वृत्ति से प्रवृत्ति प्रवृत्ति से परिणाम।
वृत्ति से प्रवृत्ति प्रवृत्ति से परिणाम।
शास्त्रकारों ने लिखा है कि बंधाय विषयासक्तम् मुक्तये निर्विषयं मनः एवं मनुष्यानां कारणं बंध मोक्षये विषयासक्त मन बंधन का कारण है और विषयातीत मन मुक्ति का कारण है । सच्चे अर्थों में मन ही मुनष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है ।
मन से ही मोक्ष होता है और मन से ही संसार बढ़ता है । मन ही बंधन कराता है और मन ही मुक्ति दिलाता है । आज हम अपने जीवन में जो कुछ भी हैं वे सब हमारे विचारों के कारण हैं । तीन शब्द हैं- वृत्ति , प्रवृत्ति और परिणाम ।
आज व्यक्ति के जीवन का जो व्यवहार सामने दिखता है वो परिणाम है , वह रिजल्ट है । वह परिणाम हमें उसकी प्रवृत्तियों से दिखता है लेकिन प्रवृत्ति को ऊर्जा देने वाली क्रिया हमारी मन की वृत्ति है हमारे मन के संस्कार हैं वृत्ति , जैसे संस्कार बनते हैं वैसी प्रवृत्ति होती है और जैसी प्रवृत्ति होती है , वैसा परिणाम निकलता है । व्यक्ति परिणाम को देखता है , प्रवृत्ति को बदलने की कोशिश करता है ,
संत कहते हैं कि मनोवृत्ति को बदले बिना प्रवृत्ति को बदलने का कोई अर्थ नहीं होता जिसकी मनोवृत्ति बदलती है तो उसका परिणाम अपने
आप बदल जाता है । भारत की संस्कृति में इसी बात पर सबसे ज्यादा बल दिया गया और ये कहा गया कि व्यक्ति को चाहिये कि वह अपनी मनोवृत्ति पर ध्यान रखे , अपनी मनोवृत्ति को दूषित न होने दे क्योंकि यदि मनोवृत्ति दूषित हो गयी तो संपूर्ण जिंदगी ही दूषित हो जायेगी फिर वह कुछ भी नहीं कर पायेगा इसलिये मनोवृत्ति पर अंकुश रखने की बात हमारी संस्कृति में दी गयी और यह कहा गया कि यदि अपने मन को साथ करके रखोगे तो तुम्हारे जीवन में एक लय उत्पन्न होगी , तुम जीवन का रस ले पाओगे और यदि नहीं तो तुम्हारा जीवन बर्बाद हो जायेगा ।
हमारा मन तो पारे की तरह है कहते हैं कि पारे को अगर सीधे खा ले तो जहर बन जाये , शरीर फाड़कर निकल जाता है , लेकिन उसी पारे को यदि एक वैद्य संशोधित कर पारा का भस्म बनाकर देते हैं तो पारा भी हमारे लिये एक अमृतोपम रसायन बन जाता है , औषधि बन जाता है । मन की भी यही दशा मन को यदि व्यक्ति ने संशोधित कर लिया तो उसका मन उसका तारक बन जाता है और यदि मन संशोधित नहीं हुआ तो वही मन उसके लिये घातक और मारक बन जाता है ।
संत कहते हैं कि अपनी इस वृत्ति को समझने की कोशिश करो और अपने जीवन को उसी क्रम में आगे बढ़ाने का प्रयास करो । जैन पुराणों में एक कथा आती है जो मनुष्य की मनोवृत्ति को दर्शाती है कि मनुष्य का मन कैसे गिरता है और कैसे चढ़ता है । एक पल में व्यक्ति गिरता है तो दूसरे ही पल यदि संभल जाये तो चढ़ने में भी देर नहीं लगती । एक मुनिराज जो कभी राजा हुआ करते थे और वे अचानक वैराग्य प्रकट हो जाने के कारण दीक्षित हो गये थे ।
अपने अबोध बच्चे का राजतिलक करके वे साधना के मार्ग में प्रवृत्त हुये उनकी साधना चल रही थी और एक दिन वो ध्यान में सड़क के किनारे एक पेड़ के नीचे बैठे थे । सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शन के लिये जा रहा था , ये राजगृही की घटना है , आज से 2600 वर्ष पुरानी । सम्राट श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शन के लिये जा रहा था । रास्ते में देखता क्या है कि एक मुनि महाराज हैं उनकी आँखें आरक्त हैं , ओंठ फड़फड़ा रहे हैं , पूरे शरीर में कंपन है , एकदम कोपाविष्ट ।
