सामायिक साधना की भूमिका आध्यात्मिक ज्ञान।
सामायिक साधना की भूमिका ।
वट वृक्ष ऊपर से जितना विशाल दिखता है , भीतर में उतना ही दूर तक फैला हुआ होता है ; जड़ें जितनी गहरी , वृत्त उतना ही विशाल । इसी तरह मनुष्य की आस्था , श्रद्धा , मान्यता , विचारधारा जितनी दृढ़ होगी , आचार का वटवृक्ष तथा सद्गुणों के फल – फूल उतने ही अधिक लगेंगे ।
समय आने पर वटवृक्ष के पत्ते जरूर झड़ते हैं , पर जड़ से तनों में बहती रसधारा उसे फिर हरा – भरा कर देती है ; इसी तरह विपत्तियाँ या प्रतिकूलताएँ मनस्वी मनुष्यों का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं , किन्तु समभाव से उन्हें सहन करने पर वे उनके व्यक्तित्व में चार – चाँद लगाकर प्रसिद्ध कर देती हैं । इस प्रकार सद्गुणों के मूल को सींचने वाली साधना सामायिक है ।
जैसे आकाश सभी द्रव्यों का , पृथ्वी सभी जीवों का , दया सभी धर्मों का आधार है , वैसे ही सामायिक सभी गुणों का भाजन है , आधार है । समता के सहारे ही सभी गुणधर्म टिकते हैं । जैसे – अंधेरे में बड़े – बड़े सुनसान महल और किले अटपटे तथा डरावने लगते हैं वैसे ही आत्मिक भाव या आत्म – विकास के बिना ये ऐश्वर्य और वैभव भी ईर्ष्या , द्वेष एवं लड़ाई के साधन बन जाते हैं ।
तीर्थङ्कर भगवान महावीर , गौतम बुद्ध और चक्रवर्ती भरत आदि महापुरुषों के पास रमणियाँ , राजपुत्र , अतुल सम्पत्ति , सुन्दर भव्य भवन , एक छत्र राज्य आदि मन बहलाने के बड़े – बड़े साधन थे ; किन्तु उन्हें ये सब अटपटे , डरावने व नीरस लगे और एक दिन वे इन वैभव – विलासों को छोड़ , ममत्व को तोड़ , आत्मविकास के उज्ज्वल पथ सामायिक स्वरूप समता भाव की ओर बढ़ चले ।
वस्तुतः चिंता , शोक , विपत्ति और अभाव के निवारण के लिए कितना ही धन – वैभव और सुख – साधन जुटा लें , भौतिक विद्या पढ़ लें , बौद्धिक विकास कर लें , वैज्ञानिक आविष्कार कर लें , जल – थल – नभ पर आधिपत्य जमा लें अथवा इन सबसे ऊपर उठकर कान छिदा लें , सिर मुंडा लें , धुणी रमाले , गेरुएँ या श्वेत वस्त्र धारण कर लें , वस्त्र मात्र को छोड़ दें , किन्तु जब तक हृदय में समभाव का उदय नहीं होगा , तब तक समस्याओं का समाधान न हुआ है , न ही होगा ।
सामायिक की साधना इन सब समस्याओं का सम्यक् समाधान करती है । यह तो आप जानते हैं कि यह संसार समरस नहीं है । यहाँ शीत – उष्ण , दिन – रात , कठोर – कोमल , सुख – दु : ख एवं जन्म – मरण का भी जोड़ा है । सर्वत्र न सुख है , न दुःख । फिर भी मनुष्य सुख की प्राप्ति , सुख की वृद्धि वाली लालसाएँ पोषित करने की सोच में प्रयत्नशील रहता है ।
वैसे मनुष्य की सामान्य इच्छाएँ शरीर स्वस्थ हो , साथी अनुकूल हो , हर कार्य में पटुता हो , बुद्धि तीक्ष्ण हो , प्रवचन या वार्तालाप की शैली आकर्षक व मिठास भरी हो , इन सबके अतिरिक्त यदि तत्त्व का ज्ञान भी हो तो सोने में सुहागा ही कहेंगे । इन अनेक कामनाओं की पूर्ति होना या मिलना पुण्यशालिता का परिचायक है ।
पर इच्छाओं के कारण परिस्थितियाँ भी घेरा दिये रहती हैं , वे प्रतिरोध करती हैं , अत : पद – पद पर व्यक्ति दु : खी होने लगता है । जन्म के साथ रोग का , धन के साथ भय का , पद – योग्यता के साथ ईर्ष्या व मनोमलिन्य का कारण जुड़ा है । अत : साधारण व्यक्ति को यह जीवन दु : खों का घर प्रतीत होता है ।
लेकिन सामायिक की साधना वाले साधक के लिये यह जीवन खेल है । जैसे – बालक क्रीड़ा , विनोद तथा भावी जीवन की तैयारी के लिए खेल खेलते हैं । कल – कारखाना , खेती , व्यापार , उद्योग – धंधे करने से पूर्व बारीकी से जानकारी का प्रशिक्षण रुचि सहित लेते हैं , फिर भी छोटी से बड़ी तक अगणित समस्याएँ प्रतिदिन आती हैं और उनको सुलझाना पड़ता है । सुलझाते
