स्वाद तोष सम सुगति सुधा के । आध्यात्मिक ज्ञान।
~~श्री हरि~~
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के ।
कमठ सेष सम धर बसुधा के ।।
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जीवका कल्याण हो जाय, इससे ऊँची कोई गति नहीं है । ऐसी जो श्रेष्ठ गति (मुक्ति) है, उसको ‘सुगति’ कहते हैं, परम सिद्धि भी वही है, जो इस ‘राम’ नामसे प्राप्त हो जाती है । ‘स्वाद तोष सम’ अमृतके स्वाद और तृप्तिके समान ‘राम’ नाम है । जैसे , भोजन किया जाता है तो उसमें बढिया रस आता है । भोजन करनेके बादमेँ तृप्ति और सन्तोष होता है, ऐसे ही यह ‘राम’ नाम सुगति और सुधाके स्वाद और तोष (तृप्ति) के समान है । मानो ‘र’ मधुरिमा और ‘म’ सन्तोष है । ‘रा’ कहते ही मुख खुलता है और ‘म’ कहते ही बन्द होता है । भोजन करते समय मुख खुलता है और तृप्ति होनेपर मुख बन्द हो जाता है । इस
प्रकार ‘रा’ और ‘म’ अमृत्तके स्वाद और तोषके समान हैं । भोज़नकी परीक्षाके लिये जीभपर रस लेकर तालुसे लगानेपर पता लग जाता है कि उसमें रस कैसा है । ज़हॉसे रस लिया जाता है, वहॉसै ही ‘र’ का उच्चारण होता है । ‘र’ कहनेमें सुधाका स्वाद आता है और ‘म’ कहनेमें तोष हो जाता है । राम, राम, राम. ॰ . . ऐसे कहते हुए एक बहुत विलक्षण रस आता है । उससे सदाके लिये तृप्ति हो जाती है । नाममे रस आनेपर फिर दूसरे रसोंकी जरूरत नहीं रहती । जिनको भगवन्नाममें रस आ जाता है, उनकी संसारके विषयोंसे रुचि हट जाती है । जबतक संसारके बिषयोंकी रुचि रहती है, तबतक भगवन्नाममे रस । नहीं आता है । भगवान्के नाममे जब रस आना शुरू हो जाता है, फिर सब रस फीके हो जाते हैं । श्रीगोस्वामीजी महाराज कहते हैँ-यदि ‘राम’ नाम मेरेको मीठा
लगता तो सब-के-सब रस फीके हो जाते’ । भोजनके छ: रंस और काव्यके नौ रस होते हैं । ये सब फीके हो जाते हैं; वयोंकी ये सब बाह्य है । उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थोंसे मिलनेवाला रस ‘नीस्सता‘मे ” बदल जाता हैं । “बिषयेन्द्रियसंयोगाघ्धत्तदग्रेऽमृतोपमम्‘ ……संसारमे जितने रस हैँ, वे बिषय और इन्द्रियोके सम्बन्धसे होनेवाले है । वे ‘ आरम्भमें अमृतके समान लगते हैं, परंतु ‘परिणामे विषमिव’ -परिणाममें जहरकी तरह होते हैं । इस तरफ़ विचार न करनेसे मनुष्य विषयोंमें फँसता है । जो विचारवान् सात्विक पुरुष होते हैं, वे पहले परिणामकी तरफ देखते हैं, इस कारण वे फँसते नहीं ।
सुचिन्त्य ` चोक्तं सुविचार्यं यत्कृतं,
सुदीर्घकालेऽपि न याति विक्रियाम् ।
सज्जनों ! ये बाते ऐसे ही केबल कहने-सुननेकी नहीँ हैं,
समझनेकी हैं और समझकर काममे लानेकी हैं । आदमीको सोच-समझकर काम करना चाहिये । विचारपू रवक काम करनेवालेको परिणाममे कष्ट नहीं उठाना पड़ता ।
बिना बिचारे जो करें सो पाछे पछताय,
काज बिगारे आपना जगमें होत हँसाय ।
