साधक का लक्ष्य और साधना आध्यात्मिक ज्ञान।

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साधक का लक्ष्य और साधना

 साधक के जीवन के समक्ष सबसे बड़ा लक्ष्य एवं उद्देश्य यह है , कि वह दु : ख मुक्त होना चाहता है । दु : ख मुक्त होने के लिए आवश्यक है कि वह स्व और पर दोनों को समझे । पर को समझने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है स्व को समझना । जीवन में विकास और परिवर्तन निरन्तर आते हैं , किन्तु उन परिवर्तनों के मध्य आत्म – तत्त्व एक शक्ति ऐसी है , जिसमें परिवर्तन होकर भी वह अपरिवर्तित रहती है । इस तत्त्व को समझना ही साधक जीवन की सबसे बड़ी समस्या है । इस आत्म – तत्त्व को बिना समझे शेष समग्र ज्ञान कोरी कल्पना ही होगा । आत्मा के ज्ञान से ही सत्य का आचरण हो सकेगा तथा दुःख मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा । साधक के जीवन का एक दिव्य प्रयोजन है – अपनी देश – काल की क्षुद्र सीमाओं से परे हो जाना , सर्व प्रकार के भव बन्धनों से मुक्त हो जाना । सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिए अन्तर्जीवन को समझना होगा और उस ज्ञान को जीवन में उतारने की जो एक दिव्य कला है , उसी को साधना कहा जाता है ।
साधना 
 

साधना क्या है ? उसका क्या स्वरूप है ? तथा उसके कितने रूप प्रचलित हैं ? 

