जिन्दगी पंथ है मंजिल की तरफ जाने का।

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जिन्दगी पंथ है मंजिल की तरफ जाने का।


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इन दोनों शब्दों से ऊपर का एक शब्द है वह है आनंद आनंद भीतर से होता है उसका संबंध हमारी इन्द्रिय चेतना से नहीं वह   हमारी अन्नस चेतना से स्फूर्त होता है। आनंद शब्द की संरचना संस्कृत की नंद अ उपसर्ग लगाने पर हुई। इसका मतलब है हर   स्थिति में प्रसन्न रहना, संतुष्ट रहना, आनंदित रहना, मग्न रहना, लीन रहना, वो आनंद है जो व्यक्ति अनुकूलता में सुखी होता है

निश्चित तौर पर वह प्रतिकूलता में दुखी होगा और

जो व्यक्ति ऐसे अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंगों में सुखी और दुखी होता रहेगा उस व्यक्ति का जीवन सदैव द्वन्द और दुविधा से ग्रसित रहेगा।

लेकिन जीवन की एक तीसरी भूमिका भी दोनों स्थितियों में भी तटस्थ रहता है न अनुकूलता में ज्यादा खुशी होती है और न प्रतिकूलता में ज्यादा तकलीफ होती है,

यह सुख और दुख दोनों में समभाव रखकर परम संतोष के साथ जीवन जीता है। वस्तुतः जीवन जीने की कला उसी को प्राप्त है जो हर हाल में मस्त और संतुष्ट होकर जीने का अभ्यासी है। हमारी संस्कृति हमें हमारे जीवन का वो मार्ग देती है जो ये बताती है कि आज तुम सुख और दुख को जो भोग रहे हो वो तुम्हारे अपने अज्ञान की परिणति है।

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तुम संसार में रह रहे हो, संसार को कोसते हुए मत जियो संसार में रह रहे हो तो संसार में आनंदित होकर के जियो संसार में जीने वाले लोग अपने बाहर की प्रतिकूलताओं के कारण अनेक प्रकार की निराशा, हताशा और तनाव से ग्रस्त हैं। लोगों का जीवन बोझिल बना हुआ है। संत कहते है जीवन को बनाकर मत जो अपने जीवन को आनंद की यात्रा बनाओ।

अपने संपूर्ण जीवन को आनंद की यात्रा बनाकर  जिया जा सकता है यदि व्यक्ति को जीने की कला प्राप्त हो तो किसी भी व्यक्ति से बात की जाये, यह कहता है कि मेरा जीवन इस कारण से दुखी है, मेरा जीवन उस कारण से दुखी है। हर व्यक्ति के अपने-अपने दुख हैं और दुखों का अलग-अलग रोना। लेकिन यदि संसार के सभी व्यक्तियों के दुखों का हम विश्लेषण करें तो हम कि सारे दुख मनुष्य के अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं।

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एक अज्ञानी व्यक्ति जिन स्थितियों में दुखी होता है, ज्ञानी व्यक्ति उन्हीं स्थितियों में प्रसन्नता से जीता है और यही हमारे जीवन का सबसे बड़ी कला है। यदि व्यक्ति को तत्वज्ञान हो जीवन की वास्तविकता का बोध हो जाये जिससे उसे मालूम पड़ जाये कि संसार की सारी व्यवस्थायें मेरी इच्छाओं के अनुरूप नहीं बरतती मुझे अपने आपको व्यवस्थाओं के अनुरूप एडजस्ट करने की कला पर सीखने की जरूरत है जो व्यवस्थाओं में एडजस्ट होने की कला प्राप्त कर लेता है उसके जीवन में सदैव प्रसन्नता का लहर उत्पन्न होती है।

जो इस जीवन की व्यवस्था को नहीं समझ पाता है वो व्यक्ति सदा दुखी बना रहता है। हमारे जीवन के जितने भी दुख से सब अज्ञान से प्रेरित है। देखें हर के अपने-अपने दुख हैं, लेकिन संसारी व्यक्ति के दुखों का जब हम अतिविश्रेसण करते हैं कि संसार के प्राणियों के दुखों की केवल चार जातियां हैं। पहला है, कल्पना जन्य दुख, दूसरा है, अभाव दुख, तीसरा है, वियोग जन्य दुख और चौथा है, परिस्थिति जन्य दुख।

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