यह संवाहक वह समर्पिता , ऐसे सम्बन्ध बनें पति।

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यह संवाहक वह समर्पिता , ऐसे सम्बन्ध बनें पति – पत्नी में।


 

 

यह संवाहक वह समर्पिता , ऐसे सम्बन्ध बनें पति – पत्नी में ।

उरलता भी आसमान को छू लेती है । लता वृक्ष से लिपट कर ही आगे बढ़ सकती है टकराकर नहीं । ये हमारी संस्कृति है आज वो सब खत्म हो गया है । भावना , आत्मीयता ये गौण होती जा रही है । अधिकार और अहम सामने आने लगे हैं ।

इसलिये जितने अधिक डाइवोर्स के केस आज देखने को मिलते हैं उतने अतीत में नहीं थे । टकराव शुरू से ही प्रारंभ हो जाता है । हम किसी से कम नहीं । एक दूसरे के पूरक और एक – दूसरे से पूरक और एक – दूसरे के प्रेरक बनिये तभी पति – पत्नी का रिश्ता ठीक हो सकता है । शास्त्रों में पति के लिये पत्नी के प्रति कुछ खास कर्त्तव्य बतायें हैं और पत्नी को भी कुछ खास कर्त्तव्यों को करने की प्रेरणा दी है । कहा गया है कि पति को अपनी पत्नी का पांच प्रकार से सत्कार करना चाहिये ।

पहला पत्नी को सम्मान दें , दूसरा घर में उसका अपमान न होने दें , तीसरा घर की सारी व्यवस्थाओं की जवाबदारी उसके हाथों में सौंप दें , एक पत्नी व्रत का पालन करें और पांचवां बहुत मजेदार है जो महिलाओं को बहुत पसंद आता है , पांचवां है उनके वस्त्रों और आभूषणों में कमी न होने दे ।

अगर पति ऐसा करता है तो पत्नी भी उसका पांच प्रकार का सत्कार करती है । पत्नी को सम्मान मिलता है तो वो घर के बड़ेजनों का बहुमान करती है । पत्नी का यदि घर में अपमान नहीं हो तो नौकर चाकरों के प्रति भी उसका अच्छा व्यवहार रहता है , मूड ठीक रहता है । 

पत्नी के साथ में यदि सारी व्यवस्थायें सौंप दी जायें तो घर को ठीक ढंग से संचालित कर लेती है । पति यदि एक पत्नी व्रत का पालन करता है तो पत्नी भी पतिव्रत धर्म का पालन करती है और पत्नी के वस्त्राभूषणों में कमी नहीं आती है तो पत्नी के प्यार में भी कोई कमी नहीं होती ।

नीतिशास्त्र में ऐसा बताया है इनको ध्यान में रखकर के चलना चाहिये लेकिन बंधुओं इन सब बातों को गहराई से समझने की कोशिश करें अगर पत्नी से कोई गलती हो तो सार्वजनिक रूप से कभी उसको डाँट नहीं लगानी चाहिये पत्नी को प्यार दें ।

पत्नी सबकी फटाकार को सह सकती है यदि पति का उसको प्यार मिले तो , और यदि पति का भी प्यार न मिले तो वो किसके पास जायेगी ? थोड़ा सोचने की जरूरत है कि पत्नी एक पति को पाने के लिये कितना त्याग करके आयी है ?

पिता को छोड़ा , घर को छोड़ा , माता को छोड़ा , परिवार को छोड़ा , सब छोड़ा केवल पति का प्यार पाने के लिये और पति का भी प्यार पत्नी को नहीं मिले तो कहां जायेगी वह ? पति को चाहिये कि पत्नी को प्यार दे हां ये नहीं कि बीबी का गुलाम बन जाये , पर प्यार दे अंदर का प्यार होना चाहिये । अंतर में एक दूसरे की भावनाओं को समझने की दृष्टि होनी चाहिये और यदि कोई गलती हो तो सबके सामने उसे न डाँटें ।