श्रेणिक को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मुनि तो समता की मूरत होते हैं , इतनी कोपाविष्ट मुद्रा का कारण क्या है ? श्रेणिक से रहा. नहीं गया , वह भगवान महावीर के समोशरण में जैसे ही पहुँचा उसने भगवान से पहला प्रश्न पूछा कि अभी – अभी मैं एक मुनि के दर्शन करके आ रहा हूँ मार्ग में मुझे एक मुनिराज मिले लेकिन उनकी मुद्रा मुझे बहुत कोपाविष्ट दिखी आखिर उनकी इस कोपाविष्ट अवस्था का कारण क्या है और वे किस गति में जायेंगे ? भगवान ने कहा श्रेणिक जिस समय तुम वहां से गुजर रहे थे उस समय वे तीव्र संरक्षणानन्द नामक रौद्र ध्यान यानी अत्यन्त दुर्भावों के दौर से गुजर रहे थे और यदि उनके भाव कुछ देर तक ऐसे ही टिके रहे तो वे सातवें नरक में जाने के योग्य हो जायेंगे ।
अगर कुछ देर ऐसे ही भाव बने रहे तो वे सातवें नरक यानी रसातल में चले जायेंगे । श्रेणिक ने सुना तो हतप्रभ रह गया कि मुनि की भी ऐसी दुर्गति हो सकती है । लेकिन जब वह लौटा तो देखा कि वहां का नजारा ही कुछ और था । उसने जो देखा उसे देखकर वह एकदम आश्चर्य में पड़ गया । वे मुनिराज भगवत्ता को प्राप्त हो गये थे , उन्हें केवल ज्ञान की उपलब्धि हो गयी थी और देवतागण उनकी पूजा कर रहे थे ।
श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ कि भगवान ने तो जिसके लिये कहा कि अगर थोड़े देर ऐसे ही भाव बने रहे तो सातवें नरक के लायक हो जायेंगे लेकिन ये तो केवलज्ञान प्राप्त करके भगवान बन गये , मामला क्या है ? तो दरअसल बात ऐसी थी कि जब वो ध्यान में बैठे थे , उसी समय कुछ मनचले लोग उधर से गुजरे और लोगों ने फब्ती कसी कि देखो निकम्मा हाथ पर हाथ धरकर बैठ गया , यह राज्य छोड़ करके चला आया । इनके मंत्रियों ने सारा राज्य हड़प लिया और इसके बेटे और इसकी पत्नी को भी राज्य से निर्वासित कर दिया वो दर – दर के भिखारी बने गये , ये भी कोई धरम होता है क्या ? इतनी बात उनने सुनी और ये शब्द उन्हें भीतर तक प्रभावित कर गये , अंदर से मोह का संस्कार जाग गया ।
ओ ! अच्छा ! इतनी हिम्मत ! मेरे मंत्रियों की उनने समझ क्या रखा है अभी मेरे बाहुबलों में पर्याप्त बल है , अभी मेरी काया क्षीण नहीं हुई , मैं एक – एक को देखता हूँ और उसी समय श्रेणिक वहां से गुजर रहे थे । कहते हैं कि जब उनको गुस्सा आया तो उन्होंने गुस्से में अपनी कमन से कटार निकालने का उपक्रम किया ।
उनकी एक हैबिट थी जब भी कमर से कटार निकालते थे तो साथ – साथ माथे का मुकुट संभालते थे । एक हाथ कमर पर गया कटार निकालने. को और दूसरा हाथ गया माथे के मुकुट को संभालने को लेकिन तभी उन्हें ख्याल आया अरे मैं राजा थोड़े हूँ , मैं तो मुनि हूँ । कौन राजा , कौन राज्य , कौन रानी , कौन पुत्र यह तो सब संसार की परणतियाँ हैं , संसार में कौन किसका है ? यह शरीर भी किसी का नहीं है तो मैं इस जड़ साम्राज्य के पीछे किस मोह में फंसूं ? मुझे तो अपने चैतन्य और शाश्वत स्वरूप को प्रकट करना है ये सब चीजें जड़ हैं ।
मुझे इन सबसे कुछ लेना देना नहीं है । इतना सोचते ही उनको संभलने में देर नहीं लगी । तत्क्षण उन्होंने अपनी निंदा- गर्दा की और निंदा गर्दा करके अपने परिणामों को संभाला । स्थिति ये हुई कि वे आत्म केंद्रित हुय और उसी समय सारे पापों का क्षय कर केवलज्ञान को प्राप्त कर अरहंत पद को प्राप्त हो गये । धन्य हो गये । संसार के आवागमन का चक्र हमेशा – हमेशा के लिये छूट गया ।