।। व्यापक धर्म का अनुसरण।।

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     व्यापक धर्म का अनुसरण


 

 

 सामान्य व्यावहारिक जीवन में कई बार क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए , ऐसा सवाल पैदा होता रहता है । अलग – अलग व्यावहारिक भूमिका हम निभाते हैं और इसमें दो भूमिकाओं के बीच में कई बार विसंवाद या घर्षण ( संघर्ष ) पैदा होता है । यहाँ धर्म का सवाल खड़ा होता है । धर्मों के बीच संघर्ष की परिस्थिति पैदा हो जाती है । ऐसे समय व्यक्ति को अपने और अन्य के हित या अहित को समझकर निर्णय करना चाहिए । इस विषय में महाभारत की किन्हीं विशेष घटनाओं से मार्गदर्शन मिल सकता है क्या ? 

 

जीवन कदम – कदम पर द्वंद्वों से भरा है । राग – द्वेष , पसंद – नापसंद , श्रेय- प्रेय , स्वजन – परजन , इस प्रकार अनेक द्वंद्वों के बीच व्यक्ति को किसी एक का चुनाव करना पड़ता है । व्यावहारिक जीवन में एक ही व्यक्ति घटनाक्रम के अनुसंधान में अलग – अलग भूमिकाएँ भी निभाता है । अनेक बार ये भूमिकाएँ परस्पर भिन्न होती हैं और कहीं – कहीं तो विरोधाभासी भी हों , ऐसी परिस्थिति का निर्माण होता है । ऐसे प्रसंग में विकल्प का चुनाव करने में धर्म का सवाल खड़ा होता है । कभी – कभी ऐसा भी होता है कि प्राप्य विकल्पों में दोनों ही धर्मसंगत लगते हैं अथवा अधर्मयुक्त लगते हैं । यहाँ चुनाव अधिक विकट बन जाता है । प्रायः होता यह है कि व्यक्ति स्वयं जो मार्ग चुनता है , उसे धर्मसंगत मानने और मनवाने के लिए वह तर्कसंगत दलीलें ढूँढ़ निकालता है । धर्म है , इसलिए इसका मैं अनुसरण करता हूँ , ऐसा होने के बजाय , मैं अनुसरण करता मैं हूँ इसलिए यह धर्म है , ऐसा व्यक्ति ढूँढ़ निकालता है । इसमें रोचक बात तो यह है कि बड़े – से – बड़े दुष्कृत्य को भी व्यक्ति धर्म का सहारा देने में हिचकता नहीं है ।

धर्म की आड़ लिये बिना उसका बिल्कुल काम नहीं चलता , यह हकीकत हमारे जीवन पर धर्म ने कैसा अनादि , शाश्वत और सार्वत्रिक प्रभाव डाला है , इसका ही द्योतक है । इसके विपरीत बहुत से लोग सही अर्थ में धर्म क्या है और अधर्म क्या है , इसे शायद ही जानते हैं । जीवन की सबसे विषम परिस्थिति होती तो यह है कि हम कभी – कभी धर्म क्या है और अधर्म क्या है , यह जान रहे होते हैं , तो भी धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं और अधर्म का त्याग नहीं कर पाते हैं ।

महाभारत में दुर्योधन ऐसा एक पात्र है ।

 ( दुर्योधन की यह बात महाभारत के अधिकृत पाठ में नहीं है । पर दाक्षिणात्य आवृत्तियों में इसका उल्लेख मिलता है । ) 

एक स्थान पर दुर्योधन कहता है


जानामिधर्मम् न च मे प्रवृत्ति ।

 जानाम्यधर्मम् न च मे प्रवृत्ति ॥ 


अर्थात् धर्म जानता हूँ , किंतु पालन नहीं कर सकता और अधर्म भी जानता हूँ , परंतु उससे निवृत्त नहीं हो सकता । जीवन का यह सबसे करुण पल है । पर इस करुण पल में ऐसा व्यक्ति अन्य सभी से दो अंगुल ऊँचा भी हो जाता है ; क्योंकि यह ज्ञान होना और उसका प्रकट स्वीकार करना , यह भी कोई सामान्य बात नहीं है ।