अकेले में डाँटें तो बहुत अंतर होगा । यदि सबके सामने आप अपनी पत्नी को डाँटोंगे तो नौकर चाकर भी उसकी कोई वैल्यू नहीं समझेंगे , घर के अन्य सदस्यों पर भी दूषित प्रभाव पड़ेगा ।

अकेले में बोलने पर बहुत फर्क पड़ता है । किसी आदमी के अकेले में कान भी उमेठ लो तो फर्क नहीं पड़ता और सबके सामने थोड़ी तेज आवाज में बोल दो तो बड़ा अपमानित महसूस करता है ये चीज होना चाहिये ।

यदि ऐसा हो जाये तो सारा काम बन सकता है । पति – पत्नी के रिश्ते इसी तरीके के हों तो बहुत अच्छे रिश्ते होते हैं और भी बहुत सारी बातें हैं फिर कभी प्रसंग आयेगा तो चर्चा करूँगा । लेकिन बात तो मैं ये कह रहा हूँ कि आपस में एडजेस्टमेंट यदि हो तो सब कुछ ठीक होता है और यदि एडजेस्टमेंट नहीं हो तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है ।

इतिहास के ये प्रेरणास्पद प्रसंग ।

भाई और भाई के प्रति भी प्रेम होना चाहिये प्रेम जो त्याग मांगता है । भरत और राम का प्रेम हर्षवर्धन और जयवर्धन का प्रेम । भ्रातृ प्रेम के ये आदर्श उदाहरण हमारी संस्कृति में हैं । हर्षवर्धन और जयवर्धन कन्नौज के राजकुमार थे । कन्नौज नरेश की अचानक मृत्यु हो गयी उस समय हर्षवर्धन किसी राज्य में युद्ध में गया हुआ था । उस घड़ी के लोगों ने जयवर्धन का राज्यतिलक करने की घोषणा की क्योंकि राजगद्दी खाली नहीं रखी जा सकती । जयवर्धन को राज्य

मिल रहा था लेकिन जयवर्धन ने उसे लेने से इंकार कर दिया इस भाव से कि राज्य का अधिकारी तो मेरा भाई हर्षवर्धन है । इस गद्दी पर उसी को बैठना चाहिये और जब तक वो लौट कर नहीं आता कोई सिंहासन पर नहीं बैठ सकता ।

भारत की राजनीति में ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि बात को राज्य में बेदखल करके बेटा राजगद्दी पर बैठ गया लेकिन ऐसे उदाहरण कम मिलते हैं कि भाई की प्रतीक्षा में सिंहासन को खाली रखा गया । वो ही वाकई में इस धरती के लिये आदर्श बन गया है । 

भ्रातृ प्रेम का मतलब एक – दूसरे के प्रति त्याग की भावना , , समर्पण की भावना है । सच्चे अर्थों में हमारे यहां बड़े भाई को भाई .. नहीं पिता मानने की प्रेरणा दी गयी और छोटे भाई को भाई नहीं पुत्र मानने की प्रेरणा दी गयी लेकिन आजकल भाई और भाई के बीच में बहुत बड़ी खाई होती जा रही है ।

लोग एक – दूसरे के मूल्य को नहीं समझते भ्रातृत्व की भावना को बल देने की जरूरत है । देवरानी जेठानी हों या ननंद भौजाई हों मैं तो यही कहना चाहता हूँ कि देवरानी जेठानी , देवरानी जेठानी के रूप में न रहें दो बहनों की तरह रहें देखो कितना प्यार होता है ? दो बहनों की तरह रहें , एक दूसरे से ईर्ष्या न करें और ईर्ष्या को पनपने का कोई अवसर प्रकट न होने दें ।

उदारता अपनायें , सहिष्णुता अपनायें । उदारता और सहिष्णुता परिवार की शांति की रीढ़ हैं । जिस परिवार के सदस्य एक – दूसरे के प्रति उदार हों और एक – दूसरे के गुणों के प्रति सहिष्णु हों , गुणग्राही दृष्टि हो और दोष भी हो जाये तो उसे अनदेखा करने की क्षमता रखते हों उस घर में कभी कलह नहीं हो सकती ।

