति हो या फिर मानवरचित उत्तम कही जा सकें , ऐसे ताजमहल या फिर एफिल टॉवर हों , उत्तम शिल्प या चित्रकृतियाँ हों , ये सभी पहली बार हम संपर्क में आएँ , तभी आनंद देती हैं । यह आनंद उनके दूसरे या तीसरे संपर्क के समय घटता जाता है और इस तरह पुनः पुनः इसका नाविन्य उनके उपभोक्ता के लिए घटता रहता है । एक क्षण ऐसा भी आ जाता है कि वह रचना या कलाकृति उस भोक्ता के मन में नितांत सहज ( सामान्य ) कृति बन जाती है ।

मानव सर्जन की यह मर्यादा है । प्राकृतिक रचनाओं को यह मर्यादा स्पर्श नहीं करती । एक ही सूर्योदय या सूर्यास्त उसके भोक्ता को रोज – रोज नया – नया ही लगता है । समुद्र की लहरें , जो ज्वार – भाटे का निर्माण करती हैं , वे लहरें रोज – रोज एक ही होती हैं , फिर भी उनका दर्शन हर रोज नया ही लगता है । पूनम की चाँदनी का महत्त्व किसी दिन कम नहीं होता । मानव – रचित कृतियाँ हमें जो संतर्पक भाव देती हैं , वह सतह के ऊपर का आनंद है , इसलिए इस आनंद पर अर्थशास्त्र की घटती उपयोगिता का नियम लागू होता है । परंतु प्रकृति

सर्जित रचनाओं से जो अनुभूति मिलती है , वह सतह के ऊपर का मजा नहीं , बल्कि गहराई में बहता आनंद का प्रवाह होता है । महाभारत प्रकृति सृजित नहीं , मानवरचित है । तथापि ऊपर कहा वह मानव सृजित सर्जन नहीं बल्कि प्रकृतिरचित सर्जन का नियम लागू करना पड़ता है । यह एक अद्भुत और विस्मयकारी घटना है । महाभारत का सौंदर्य प्रकृतिरचित सौंदर्य है ; क्योंकि इसके रचयिता ने किसी विशेष व्यक्ति , घटना या भाव को लक्ष्य में न रखते हुए समग्र मानव – जीवन को उसकी अखिलता ( समग्रता ) के साथ इस ग्रंथ में समाविष्ट कर लिया है । जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति मूलभूत रूप से सदृश होते हुए भी विश्व के कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे जनमे नहीं ।

इस विभिन्नता का रहस्य किसी भी सर्जक या भावक के लिए एक चुनौती बनी रही है । महाभारत के विषय में जो लिखा जा चुका है और जो लिखा जा रहा है , उस सभी के मूल में यह चुनौती रही है । कोई भी सर्जक जब तक किसी चुनौती को स्वीकार नहीं करता , तब तक उसका सर्जन कर्म उथला ही रहता है । कोई भी भावक या भोक्ता इस चुनौती की दिशा में चेहरा नहीं घुमाता है तो उसका संवेदन कुंठित रहता है ।

इस प्रकार , सर्जक और भावक दोनों महाभारत के महासागर के पास बैठकर जो तृप्ति पाता है , वह तृप्ति अन्यत्र कहीं नहीं पाई जा सकती । मनुष्य का चित्त अपने उद्गमकाल से लेकर आज तक जो भी कर सकता है , जिन विषयों का स्पर्श कर सकता है , वे सभी महाभारतकार ने आलेखित किए हैं , और इसीलिए महाभारत में कहीं – न – कहीं प्रत्येक भावक को , स्वयं एकरूप हो गया है , ऐसा लगे बिना नहीं रहता ।

मनुष्य जिस स्थल पर अपने आपको अभिव्यक्त हुआ देखता है , उस स्थल के विषय में उसकी भावना सहज ही बदल जाती है । किंतु भावना के बिंदु तक पहुँचने के लिए संवेदनशील भावक होना पहली शर्त है । गीता महाभारत का एक अंश है और महाभारत की रचना वेदों तथा उपनिषदों के काल के लंबे समय बाद हुई है । हिंदू धर्म , जिसे वैदिक काल में वैदिक धर्म का नाम दिया गया है , यह परंपरा महाभारत काल के पहले की है और इसके बावजूद महाभरत के अंश- स्वरूप ‘ भगवद्गीता ‘ इस हिंदू धर्म का धर्मग्रंथ बन चुकी है ।

यह आश्चर्य उपजाए , ऐसी एक अबूझ पहेली है । जिस धर्म का मूल महाभारतकाल के पूर्व सैकड़ों और हजारों वर्ष तक फैला है , उस धर्म ने अपने प्रामाणिक धर्मग्रंथ के रूप में गीता को प्राप्त करने के पहले लंबी प्रतीक्षा की है रहस्य महाभारत के पास अपरंपार हैं । सौंदर्य इस प्रत्येक रहस्य के साथ जुड़े हुए हैं । रहस्यों को भेदना और सौंदर्यों को प्राप्त करना मानव चित्त की अविरत प्रक्रिया है । यह प्रक्रिया जब तक जारी है तब तक महाभारत मानवजाति के लिए एक अति मूल्यवान ग्रंथ बना रहेगा , इसमें कोई शंका नहीं ।


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