महाभारत में अन्यत्र एक बार विदुर के मुँह से और एक बार कृष्ण के मुँह से ऐसे धर्मसंकट में कौन सा मार्ग स्वीकार करें , इस विषय में एक मार्गदर्शक श्लोक बोलवाया गया है


 त्यजदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।

 ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथ्वीं त्यजेत ॥ 


अर्थात् दो धर्मों अथवा कर्तव्यों के बीच जब स्पष्ट विरोधाभास खड़ा हो तो व्यापक धर्म का अनुसरण करना चाहिए और छोटे धर्म का त्याग करना चाहिए । इस श्लोक में यह विभावना इस प्रकार समझाई गई है । कुल के लिए व्यक्ति का त्याग करना चाहिए , ग्राम के लिए आवश्यक होने पर कुल का त्याग करना चाहिए , देश के लिए ग्राम का त्याग करने में नहीं हिचकना चाहिए और आत्मा की विशुद्धि के लिए तो समग्र पृथ्वी को भी तज देना चाहिए ।

इस प्रश्न को महाभारत के संदर्भ में हम दो भागों में बाँट सकते हैं । महाभारत में कई प्रसंग स्वतंत्र रूप से जाँचे जा सकते हैं । अन्य कई प्रसंग महाभारत के मुख्य पात्रों के द्वारा ली गई प्रतिज्ञा के संदर्भ के मूल्यांकित किए जा सकते हैं । महाभारत के घटनाचक्र में इन प्रतिज्ञाओं का विशेष स्थान है । इस प्रतिज्ञापालन की बात हम बाद में जाँचेंगे ।

राजा धृतराष्ट्र का प्रथम कर्तव्य राजधर्म का पालन है । इस राजधर्म को एक विशिष्ट दृष्टि अभिप्रेत है । धृतराष्ट्र ने इस राजधर्म का पालन सर्वत्र किया है , परंतु राजधर्म और पुत्र स्नेह पुत्रमोह में बदल जाता है । मोह प्रेम जैसे उदात्त तत्त्व का अवमूल्यन है । राजा धृतराष्ट्र ने राजधर्म के पालन के विरुद्ध जाकर पुत्रमोह का अनुकरण किया । 

पांडवों को वारणाव्रत भेजने के पीछे दुर्योधन का जो कुतर्क था , उसे अस्वीकार करने के बदले पुत्रमोह के कारण धृतराष्ट्र ने राजधर्म में शिथिलता दिखाई । इसी प्रकार पांडवों को द्यूत खेलने के लिए अपने नाम से निमंत्रण भेजना पुत्रमोह था । राजधर्म का यहाँ भी भोग लिया गया । हस्तिनापुर के राजा के रूप में कृष्ण ने जो संधि प्रस्ताव प्रस्तुत किया था , उसे स्वीकार करना जनपद के हित में था , इसके बावजूद धृतराष्ट्र ने इस व्यापक धर्म की रक्षा करने के बदले पुत्रमोह का ही संवर्धन किया ।

 इसके विपरीत माता गांधारी ने युद्ध के अठारह दिनों के दौरान प्रतिदिन प्रातः काल विजयश्री का आशीर्वाद लेने के लिए माता को प्रणाम करते पुत्रों को एक ही वाक्य कहा है— ” यतो धर्मो ततो जयः ” । 

इसका अर्थ यह हुआ कि राजरानी के रूप में गांधारी ने दो धर्मों के बीच संघर्ष के क्षण में जो धर्म अधिक व्यापक है , उसका अनुसरण किया है । यहाँ एक रसप्रद निरीक्षण भी किया जा सकता है । धृतराष्ट्र जन्मांघ हैं , उसने कभी प्रकाश देखा ही नहीं । गांधारी का अंधत्व स्वैच्छिक अंधापन है । प्रकाश के विषय में उसे पर्याप्त अनुभव है ।