यह एक गम्भीर प्रश्न है । इस विराट और विशाल विषय को कुछ शब्दों में बाँधना शक्य नहीं है , किन्तु फिर भी इस विषय में संक्षेप में कहना आवश्यक है कि भारतीय धर्म , दर्शन और संस्कृति की प्रधान धाराएँ तीन हैं – जैन , बौद्ध और वैदिक । बौद्ध – दर्शन में साधना का मुख्य रूप चार आर्य सत्य है । चार आर्य , सत्य का अर्थ है – दुःख है , दु : ख का कारण है , दुःख – मुक्ति है और दुःख मुक्ति का उपाय भी है । जैसे – रोग , रोग का निदान , औषध और पथ्य का सेवन । सबसे पहले वैद्य यह देखता है , कि रोगी के शरीर में रोग है अथवा नहीं । यह रोग के अस्तित्व का ज्ञान है । फिर यह देखा जाता है कि रोग किस प्रकार का है । उसके बाद उस रोग को दूर करने के लिए औषधि का निश्चय किया जाता है ।
साथ में रोग आगे बढ़ने न पाए , इसलिए तदनुकूल पथ्य का सेवन भी आवश्यक समझा जाता है । पथ्य का सेवन रोग को बढ़ने से रोकता है और औषधि का सेवन शरीर में परिव्याप्त रोग को क्षीण एवं नष्ट करता है । रोग के अस्तित्व का ज्ञान और रोग का निदान भी आवश्यक इस आधार पर माना गया है , कि यदि शरीर में रोग का अस्तित्व ही न हो तो फिर निदान किसका होगा ? बौद्ध – दर्शन एवं बौद्ध – संस्कृति की साधना में यह कहा गया है , कि जगत दु : खमय है । संसार में प्रत्येक प्राणी , जन्म , जरा , मरण और रोग से पीड़ित है । इस दु : ख का कारण है – भव – तृष्णा , विभव – तृष्णा और कामतृष्णा । इन तृष्णाओं से विमुक्त होने का प्रयास करना ही साधना है ।
व्यक्ति जब तक इन तृष्णाओं से विमुक्त नहीं होता है , तब तक वह संसार के दुःख एवं क्लेशों से विमुक्त नहीं हो सकता । इनसे विमुक्त होना ही साधना का लक्ष्य । वैदिक संस्कृति में साधना के तीन मार्ग बताए हैं – ज्ञानयोग , कर्मयोग और भक्तियोग । कुछ साधक , ज्ञानयोग की साधना करते हैं , कुछ साधक , कर्मयोग की साधना करते हैं और कुछ साधक , भक्तियोग की साधना करते हैं । ज्ञान , कर्म और भक्ति ये तीनों वस्तुतः साध्य नहीं हैं , बल्कि साध्य को प्राप्त करने के लिए साधन मात्र हैं ।
साधक के जीवन का वास्तविक लक्ष्य है ब्रह्मस्वरूप हो जाना । मोक्ष एवं मुक्ति की प्राप्ति के लिए वैदिक धर्म के अनुसार इनमें से किसी भी एक साधन को लेकर साध्य की सिद्धि के लिए साधक अग्रसर होता है । ज्ञान की साधना निराकार की साधना है , भक्ति की साधना साकार की साधना है और कर्मयोग की साधना अनासक्ति की साधना है । गृहस्थ में रहते हुए भी और गृहस्थ के कर्त्तव्य को करते हुए भी उसके फल के प्रति अनासक्त रहना , यही कर्मयोग की साधना है । जैन – धर्म , जैन – दर्शन और जैन संस्कृति की साधना के भी मुख्य रूप में तीन अंग माने गए हैं – सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ।
इसको रत्नत्रय अथवा रत्नत्रयी कहा जाता है । जैन – संस्कृति की साधना के अनुसार सबसे पहले राग – द्वेष विजेता देव पर , पंच महाव्रतधारी एवं पंच समिति तीन गुप्ति के पालक गुरु पर और रत्नत्रय रूप धर्म पर विश्वास करने की आवश्यकता है , इसी को सम्यग्दर्शन कहा जाता है । यह सम्यग्दर्शन जीवन की सच्चाई को समझने में सहायक है । मैं क्या हूँ और मेरे से भिन्न यह जड़ जगत क्या है ? इस प्रकार स्व – पर के भेद – विज्ञान भी सम्यग्दर्शन से ही सम्भव है । इस भेद – विज्ञान अथवाा यथार्थ ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा जाता है ।
जब तक स्व और पर का भेद – विज्ञान नहीं होगा अथवा यथार्थ ज्ञान नहीं होगा , तब तक साधक अपनी साधना के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । जो कुछ विश्वास किया है और जो कुछ समझा एवं जाना है , उसके अनुसार जीवन को बनाना ही सम्यक् चारित्र है । उक्त रत्नत्रयी के पूर्ण विकास को ही मुक्ति एवं मोक्ष कहा जाता है । अन्य प्रकार से विशेषावश्यक भाष्य में साधना के स्वरूप को “ णाणकिरियाहिं मोक्खो ‘ कहा है । ज्ञान व क्रिया अर्थात् चारित्र से ही मोक्ष साध्य को प्राप्त किया जा सकता है । दर्शन – साधना , ज्ञान – साधना और चारित्र – साधना का अध्यात्म जीवन में समन्वय परमावश्यक है । सम्यग्दर्शन सही दृष्टि प्रदान करता है , ज्ञान से वस्तु स्थिति का बोध होता है तथा चारित्र – साधना में अशुभ से निवृत्ति एवं । में प्रवृत्नि होती है । इस प्रकार विचार के साथ आचार की साधना और आचार के विचार की साधना ही जीवन को परिपूर्ण बनाती है । साधक का चिन्तन और अनुभव जितना सूक्ष्म व अन्त : स्पर्शी होता है , साधक के शुभ. जीवन में उतना ही अधिक आनन्द और उल्लास प्रकट होता है ।
इस जगत में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है , वह सब कुछ ग्राह्य है अथवा वह सब कुछ त्याज्य है , अथवा उसमें से कुछ ग्राह्य भी है ? उक्त प्रश्न का सम्यक् निर्णय एवं सम्यक् विवेक ही अध्यात्म – साधना का आधार है । साधक अपनी अध्यात्म – साधना के चरम लक्ष्य की पूर्ति तभी कर सकता है , जब वह जीवन के यथार्थ दृष्टिकोण को समझे और समझकर जीवन के धरातल पर उसे उतारने का प्रयत्न करे । सम्यग्ज्ञान को आचरण में लाने पर चित्त की विषमता दूर होती है तथा समत्व की साधना प्रारम्भ होती है । आत्मा में दो धर्म हैं – समता और विषमता । समता , आत्मा का स्वभाव है और विषमता , आत्मा का विभाव है । क्रोध करना विषमता है और मन को शान्त रखना समता है । अभिमान विषमता है और विनम्रता समता है । छल एवं कपट विषमता है और सरलता समता है ।