एक – दूसरे के प्रति वैसी दृष्टि वैसी भावना होनी चाहिये ।

काश ! घर – घर में ये मंत्र फले 

ये ईर्ष्या क्यों बढ़ती हैं ? ईर्ष्या बढ़ती है ऊपर के टिपटाप पर अब जेठानी ने कोई भारी साड़ी पहन ली तो देवरानी को तकलीफ हो गयी , देवरानी अच्छा डायमंड का सेट ले आयी तो जेठानी को तकलीफ हो गयी होता है , ऐसा ही होता है । बहुओं के लिए मैं एक फार्मूला दे रहा हूँ अपनाओगी तो बहुत आनंद में रहोगी ।

अगर अपने मायके गयी हो और मायके वालों ने तुम्हें कोई अच्छी चीज दी , कोई अच्छी साड़ी दी या मान लो एक चूड़ी दी है , तो जब घर लौटो और सास हो तो पहले सास को दो या अपनी जेठानी को दो कहो दीदी ये पहले आप पहनों आपको बहुत अच्छी लगेगी ।

महाराज तब तो मजा ही खराब हो जायेगा । मजा तो तब आयेगा जब उसको मैं पहन के दिखाऊँ कि मेरे भाई ने दी है बधंओ ! मजा दो पल का होगा लेकिन जीवन का मजा इससे किरकिरा हो जायेगा । देवरानी लाये तो जेठानी को दे , जेठानी लेकर आये तो देवरानी को दे कहे तू पहन कर देख न तेरे ऊपर कैसी लगती है मुझे अच्छा लगेगा ये भावना होनी चाहिए ।

इससे आपस में मित्रता बढ़ती है ईर्ष्या की भावना नहीं बढ़ पाती । एक – दूसरे के सामने जब प्रदर्शन की प्रवृत्ति हावी हो जाती है , एक – दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास होता है ईर्ष्या , द्वेष , दर्प और दंभ जैसी दुर्भावनायें पनपने लगती हैं वो जीवन के सारे संतुलन को बिगाड़ डालती हैं ।

इससे बचना चाहिये इससे अपने आपको बचाना चाहिये जीवन की सुख शांति का ये मंत्र है । ननद भौजाई भी रहें तो दो सहेली की तरह रहें । यूं तो ननद की व्याख्या संस्कृतिकारों ने लिखी कि जो नाना उपकार करने के बाद भी ‘ न नन्दति इति ननदः ‘ कितना ही करो वो न मानेगी उसका नाम ननद है ।

ऐसा करके कुछ नहीं होगा ननद वो हो जो सबको नन्द अर्थात आनन्द दे । आज तुम किसी का ननद हो तुम्हें भी तो किसी की ननद मिलेगी । कितने दिन यहां से वहां कहीं से यह दोनों चलेंगे ? सास बहू की बात है ।

सास – बहू को बहू न माने बेटी मानें और बहू सास को सास न मानें माँ माने । पीहर में बैठी माँ की याद आती है सामने बैठी सास का ख्याल नहीं रहता । दूर ससुराल मे बैठी बेटी का ख्याल है अपने सामने बैठी बहू का कोई ख्याल नहीं ।

ध्यान रखना तुम्हें कुछ होगा तो यहां बैठी सास काम में आयेगी , मरते समय वही पानी पिलायेगी , तुम्हारी माँ यहाँ नहीं आयेगी इसको समझें तो बहुत कुछ होता है । ऐसी उदार सास और उदार बहुयें भी बहुत सारी हैं एक दो उदाहरण मेरे सुनने में आये हैं । आज के संदर्भ में बहुत उपयोगी हैं । मैं सोचता हूँ उसको भी आप सुन लीजिये । –

