रुचिर स्कार बिन तज दी सती सी नार।

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~~श्री हरि~~
 
रुचिर स्कार बिन तज दी सती सी नार,
किनी नाहीं रति रुद्र पायके कलेश को ।
गिरिजा ‘भाईं है पुनि तप ते अपर्णा तबे,’
कीनी अर्धगा प्यारी लगी गिरिजेश को ।।
विष्जु पदी गंगा तउ धूर्जटी धरि न सीस,
भागीरथी भईं तब धारी है अशेष को ।
बार बार करत रकार और मकार थ्वनि,
पूरंण है प्यार राम-नाम ये महेश कौ ।।
सबसे श्रेष्ठ -सती है, पर उनके नाममे ‘स’ और ‘त’ है, पर ‘र’ और ‘म’ तो है ही नहीं । इस कारण भगवान शंकरने सतीको छोड दिया । ‘वे सतीका त्याग कर देनेसे  अकेले दु:रव पा रहे हैं । उनका मन भी अकेले नहीँ लगा । इस कारण काकभुशुण्डिजीके यहाँ हंस बनकर गये और उनसे ‘रामचरित’ की कथा सुनी । ऐसी बात आती है कि एक बार सत्तीने सीताजीका रूप धारण … कर” लिया था, इस कारण उन्होंने फिर सतीसे प्रेम नहीं किया और साथमेँ रहते हुए भी उन्हें अपने सामने आसन दिया, सदाक्री तरह बायें भागमेँ आसन नहीं दिया । फिर सतीने जब देह-त्याग कर दिया -तो वे उसके वियोगमेँ व्याकुल हो गये ।
सतीने पर्वतराज हिमाचलके यहाँ ही जन्म लिया, और कोई देवता नहीं थे क्या ? परंतु उनक्री पुत्री होनेसे सतीको गिरिजा, पार्वती नाम पिला और तभी इन नामोंमेँ ‘र’ कार आया । इतनेपर भो भगवान
शंकर मुझे स्वीकार करेगे या नहीं, क्या पता ? इसलिये तपस्या करने लगी ।
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पूज्य राजन जी महराज।

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