विकलांगों की सेवा करना साक्षात् भगवान की सेवा करना है।
विकलांगों की सेवा करना साक्षात् भगवान की सेवा करना है।
यह याद रखो कि अन्धे , काने , लँगड़े , लूले , मूक , बधिर , कुष्ठी आदि विकलांगोंकी सेवा करना साक्षात् भगवान्की सेवा करना है । इन विकलांगोंकी सेवा करना , उनको सुख – शान्ति पहुँचाना , उनकी सब प्रकारसे सहायता करना , उनका मान – सम्मान करना- यह हमारा परम धर्म है , यह हमारा परम कर्तव्य है ।
इसके विपरीत विकलांगोंको देखकर उनकी हँसी उड़ाना और उनसे घृणा करना , उन्हें छेड़ना , रुलाना , उनका अपमान करना , उन्हें दुःख देना महान् घोर पाप है । वैसे तो हमारे धर्मशास्त्रों में समस्त संसारके किसी भी प्राणीको , जीवमात्रको कष्ट पहुँचाना , मारना , छेड़ना , सताना , रुलाना , कटु शब्द कहना घोर पाप बताया गया है ।
कहा गया है कि ऐसा करना मानवताका नहीं दानवताका लक्षण है । ऐसे किसी भी निरपराध प्राणीको सतानेवालोंका कभी तीन कालमें भी उद्धार और कल्याण नहीं हो सकता । यह हमारे शास्त्रों में डंकेकी चोटपर घोषणा कर कहा गया है , परंतु जो विकलांग हैं उन्हें सताना तो और भी महान् जघन्य घोर पाप है ।
हमारी भारतीय सनातन हिन्दू सभ्यता – संस्कृतिमें मनुष्योंकी तो बात ही क्या है पशु , पक्षी , कीट , पतंगतकको भी सताना महापाप माना गया है । यहींतक नहीं भारतीय सनातनधर्मी हिन्दू संतोंने तो वृक्षोंतकको भी सताना महापाप माना है ।
संत श्रीमलूकदासजी महाराज कहते हैं —
हरी डाल मत तोड़िये लागे सूखा बान ।
दास मलूका यों कहें अपनो सो जिय जान ॥
यहीं तक नहीं —
साधु ऐसा चाहिए जो दुखे दुखावे नाँय ।
फूल पात तोड़े नहीं रहे बगीचे माँय ॥
फूल – पत्तीको तोड़ना भी पाप माना है । यह समस्त संसार ही भगवान्का स्वरूप माना गया है
जो जग सो जगदीश ईश नहीं जग से न्यारा ।
करिये सबसे प्रेम प्रेम भगवत् को प्यारा ॥
इतना ही क्यों —
सीय राममय सब जग जानी ।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
सब जगत् जब सीयराममय है तब कष्ट भला किसको दिया जाय ? ‘ सर्व विष्णुमयं जगत् ‘ सब जगत् विष्णुमय है । भक्त सम्पूर्ण जगत्में अपने प्रभुको ही देखता — ›
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध ॥’
किसीसे भी वैर करनेका प्रश्न ही सामने नहीं आता । सब जीवमात्रकी सेवा करना , जीवमात्रकी रक्षा करना , जीवमात्रको सुख पहुँचानेका प्रयत्न करना , जीवमात्रकी सहायता करना यही तो हमारा परम धर्म है ।
अन्धे , लँगड़े , काने , कुष्ठी , मूक बधिर आदि घृणाके योग्य नहीं हैं , ये तो सेवा करनेके योग्य हैं । इनसे खूब प्रेम करो और इनकी खूब तन – मन – धनसे सेवाकर अपनी मानवताका परिचय दो । विकलांगोंके लिये अन्न जलका प्रबन्ध करना , इनके लिये वस्त्रोंका प्रबन्ध करना , इनके लिये औषधियोंका प्रबन्ध करना और इनके लिये स्थानका प्रबन्ध करना- यह एक प्रकारसे महान् पुण्य करना और यज्ञ करनेके बराबर है ।
अपने धनको अन्धाधुन्ध अय्याशीमें फूँकना , सांसारिक सुखोंमें खर्च करना और इधर लाखों अन्धे , लँगड़े , लूले , मूक बधिर आदि विकलांगोंको घोर विपत्तिमें देखकर भी । उनके प्रति तनिक भी अपने मनमें दयाका भाव न रखना और इनकी रुपये – पैसोंसे मदद न करना यह कदापि भी बुद्धिमानीका कार्य नहीं है ।
क्या विकलांगोंसे घृणा करना उचित है ।
पता नहीं आज कतिपय भारतवासी हिन्दुओंको यह क्या भूत सवार हुआ है कि वे विकलांगोंकी सेवा करना छोड़कर विकलांगोंसे घृणा करनेका व्यवहार करने लगे हैं । न घरमें जबतक कोई खूब हट्टा – कट्टा है और खूब कमाता है और खूब स्वस्थ है , तब तक तो उससे सब प्रेम करते हैं और ज्यों ही वह अन्धा हो गया , अपाहिज हो गया , उससे फिर घृणा करने लगते हैं और फिर उसका घरमें रहना दूभर कर देते हैं तथा घरसे बाहर निकाल देते हैं । यह तो महान् । घोर पाप है । क्या यह नहीं मालूम कि भारत देशमें अन्धे
धृतराष्ट्रको विवाही गयी पतिव्रता माता श्रीगान्धारीने क्या उच्च आदर्श उपस्थित किया था । जब उन्हें यह मालूम हुआ कि मेरे पूज्य पतिदेव नहीं देख सकते तो उन्होंने निर्णय ले लिया कि मुझे देखनेका क्या अधिकार है ? मैं क्यों देखूँ ?