सत्य अंघत्व के आर – पार भी प्रकाश फैला सकता है , परंतु उसकी पूर्व शर्त यह है कि व्यक्ति के जीवन में कभी कहीं प्रकाश का साक्षात्कार हुआ होना चाहिए । महायुद्ध को टालने के अंतिम प्रयास के रूप में कृष्ण जब दूत बनकर हस्तिनापुर आए तो द्रौपदी को उन्होंने आश्वस्त किया था कि जिस तरह तुमने इतने वर्ष रुदन किए हैं , उसी तरह अब तुम्हारे शत्रुओं की स्त्रियाँ आक्रंद करेंगी ।

इसके बावजूद विष्टि ( संधि प्रस्ताव ) में असफल हो जाने के बाद अंतिम प्रयास के रूप में कृष्ण ने  कौरवपक्ष से पांडवपक्ष में मोड़ने के प्रयास किए हैं । इस प्रयास में कर्ण के समक्ष द्रौपदी का प्रलोभन देने में भी कृष्ण ने संकोच नहीं किया ।

कर्ण यदि पांडवपक्ष में आ जाए तो ज्येष्ठ पांडव के रूप में राज्य तो उसे मिलेगा ही , माता कुंती की अज्ञानुसार पाँच भाइयों की संयुक्त पत्नी द्रौपदी अब से छह भाइयों की पत्नी हो जाएगी , यह कहते हुए भी कृष्ण हिचकिचाए नहीं । निस्संदेह चौंक उठें , ऐसी यह बात है । पर यहीं कृष्ण के कृष्णत्व का रहस्य छिपा है । ऊपर उद्धृत किए हुए

श्लोक का सच्चे अर्थ में अनुसरण भी कृष्ण ने यहीं किया है । युद्ध का निवारण करना महाधर्म था युद्ध में जो संहार होता , वह समग्र समाज को और भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करनेवाला था । छोटे धर्म और बड़े धर्म के बीच किसी एक को यहाँ चुनना या द्रौपदी का प्रतिशोध शांत हो , यह द्रौपदी और कृष्ण के लिए व्यक्तिगत संतोष की बात है ।

परंतु इस वैर को भूलकर द्रौपदी अर्जुन के आजीवन शत्रु कर्ण की पत्नी बन जाए , इस प्रस्ताव में व्यक्ति के ऊपर समष्टि के धर्म का प्रभाव रहा है । भले द्रौपदी का बलिदान लिया जा रहा हो , भले कृष्ण के विषय में आनेवाले कल का इतिहास दूसरा कुछ कहता हो , पर समष्टि के व्यापक हित की सर्वप्रथम रक्षा होनी चाहिए , यह बात कृष्ण के इस व्यवहार का संकेत है ।

दो धर्मों के बीच जब संघर्ष पैदा हो , तब किस धर्म को बड़ा मानना चाहिए और किस धर्म को छोटा , यह बात भी यहाँ स्पष्ट कर देनी चाहिए । जिसमें व्यक्ति का स्वयं का हित बिल्कुल न हो अथवा उसका निजी हित कम से – कम हो , उस धर्म को व्यापक धर्म मानना चाहिए । उदाहरण के रूप में महायुद्ध को रोकने के लिए कृष्ण ने जो उपर्युक्त व्यवहार किया है , उसमें कृष्ण की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा धूमिल हो , ऐसा है ; इतना ही नहीं , प्रिय सखी द्रौपदी के मन को असंतोष हो , ऐसी संभावना भी है ; इसके बावजूद कृष्ण ने अपने और द्रौपदी के मूल्य पर यदि समग्र आर्यावर्त का कल्याण होता हो तो यह मार्ग अपनाने की तत्परता दिखाई है ।

