ससृत मूल सूलप्रद नाना । आध्यात्मिक ज्ञान।
~~ श्री हरि~~
एक तो धनी आदमीका और दूसरे ज्यादा पढे-लिखे विद्वान्का उद्धार होना कठिन होता है । धनी आदमीके धनका और विद्वान्हके विद्याका अभिमान आ जाता है । अभिमान सब तरहसे नुक्सान
करनेवाला होता है…’अभिमानद्वेषित्वाद्देन्यप्रियस्वाद्य । ‘ श्रीगोस्वामीजी महाराजने भी कहा है…
ससृत मूल सूलप्रद नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना । ।
जन्म-मरणका मूल कारण अभिमान ही है ‘नाना सूलप्रद’ -…एक तरहकी सूल नहीं, तरह-तरहकी आफ़त अभिमानसे होती है । धनका एवं विद्याका अभिमान होनेपर मनुष्य किसीको गिनता नहीं । धन आनेपर वह सोचता है कि बड़े-बड़े पण्डित एवं महात्मा हमारे यहाँ आते हैं और भिक्षा लेते हैं-यह गर्मी उनके चढ जाती है, जो भगवान्की भक्ति नहीं जाग्रत होने देती । हृदय कठोर हो जाता है वैसे यह कोई नियम नहीं है, पर प्राय: ऐसी बात देखनेमें आती है । एक कविने विचित्र बात कही है।
अन्ध् रमा सम्बन्थ ते होत न अचरज कोय ।
कमल नयन नारायण हु रहे सर्प में सोय ।।
लक्ष्मीजीके सम्बन्धसे मनुष्य अन्धा हो जाय, इसमें कोई आश्चर्य नहीं । भगवान् पुण्डरीक्राक्षक्री कमलके समान बड्री-बडी आँखे हैं ऐसी आँखोंवाले भी जाकर सर्पपर सो गये । आँखे जिसके हों, वह साँपपर पैर भी नहीं रखता और वे भगवान् जाकर सो गये सर्पपर । क्या कारण ? लश्मीका सम्बन्ध है । लाश्मीके सम्बन्धसे बडी़-बडी आँखोंवाले भी अन्धे हो जाते हैं । ‘अन्ध मूक बहरो अवश कमला नर ही करेनर हीं करें…लक्ष्मी जब आती है तो मनुष्यको अन्धा, बहरा और गूँगा बना देती हैं । यह इतने आश्नर्यकी बात नहीं है । आश्चर्य तो इस बातका हैं-विष अनुजा मारत न, बड़ आवत अचरज एह’ जहर खानेसे मनुष्य मर जाय, पर यह बिषकी छोटी बहन होनेपर मी मारती नहीं है । यह उसकी कृपा हैं, नहीं तो लक्ष्मीके आनेसे मनुष्य मर जाय; क्योंकि जहरकी वह बहन ही तो है । धनके अभिमानके विषयमें कविने विचित्र बात क्खी है…
हाकम जिन धन होय विधि षट् मेख बनावे ।
दोय श्नवणमें दिये शबद नहीं ताहि सुनावे ।।
एक मेख मुख मांय बिपति किणरी नहीं बुझे ।
दोय मेख चख मांय सबल निरबल नहीं बूझे ।।
पद हीन होय हाकम परो छठी मेख तल द्वार में ।
पांचों ही मेख छिटके परी सरल भये संसारमे।।
जब आदमी बड़ा। हो जाता है, तो वह किसीको कुछ सुनता नहीं, उसको दीखता नहीं और वह गूँगा हो जाता है उसके छ: प्रकारकी मेख लग जाती है । दो मेख कानमेँ लगती हैं, जिससे शब्द सुनायी नहीं देता । कोई पुकार करे कि ‘अन्नदाता हमारे अमुक आफत आ गयी, आप कृपा करो, हमारे ऐसा बडा़ दुख है ।’ कानसे बात सुननेमे आनी चाहिये न ? परंतु वह सुनवायी करता ही नहीं, कानमें मेख लग गयी, अब सुने कहाँसे ? ऐसे ही दो और मेख आखोमें लगनेसे ‘सबल निरबल नहीं बूझे’ ।’दे दो दण्ड इसको, जुर्माना लगा दो इतना’ ! ‘अरे भाई कितना गरीब हैं, कैसे दे सकेगा ‘ ‘कैद कर दो’-शब्दमात्र कहते क्या जोर आया ?और एक मेख ‘भुख मांय विपति किणरी नहीं बुझे “दुखी हो कि सुखी, क्या दो, तुम्हारी दशा कैसी है? तुम्हारे कोई तकलीफ़ तो नहीं है…ऐसी बात पूछता ही नहीं। यह मेखें खुल जाती है फिर सरल भये संसार में तब वह सीधा सरल हो जाता है।