लोभ विषमता है और सन्तोष समता है । किसी भी प्रकार की विषमता जब तक साधक की आत्मा में विद्यमान है तब तक उसे भव – बन्धनों से विमुक्ति नहीं मिल सकती । समत्व योग की आवश्यकता केवल अध्यात्म – जीवन में ही नहीं है , वैयक्तिक , पारिवारिक और सामाजिक जीवन में भी है । अपने धन , जन और बल का अहंकार करना , यह वैयक्तिक विषमता है । अपने स्वार्थ के लिए अपने परिजनों का परिशोषण करना , यह पारिवारिक विषमता है और समाज में किसी को उच्च और किसी को नीच समझना , नारी जाति और हरिजन वर्ग के प्रति हीन भावना रखना , यह सामाजिक विषमता है । आज के युग में एक अन्य प्रकार की विषमता भी चल पड़ी है , जिसे भाषा और प्रान्त की विषमता कहते हैं । एक प्रान्त वाला व्यक्ति दूसरे प्रान्त वाले व्यक्ति को यदि अपने से हीन कोटि का समझता है , तो वह भी एक प्रकार की विषमता है । किसी भाषा को उच्च और किसी भाषा को नीच समझना , यह भी एक प्रकार की विषमता है । विषमता किसी भी प्रकार की क्यों न हो , वह धर्म का अङ्ग नहीं बन सकती , इसलिए वास्तविक धर्म और सच्ची साधना समत्व – योग की
साधना है , जिसमें प्राणी का , प्राणी के प्रति अपरिमित प्रेम परिव्याप्त रहता है । अपने समान सबको समझना ही यथार्थभूत समत्व – योग है । यह समत्व – योग ही श्रमण संस्कृति की आधार शिला है । समत्व भावना का आविष्कार , प्रचार और प्रसार श्रमण संस्कृति की अमर देन है । समत्व – योग के प्राणभूत तत्त्व दो हैं – अहिंसा और अनेकान्त । अहिंसा का अर्थ है – समग्र भाव से सब जीवों के प्रति स्नेह , सहानुभूति और सद्भाव रखना । अनेकान्त का अर्थ है – अपने से भिन्न व्यक्ति के विचार को सुनकर उसके दृष्टिकोण को समझकर उसके साथ समुचित सामञ्जस्य एवं सन्तुलन स्थापित करना । समता एवं समत्व योग की साधना को ही सामायिक कहा जाता है । राग एवं द्वेष के प्रसंगों भी समभाव से विचलित न होना , यही सामायिक की सच्ची साधना है ।
श्रमण – संस्कृति में सामायिक की साधना को सबसे श्रेष्ठ साधना कहा गया है । सामायिक की साधना आत्मा की साधना है , सामायिक की साधना निराकार की साधना है , सामायिक की साधना अपने ही आत्म गुणों की साधना है । सामायिक की साधना को व्याख्याकार आचार्यों ने , सामायिक शब्द का व्यापक और विशाल अर्थ लेते हुए बतलाया है कि जीवन के जिस किसी भी क्षण में समभाव एवं समत्व – भाव रहता है , वह सामायिक है , फिर भले ही वह समत्व – भाव किसी भी देश और किसी भी काल का क्यों न हो । सामायिक की विशुद्ध साधना में किसी देश , काल और जाति विशेष की सीमाएँ नहीं हैं । वहाँ तो केवल एक बात देखी जाती है , कि सामायिक की साधना करने वाले व्यक्ति के मन में समभाव है अथवा नहीं ? सामायिक की व्याप्ति समभाव से है । जहाँ समभाव है वहाँ सामायिक है और जहाँ समभाव का अभाव है , वहाँ सामायिक का भी अभाव है । भव बंधन से विमुक्ति ही सामायिक साधना का वास्तविक उद्देश्य है ।

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