जगमें ” होत हँसाय चित्तमैं चैन न पाये,
राग रंग सन्मान ताहिके मन नहि भावे ।
कह गिरधर कबिराय करम गति टरे न टारे,
रवटकत है हिय माँहि करे जो बिना बिचारे ।।
“बिना विचार किये काम…करनेसे आगे दुख पाना पड़ता है
और वह बात हृदयमे भी खटकती रहती है । मनुष्य अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग कर दे और दूसरोंके हितके लिये काम करे तो उसका जीवन सफल हो जाय । सात्विक वृत्तियोंकी मुख्यता रखकर अर्थात् विचारपूर्वक प्रत्येक कार्य काना चाहिये । लोग भोजन करते हैँ तो द्रु:ख, शोक और रोग देनेवाले राजसी भोंजनमें प्रवृत्त होते हैं । जान…’बूझक्रर कुपथ्य कर लेते हैं । छोटे-से जीभके टुकन्डेके वशमें ” होकर साढे तीन हाथके शरीरका नुकसान कर लेते हैं । अगर विवेक होता तो शरीरका नाश क्यों का लेते ? इतना ही नहीं अभक्ष्य भक्षण ‘ करके नरकोंकी तैयारी कर लेते हैं ।
‘राम नामकी महिमा कहते हुए गोस्वामीजी कहते हैं…’सुगति’ _ रूपी जौ सुधा है, यह सदाके लिये तृप्त करनेवाली है । सदाके लिये लाभ हो जाय, जिस लाभके बादमे कोई लाभ बाकी नहीं रहता, जहाँ कोई दुख पहुँच ही नहीं सकता है । ” ऐसे महान् आनन्दको प्राप्त करानेवाली जो श्रेष्ठ गति है, उसका रस ‘राम’ नामका जप करनेसे आता है । जो ‘राम’ नामसे तृप्त हो जाते हैं, वे फिर सांसारिक भोगोंमें फँसेगे नहीं । उनसे कहना नहीं पड़ेगा कि पाप-अन्याय मत करो । उनकी पाप-अन्यायमेँ रुचि रहेगी ही नहीं । जिस्को भगवन्नामका रस नहीं मिला है वे धन इकट्ठा करने और भोग भोगनेमेँ लगे हैं । सज्जनों ! माताओं-बहनो ! भगवान्के नाममें रस लो, इसमें तल्लीन हो जाओं । रात-दिन इसमें लग जाओ । आप-से-आप पाप अन्याय छूट जायेगा । निषिद्ध आचरणोंसे स्वत: ही ग्लानि हो जायेगी । अभी मलिनता अच्छी लगती है, बुरी नहीं लगती, कारण क्या है ? अन्त्त करण मैला है । जो खुद मैला है, उसे मैली चीज ही अच्छी लगेगी मक्खियाँ मिठाईंपर तभीतक बैठी रहती हैं कि जबतक मैलेकी टोकरी पाससे होकर न निकले । मुँहपर मक्खियाँ बैठने लगें तो बढि़या सुगन्धवाला इत्र थोडा-सा लगा लो फिर मक्खियॉ नहीं आयेगी; क्योकि उनको सुगन्धि सुहाती ही नहीँ । ‘मक्षिका व्रणमिच्छत्ति‘ –वे तो घावपर जहाँ’ पीप-खून मिले; वहाँ बैठेगी । ऐसे ही जिसका मन अशुद्ध होता है वह ही मलिन वस्तुओंकी तरफ आकृष्ट होता है । भगवान्के नाम-रूपी सुगन्धके मिलनेपर फिर मैली वस्तुओँकी तरफ मन नहीं जायेगा ।
सज्जनो । यह बडा सुगम उपाय है । भगवान्के नामका जप करो और प्रभुके चरणोंका सहारा रखो । जैसे साधारण मनुष्य धन कमाने और भोग भोगनेमें रस लेते हैं, वैसे ही भगवत्प्रेमीको भगवन्नाम, सत्संग और सत्-शाखोंके अध्ययनमेँ रस लेना चाहिये । इस रसके लिये ही मानव जीवन मिला है जिसे ‘राम’ नाम लेनेमें रस आने लगेगा, वह रात-दिन नाम जपमें लग जायगा; फिर वह संसारके विषयोंमें फँसेगा ही कैसे ?