युद्ध के अंत में महाराज युधिष्ठिर अतिशय उद्विग्न हो गए हैं । ऐसा राज्य – सिंहासन भोगने के बजाय मृत्यु ही अधिक श्रेय है , ऐसा उन्हें लगता है । उस समय महर्षि व्यास आदि ऋषि उन्हें धर्म के विषय में सूक्ष्म ज्ञान देते हैं । यहाँ युधिष्ठिर के मन में जो वैराग्य व्याप्त था , वह वैराग्य उनके समक्ष के तत्कालीन राजधर्म के विरुद्ध था । वैराग्य ऊँचा धर्म हो तो भी उस समय तो युधिष्ठिर के लिए आर्यावर्त में जो शून्यावकाश निर्मित हो गया था , उसे भर देना ही सार्वत्रिक धर्म था ।

युधिष्ठिर को अपने इस वैराग्यभाव का त्याग करके भी राज्य , प्रजा और समग्र जनसमूह के हित के लिए सिंहासनारूढ़ होना चाहिए । यहाँ प्रश्न व्यापक धर्म की रक्षा का है । युधिष्ठिर ने इस व्यापक धर्म का अनुसरण किया । इसमें सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि व्यक्ति को ईमानदारी से निष्ठापूर्वक अपने स्वार्थ और समष्टि के हित के लिए आवश्यक धर्मभावना , इन दोनों के बीच की विभाजक रेखा समझ लेनी चाहिए ।

ऐसा संभव है कि यह समझ लेने के बाद जो अनुसरण हो , उससे अपार व्यक्तिगत नुकसान हो और तात्कालिक अपयश भी मिले , पर धर्मपालन तो असिधारा व्रत है । महाभारत के घटनाक्रम में उसके मुख्य पात्रों द्वारा समय – समय पर ली गई प्रतिज्ञाओं ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है ।

आज के व्यावहारिक जगत् में हम प्रतिज्ञा शब्द का प्रयोग संकल्प अथवा निश्चय विशेष के अर्थ में करते हैं । अधिक स्पष्ट रूप में कहें तो अमुक कार्य करने या न करने की मानसिक प्रतिबद्धता का इसमें समावेश होता है । इस प्रतिबद्धता के कारण जो परिस्थितियाँ जाने – अनजाने निर्माण हुई , उनमें करने योग्य कार्य , न करने योग्य कार्य ? यानी कि धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष पैदा होता है । व्यक्तिगत प्रतिबद्धता विरुद्ध व्यापक हित जैसे प्रश्नों पर भी विचार किया जा सकता है । भीष्म ने माता सत्यवती के पिता दास्यराज के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी । उनके इस भीषण कृत्य के कारण ही कुमार देवव्रत ‘ भीष्म ‘ कहलाए । घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया कि हस्तिनापुर का सिंहासन उत्तराधिकारी – विहीन हो गया । राजा विचित्रवीर्य अतिशय भोग – विलास के कारण अकाल और अपुत्र मृत्यु को प्राप्त हुए । अब हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए कुरुवंश के एकमात्र वंशज भीष्म ही उपलब्ध थे । माता सत्यवती ने भीष्म को उनकी प्रतिज्ञा से मुक्त करके विवाह कर लेने और सिंहासन सँभाल लेने का अनुरोध भी किया था । भीष्म की प्रतिज्ञा के हेतु को यदि लक्ष्य में लें तो ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा माता सत्यवती की संतानों के राजसिंहासन पर अबाधित अधिकार की हमेशा के लिए रक्षा करने को थी । अब नई उपस्थित हई परिस्थिति में

भीष्म ने माता सत्यवती के पिता दास्यराज के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी । उनके इस भीषण कृत्य के कारण ही कुमार देवव्रत ‘ भीष्म ‘ कहलाए । घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया कि हस्तिनापुर का सिंहासन उत्तराधिकारी – विहीन हो गया । राजा विचित्रवीर्य अतिशय भोग – विलास के कारण अकाल और अपुत्र मृत्यु को प्राप्त हुए । अब हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए कुरुवंश के एकमात्र वंशज भीष्म ही उपलब्ध थे । माता सत्यवती ने भीष्म को उनकी प्रतिज्ञा से मुक्त करके विवाह कर लेने और सिंहासन सँभाल लेने का अनुरोध भी किया था ।