समय निराशा के क्षण भी आते हैं । सोचते हैं – ऐसा खेल – खेलते कितने जन्म , कितने युग , कितनी परिस्थितियाँ , पात्र और क्षेत्र बदल गये , लेकिन यह खेल अभी तक चल रहा है । यही चिंतन का मूल विषय है । इस खेल को कहाँ तक खेलते रहने की कामना है ? या इस पर विराम लगाना है । यदि विराम लगाना है तो दिशा बदलिये , दशा अपने आप बदल जायेगी , इतनी समता से खेलिए कि जन्म ही नहीं लेना पड़े ।
निश्चय के साथ – आत्मा का विकास , पूर्णता तथा लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु शेष जीवन का खेल खेलने के लिए सहनशीलता में गति कीजिये । गतिशीलता के लिए सामायिक आवश्यक है । सामायिक का सतत अभ्यास हर समस्या का हल निकालता है । सामायिक की साधना वाला विपरीत परिस्थितियों में भी समभाव तथा सहनशीलता का आश्रय लेकर प्रसन्नतापूर्वक कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहता है ।
सामायिक सही समझ का परिणाम है । सामायिक के साधक को इस भ्रम से भी बचना चाहिये कि सामायिक , प्रतिक्रमण वाला कैसा भी पाप करे , उसका पाप छूमंतर हो जाता है । ऐसी सोच सामायिक का मूल्य घटाने वाली है । मात्र निर्जरा अथवा कर्मक्षय के लिए सामायिक की साधना करनी है । दशवैकालिक सूत्र में कहा है- “ नो इहलोगट्ठयाए आयारमहिट्ठिज्जा ” अर्थात् इस लोक , परलोक एवं सुख समृद्धि , कीर्ति , प्रशंसा आदि की दृष्टि से धर्माचरण नहीं करे । अत : दोषों को टाल सावद्य प्रवृत्ति से पृथक् हो , निरवद्य प्रवृत्ति के वातावरण में विधि सहित नियमित रूप से साधना पूर्वक सामायिक की आराधना की जाय । सामायिक की साधना इतनी विराट् हो कि जीवन की छोटी – बड़ी प्रत्येक क्रिया – प्रवृत्ति एवं व्यवहार माध्यम से वह अन्यों को भी आकर्षित करे , प्रभाव दिखावे । जैसे – सूर्य का प्रकाश , चन्द्रमा की शीतलता , बादलों का पानी , शुद्ध वायु , अग्नि की उष्णता किसी एक , क्षेत्र के व्यक्ति की बपौती नहीं । वैसे ही साधना का प्रकाश किसी एक क्षेत्र के व्यक्ति तक सीमित नहीं
अपितु सर्वव्यापक है । सामायिक साधना मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करने वाली बहुआयामी सद्प्रवृत्ति है । सामायिक साधना वाला सामायिक काल में साधु की जीवन – चर्या से साक्षात्कार कर लेता है । इसकी साधना वाला नारकी एवं तिर्यंच गति के ताला लगाकर देवगति व मोक्षगति को प्राप्त करता है । सामायिक को हम पहले समझें , फिर स्वीकार करें , तो फिर सामायिक की नहीं जाएगी , स्वतः हो जाएगी ।
सामायिक सूत्र छह काय के जीवों को अपने समान समझने का पाठ पढ़ाता है । यह सूत्र पाँच इन्द्रियों और छठे मन रूपी छकड़ी के प्रपंच से मुक्त होने का उपाय है । पाप को कभी छोटा नहीं समझना चाहिये । यह “ अण थोवं वण थोवं ” के समान है । ऋण , व्रण ( घाव ) , अग्नि एवं बीज जैसे वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं वैसे ही छोटा पाप भी बढ़ते – बढ़ते पर्वताकार हो जाता है ।
सामायिक साधना में आत्मशुद्धि का तत्त्व ही अधिक होता है । सर्वप्रथम करेमि भंते ! सामाइयं ‘ से समत्व की प्रतिज्ञा पश्चात् ‘ सावज्जं जोगं पच्चक्खामि ‘ से निंदनीय , वर्जनीय पापों का त्याग किया जाता है । इसके पश्चात् आत्म – शुद्धि के संदर्भ में ‘ पडिक्कमामि , निंदामि , गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ‘ ये चारों साधना रूप शोधन के प्रतीक हैं । समता के अभाव में की गई सारी साधना प्राण शून्य देह का भार ढोने के समान है । मात्र कपड़े बदलकर , आसन बिछाकर घण्टे भर बैठ जाना , कुछ माला , जप , कुछ भजन आदि बोल लेना सामायिक की वास्तविक साधना एवं स्वरूप न होकर मात्र दस्तूर की सामायिक है ।