अन्धे पतिकी सेवा करनेका ही यह प्रत्यक्ष फल था कि पूज्या पतिव्रता गान्धारी जगत्पूज्या बन गयीं । क्या माता – पिताके सच्चे भक्त श्रवणकुमारको नहीं जानते कि जिसने अपने अन्धे माता – पिताको जीवनभर कन्धोंपर लादकर समस्त भारतके तीर्थोंकी यात्रा करायी थी और सेवाकर अपना नाम सदा – सर्वदाके लिये अमर कर लिया ।
आजकी बहुत – सी पथभ्रष्ट हिन्दू नारियाँ पाश्चात्य संस्कृतिके रंगमें रँगकर पतिके अन्धा होनेपर तलाक दे देकर भाग रही हैं और ऐक्सीडेण्टमें लँगड़ा – लूला हो जानेपर उसे निकम्मा समझकर छोड़ रही हैं । क्या ऐसा घोर पाप करना शोभा देता है ?
विकलांगको जयमाल पत्रोंमें यह समाचार पढ़कर बड़ा हर्ष हुआ कि एक हिन्दू कन्याका एक हिन्दू नवयुवकसे अभी विवाह नहीं केवल मँगनी हुई थी । दैवयोगसे एक एक्सीडेण्टमें उस नवयुवकके दोनों पैर कट गये और उसे अस्पतालमें दाखिल
कर दिया गया । उसे बिल्कुल आशा नहीं थी कि उससे अब कोई विवाह करेगा । उधर कन्या पक्षवालोंने भी यह निश्चय कर लिया था कि ऐसे व्यक्तिसे जिसके दोनों पैर कट गये हैं , हम अपनी कन्याका विवाह करके उसका जीवन बर्बाद नहीं करेंगे । एक दिन उस अस्पतालमें पड़े दोनों पैरकटे उस नवयुवकने पीछे मुड़कर देखा तो उसने देखा कि एक नवयुवती सामने खड़ी है और उसके हाथों में जयमाल है ।
उसने झटसे वह जयमाल उस नवयुवकके गलेमें डाल दी । विकलांग नवयुवकने उसका परिचय पूछा तो उस कन्याने शरमाते हुए बड़े विनम्र शब्दोंमें कहा कि मैं वही लड़की हूँ , जिसके साथ आपकी मँगनी हुई है । नवयुवक आश्चर्यचकित हो गया और उसने कहा कि मैं तो अपनी दोनों टाँगें कटा चुका हूँ , क्या तुम फिर भी मेरे साथ विवाह करोगी ?
इसपर उस सनातनधर्मी हिन्दू कन्याने कहा कि हिन्दू नारी दो पति नहीं करती । जब मेरी आपके साथ मँगनी हो चुकी है तो अब किसी दूसरेसे विवाह करनेका कोई प्रश्न ही नहीं है । यदि विवाहके बाद आपकी दोनों टाँगें कट जातीं तो तब भी क्या मुझे आपको छोड़ना उचित था ? मैं विवाह आपसे ही करूँगी और जीवनभर आपकी सेवा न करती रहूँगी ।
[ प्रेषक – श्रीशिवकुमारजी गोयल ]🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