भीष्म की प्रतिज्ञा के हेतु को यदि लक्ष्य में लें तो ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा माता सत्यवती की संतानों के राजसिंहासन पर अबाधित अधिकार की हमेशा के लिए रक्षा करने को थी । अब नई उपस्थित हुई परिस्थिति में उनकी यह प्रतिज्ञा निरर्थक थी । जिनके लिए यह प्रतिज्ञा ली गई थी , वही माता सत्यवती अब स्वयं उससे मुक्ति दे रही थीं ।

एक ओर भीष्म का व्यक्तिगत धर्म था , दूसरी ओर राजधर्म था भीष्म ने महाभारत की उदात्त भावना की यहाँ अवज्ञा की है , ऐसा लगे बिना नहीं रहता । उन्होंने राजधर्म की व्यापक भावना के मूल्य पर व्यक्तिगत प्रतिज्ञा के धर्म को शब्दार्थ में अक्षुण्ण रखा । माता की इच्छा के अनुसार यदि उन्होंने प्रतिज्ञा मुक्ति को स्वीकार किया होता तो महाभारत का महासंहार हुआ ही न होता ।

जीवन के आरंभ में व्यक्तिगत धर्म को समष्टि के प्रति अपने धर्म को अधिक महत्त्व देने की भीष्म की यह विभावना वैसी की वैसी ही अंतकाल में भी देखी जा सकती हैं । कौरव सेनापति के रूप में उनका धर्म दुर्योधन के लिए विजय प्राप्त करने का था । यहाँ भी पूर्व जीवन में कन्या रह चुके शिखंडी के समक्ष वे शस्त्रत्याग करते हैं ।

स्त्री के विरुद्ध शस्त्राघात न हो , यह भीष्म का व्यक्तिगत धर्म था । राम ने ताड़का का और कृष्ण ने पूतना का वध आखिरकार किया ही था । ये दोनों भी तो स्त्री ही थीं । धर्म के सूक्ष्म तत्त्व को पूरा – पूरा जानते हुए भी भीष्म शिखंडी की आड़ में लड़ रहे अर्जुन के समक्षा एक तरह से आत्मसमर्पण ही कर देते हैं और इस तरह व्यक्तिगत धर्म की रक्षा करते हैं ; किंतु पक्ष – विजय का व्यापक धर्म तो उपेक्षित ही रहा , ऐसा कहा जा सकता है ।

आचार्य द्रोण भीष्म के पतन के बाद कौश्व सेनपति बने । कौरव सेनापति के रूप में उनका धर्म भी दुर्योधन की विजय हो , ऐसा ही करना था युद्ध के पंद्रहवें दिन पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु हो गई है , ऐसा कर्णोपकर्ण वृत्तांत जानकर उन्होंने अपने व्यापक धर्म को तिलांजलि दी और पुत्रमोह के वश हो गए । पुत्रमोह व्यक्तिगत विभावना है । पक्ष विजय व्यापक धर्म है ।

द्रोण ने भी यहाँ व्यापक धर्म के मूल्य पर व्यक्तिगत धर्म का अनुसरण किया । तीसरे कौरव सेनापति के रूप में आरूढ़ हुआ कर्ण स्वयं जन्मदत्त कवच और कुंडल से अवध्य और सुरक्षित है , यह जानते हुए भी वह कवच – कुंडल ब्राह्मण वेशधारी इंद्र को दान कर देता है । कोई भी ब्राह्मण कोई भी याचना करे तो उसकी वह याचना वह अवश्य पूरी करेगा , ऐसी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा कर्ण ने ली थी ।

ब्राह्मण वेशधारी इंद्र कर्ण की इस प्रतिज्ञा के शब्दार्थ का दुरुपयोग करके अनुचित लाभ लेना चाहता था । कर्ण यह बात अच्छी तरह जानता था कवच – कुंडल का यह दान यानी व्यक्तिगत धर्म की रक्षा ; पर इसका सहज अंत कर्ण के वध और अर्जुन की विजय के रूप में ही आना था ।