एक बड़े संभ्रातं घराने की बहू को साड़ियों की जरूरत पड़ी । वो शहर के एक प्रतिष्ठान में गयी साड़ियां लीं वो कुछ कम रेट की साड़ी चाह रही थी । जब साड़ी दिखाई गई तो उसने दुकानदार से कहा मुझे इस रेंज की साड़ी नहीं चाहिये कुछ कम रेंज की साड़ी चाहिये ।

दुकानदार उनकी पूरी पारिवारिक पृष्ठभूमि को अच्छे से जानता था उसने कहा बहनजी आप एक काम करियेगा आप कल आइयेगा कल दूसरी साड़ियां आ रहीं हैं और अपनी माँ जी को लेकर आइयेगा दूसरे दिन बहु अपनी सासू माँ को लेकर आयी । सास को साड़ियां दिखाईं । बहू ने पाँच – पाँच सौ रुपयों की दो साड़ियाँ पसंद कीं ।

सास ने कहा नहीं ये नहीं और साड़ी दिखाओ दूसरी साड़ियां दिखाओ । दूसरी साड़ियां दिखाईं । सास ने दो हजार की साड़ियां सलेक्ट की । बहू ने कहा मम्मी इतनी महंगी साड़ी लेने की क्या जरूरत ? बोली तुम क्यों चिंता करती हो कमाता मेरा बेटा है वो कमा रहा तुझे लेने में क्या दिक्कत ? नहीं मम्मी मुझे तो ये घर के लिये साड़ी चाहिये ।

सास ने कहा बेटी मैं चाहती हूँ कि तू घर में भी अच्छी साड़ी पहन । पैसे की चिंता मत कर मुझे तेरा घर में भी दुल्हन जैसा रूप देखने का मन होता है । क्योंकि तू मेरी बेटी है । ये एक उदार सास की दृष्टि है और दूसरी सास होती तो क्या करती ? पाँच सौ की चाहती तो क्या कहती इतना महंगा लेने की क्या जरूरत और कम की नहीं मिल सकती क्या ? एक युवा उद्यमी था , देश – विदेश में उसका कारोबार था ।

घर पर वह , उसकी पत्नी और उसकी माँ थी । माँ बीमार थी , पत्नी उसकी सेवा करती थी । पति ने अपनी पत्नी से विदेश यात्रा का प्रस्ताव रखा । पत्नी ने कहा नहीं मैं नहीं जा सकती माँ जी की तबियत खराब है हमें उनकी सेवा करनी चाहिये ।

बोले चलो अभी हमारे जवानी के दिन हैं एक बार घूम आते हैं , पन्द्रह रोज में क्या फर्क पड़ जायेगा ? पत्नी ने कहा कि नहीं , यद्यपि जाने की इच्छा  मेरी भी है । आप जो कहते हो कि पन्द्रह दिन में क्या फर्क पड़ेगा ? हम अगर नहीं जायेंगे तो कुछ फर्क नहीं पड़ेगा पर जायेंगे तो माँ को बहुत फर्क पड़ेगा ।

पति ने कहा क्या बोलती हो ? पत्नी ने कहा हाँ , इस अशक्त स्थिति में माँ को अभी हमारी बहुत आवश्यकता है , आपको जाना है तो जाओ मैं अभी जाने वाली नहीं , मुझे। आपकी विदेश यात्रा से भी ज्यादा उपयोगी माँ की सेवा दिखती है ,

विदेश तो कभी भी चले जायेंगे माँ दुबारा नहीं आयेगी । धन्य है ऐसी बहू जिसके मन में अपनी सास के प्रति ऐसी संवदेना हो । पर बंधुओं ये तभी होता है जब एक – दूसरे का प्यार हो । बहू सास को बहुमान दे , सास बहू को वात्सल्य दे , सारा कार्य अपने आप हो जायेगा दूसरे के प्रति प्रेम इतना हो तो मैं कहना चाहता हूँ सासूओं से कि अपनी बहूओं को इतना प्रेम दो कि वो अपने मायके का फोन नंबर भी भूल जायें । भूल जायें उसको । देखो कितना आनंद आता है पर ये सब उल्टा करते हैं ।

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