इस प्रकार यहाँ भी कर्ण ने व्यापक धर्म के मूल्य पर व्यक्तिगत धर्म की रक्षा की है । कर्ण के कौरव सेनापति के रूप में दो के दौरान एक दूसरे प्रसंग का भी उल्लेख किया जा सकता है , जिसमें कर्ण ने व्यक्तिगत धर्म की रक्षा की है और व्यापक धर्म की अवेहलना की है । माता कुंती को उसने युद्ध की पूर्वसंध्या पर वचन दिया है कि युद्ध में वह अर्जुन के सिवा किसी भी अन्य पांडव का वध नहीं करेगा ।

युद्ध के सत्रहवें दिन युधिष्ठिर को गरदन पर शस्त्र रखकर यह भी कहा कि तेरा घात करना अत्यंत सरल है । कर्ण ने • यदि उसी समय युधिष्ठिर का वध कर दिया होता तो उसके व्यक्तिगत वचन का अवश्य भोग चढ़ गया होता और कर्ण की प्रतिष्ठा भी धूल धूसरित हो गई होती , परंतु जिस पक्ष से वह लड़ रहा था , उस पक्ष को तो उसने अवश्य ही विजय दिला दी होती ।

इसके विपरीत पक्ष में कृष्ण का उदाहरण देखना भारी रसप्रद है । कृष्ण ने इस युद्ध में निःशस्त्र रहने की प्रतिज्ञा ली थी । कृष्ण अपने इस व्यक्तिगत धर्म को दो बार छोड़ने के लिए तैयार हुए हैं । पितामह भीष्म भीषण युद्ध कर रहे थे और पांडव सैन्यदल सर्वत्र पराजित हो रहा था । उस समय भीष्म को रोकना अनिवार्य था ।

भीष्म का प्रतिकार करने का सामर्थ्य एकमात्र अर्जुन में ही था , परंतु पितामह के प्रति पुत्रधर्म से प्रेरित अर्जुन अभी भी पूरी तरह मोहमुक्त नहीं हो सकता था , इसलिए अपने पूरे सामर्थ्य से वह पितामह का प्रतिकार नहीं कर रहा था । कृष्ण की विलक्षण दृष्टि ने इसे भाँप लिया और यदि यह युद्ध और थोड़ी देर तक चला और भीष्म इसी तरह लड़ते रहे तो पांडवों की हार अंकित हो जाए , यह असंदिग्ध था ।

पांडवों की पराजय का अर्थ था— धर्म की पराजय और अधर्म की विजय । यहाँ कृष्ण के समक्ष दो विकल्प थे । निःशस्त्र रहने की अपनी प्रतिज्ञा से शब्दार्थ और लक्ष्यार्थ दोनों दृष्टियों से चिपके रहकर व्यक्तिगत धर्म की रक्षा करें अथवा प्रतिज्ञा भंग का अपयश अपने मस्तक पर लेकर कौरवों की , यानी व्यापक अधर्म की विजय को रोक दें । कृष्ण ने दूसरे विकल्प को चुना ।

व्यक्तिगत धर्म के मूल्य पर उन्होंने व्यापक धर्म की रक्षा की । भीष्म का प्रतिकार करने के लिए उन्होंने स्वयं शस्त्र ग्रहण किया और उनका वध करने के लिए वे तेजी से आगे बढ़े । व्यक्ति की अपेक्षा समष्टि अधिक महान् है , इसका कृष्ण ने यहाँ उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत किया है ।

कई बार महाभारत युद्ध के दोनों पक्षों के बलाबल का परीक्षण करने पर यह प्रश्न भी पैदा होता है कि कौरव पक्ष में भीष्म , द्रोण , कर्ण , अश्वत्थामा , दुर्योधन जैसे महासमर्थ योद्धा थे । विपक्षी पांडवों के पास इन सब का प्रतिकार कर सकें , ऐसे मात्र दो योद्धा थे । अर्जुन और भीम । कौरवों के सैन्य का संख्याबल ग्यारह अक्षौहिणी था ।

विरोध पक्ष में पांडवों का संख्याबल मात्र सात अक्षौहिणी था । इस प्रकार स्पष्ट रूप से कौरव पक्ष अधिक प्रबल था । इसके बावजूद विजयश्री ने पांडवों का ही वरण किया , इसका रहस्य क्या हो सकता है ? पांडवों के पक्ष में कृष्ण थे और यह कृष्णत्व ही पांडवों को विजय मार्ग पर खींच ले गया , ऐसा कहा जा सकता है ; पर एक और वास्तविक तथा व्यावहारिक निरीक्षण करने लायक है ।

लगभग सभी कौरव सेनानी अपनी व्यक्तिगत विभावनाओं के लिए युद्ध कर रहे थे ; इतना ही नहीं , भीष्म और द्रोण जैसे सेनानी तो मन – ही – मन पांडवों की विजय की इच्छा भी कर रहे थे । विपक्ष में तमाम पांडव योद्धा किसी व्यक्तिगत भावना को अग्रस्थान देकर युद्ध नहीं कर रहे थे । पक्ष की सार्वत्रिक विजय की एकमात्र भावना पांडव – पक्ष के तमाम सेनानियों में बलवत्तर थी ।

कवच – कुंडल का दान कर्ण के पास से प्राप्त करनेवाले इंद्र ने कर्ण को एक अमोघ शक्ति का शस्त्र दिया था । इस शस्त्र का उपयोग कर्ण जिस पर भी करे , वह अचूक सफल होगा ही और शत्रु का वध निश्चित रूप से होगा , ऐसी इस शस्त्र की शक्ति थी , कृष्ण यह जानते थे । वास्तव में इस शस्त्र का प्रयोग कर्ण अर्जुन पर ही करना चाहता था ।

परंतु कर्ण और अर्जुन के बीच द्वंद्वयुद्ध हो , उसके पहले ही कृष्ण ने भीम – पुत्र घटोत्कच का भेज दिया । घटोत्कच अत्यंत समर्थ और वीर योद्धा था । उसे जुनून के साथ कौरवों पर आक्रमण करने का निर्देश देकर कृष्ण ने एक तरह से कर्ण की उस अमोघ शक्ति ही व्यर्थ कर डाली है । यहाँ घटोत्कच का भोग अर्जुन के लिए लिया है ।

अर्जुन का जीवन पांडव पक्ष के लिए घटोत्कच की अपेक्षा अधिक उपयोगी था । चुनाव यदि घटोत्कच और अर्जुन , इन दो विकल्पों के बीच करना हो तो व्यापक हित की दृष्टि से अर्जुन का जीवन अधिक मूल्यवान था । यह बात कृष्ण जिस प्रकार समझे और उस पर अमल किया , उसके विपरीत उसका दर्शन कौरवपक्ष में हुआ है ।

घटोत्कच के दुःसत्य आक्रमण के सामने दुर्योधन ने थोड़े समय के तात्कालिक लाभ का आकलन करके कर्ण से उसकी उस अमोघ शक्ति का प्रयोग करवाया । कवच – कुंडल से विहीन हुआ कर्ण भी इस शस्त्र का मूल्य समझता था , इसके बावजूद उसने कौरवपक्ष की व्यापक विजय के आकलन को लक्ष्य में लेने के बावजूद इस शक्ति का प्रयोग घटोत्कच के विरुद्ध किया ।

घटोत्कच मारा गया और अर्जुन अब अजेय बन गया । घटोत्कच की मृत्यु वास्तव में तो कर्ण की ही मृत्यु थी और कर्ण की मृत्यु का अर्थ था- कौरवपक्ष की पराजय । यहाँ भी लंबी अवधि के लाभ के मूल्य पर कम अवधि का हित सिद्ध किया गया था । जीवन में संघर्ष पैदा ही न हों , ऐसी कल्पना जीवन को न समझने जैसा भोलापन है । ऐसे संघर्षों का सहज स्वीकार करके , उसमें से हल ढूँढ़ना सिद्धि है , और इस सिद्धि को प्राप्त करने के लिए महाभारत मार्गदर्शक रेखाएँ हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है ।


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