नास्ति तत्वं गुरोः परम् । आध्यात्मिक ज्ञान

Spread the love

नास्ति तत्वं गुरोः परम् । 

शिष्य का यह कर्तव्य होता है कि गुरुसेवा में अपना सर्वस्व लुटा दे । गुरु का स्वभाव ही होता है कि वह संप्राप्त आध्यात्मिक पूँजी का अपना संपूर्ण कोष शिष्य के हृदय में उड़ेल दे । इसके बावजूद भी उसकी पूँजी में कोई अभाव नहीं आ पाता । जिस शिष्य में गुरु के प्रति अनन्य भाव नहीं जागता वह शिष्य आवारा पशु के समान ही रह जाता है । उसकी हालत धोबी के कुत्ते जैसी है , न घर का न घाट का । उसके मन को पूर्ण विकसित हो पाने का अवसर नहीं मिलता । अधिक भटकने से उसका मन नास्तिक भाव में जाता है और वह खिन्नता अनुभव करने लगता है ।
पर जिसे सद्गुरु मिल गए हैं और जो सशिष्य बन सका है उसके लिए परमात्मा के प्रेमप्रभाव का झरना फूट निकलता है । गुरुकृपा , गुरुप्रसादी जब हृदय में प्रविष्ट होती है तब- अ … हा … हा … !! गुरुप्रसादी क्या वस्तु होती है यह यदि जानना हो तो किसी गुरुभक्त के हृदय में झांककर देखिए , गुरुप्रसाद का स्वाद क्या होता है यह यदि जानना हो तो किसी सत्शिष्य के हृदय में झांककर देखिए , तब आपको पता चलेगा । देवतागण तो उस अमृत से वंचित रहते हैं जो अमृत गुरुभक्त को मिलता है । जिसे गुरुभक्त गुरुभक्ति से संप्राप्त कर पीता है । उस अमृत से योगीजन भी वंचित रहते हैं । कर्मी | इस अमृत से बहुत दूर रह जाते हैं । कर्मी
कर्मकांड की शुद्धि में तो लगे रहते हैं परंतु हृदय की शुद्धि परम भाव से प्राप्त होती है , भाव के बिना वह संभव नहीं है । उससे वे वंचित रह जाते हैं । तीर्थों में स्नान करने से एक फल मिलता है परंतु यदि कोई गुरुभक्त मिल जाए और उसके सान्निध्य में रहें तो चार फल मिलते हैं । गुरुभक्त के सान्निध्य मात्र से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ये चारों के दरवाजे खुल जाते हैं । किसी गुरुभक्त से मित्रता करके देखिए । वह आपको धर्म के मार्ग पर ले जाएगा ।
उसका स्वभाव ही होता है कि वह आपको धार्मिक बनाकर ही छोड़ेगा । आपको ढूंठ नास्तिक न रहने देगा । सच्चा गुरुभक्त आपको मिले तो धर्म का द्वार ही खोल दे । सच्चा गुरुभक्त ही संतत्व को प्राप्त होता है । संतो जैसा वेश बनाकर बैठ जानेवाले संतत्व को प्राप्त नहीं होते ।

तीरथ नहाए एक फल , संत मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनंत फल , कहे कबीर विचार ||


ऐसे कोई संत मिल जाएँ … ! ऐसे गुरुभक्त मिल जाएँ … ! तो ? हमें समझ में आएगा कि हम अब तक तो धुंआ ही चाट रहे थे , पानी बिलो रहे थे मक्खन निकलेगा , हीरों की धुन में पत्थर चुनकर लादे व्यर्थ का भार उठाए फिर रहे थे । ऐसे किसी विरले से भेंट होते ही कर्मकांडियों के तो होश ही उड़ जाएंगे । परमहंस रामकृष्णदेव की परीक्षा लेने एक पंडित आए । रामकृष्ण की मस्ती देखकर वे तो चकित हो उठे , उनका ईश्वरीय आनंद देखकर वापस लौटते हुए उन्होंने रामकृष्णजी के शिष्यों से गदगदकंठ होकर कहा : ‘ गाड़ियाँ भरी जा सके इतने ग्रंथों का अध्ययन मैंने किया है पर आज जाना कि मैं तो व्यर्थ बोझ उठाए हूँ ।
अमृत तो आपके रामकृष्णजी पी रहे हैं और उनकी कृपाप्रसादी का स्वाद आप लोग पा रहे हैं । हम तो मस्तिष्क में बोझा भरे हुए पंडित हो गए हैं । ‘ पुस्तकें पढ़ – पढ़कर गुरु बन जाने में कोई सार नहीं । ऐसे निगुरे गुरुओं की कोई आवश्यकता नहीं । आजकल समाज में ऐसे पुस्तिका गुरुओं की बड़ी भारी भीड़ हो गई है ।
कोई सद्गुरु का प्यारा मिल जाए तो चारों पुरुषार्थ का द्वार खुल जाए । धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष के द्वारों का क्या मजाल है कि वे बंद रहें ? जब कोई सद्गुरु का प्यारा आपका हाथ पकड़ ले तो निश्चित जानिएगा कि आपके लिए धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष के द्वार बंद नहीं रह सकते । सत्शिष्य का सान्निध्य इतना लाभ पहुंचा सकता है और जब यह सत्शिष्य सद्गुरु बन जाता है तब उसमें अनंत फल देने की सामर्थ्य उद्भुत हो जाती है । ज्ञानेश्वर महाराज सत्शिष्य में से सद्गुरु बने थे ।
कबीर साहब सत्शिष्य में से सद्गुरु हो गए थे । इसी प्रकार नानकदेव तथा विवेकानंद सत्शिष्य में से सद्गुरु हुए थे । सशिष्यों की पावन कथाएँ अपने हृदय को जितना पावन करती हैं , हमें जितना पुण्य प्रदान करती हैं इतना पुण्य तो गंगास्नान से भी नहीं मिलता । सद्गुरुओं और सत्शिष्यों की चर्चा हमें जितना अमृत पिला सकती है इतना अमृत पिलाने की शक्ति स्वर्ग के घड़े में कहाँ है ? स्वर्ग का सुख और स्वर्ग का अमृत ऐसा कहाँ है ? सत्शिष्यों और सद्गुरुओं की गाथाएँ सुनने से , समझने से जो रस मिलता है , अमृत बरसता है वह स्वर्ग के अमृत को लज्जित कर देता है ।
स्वर्ग का अमृत यहाँ आकर निरर्थक सिद्ध होता है । देवताओं के अमृत को तुच्छ सिद्ध करने की सामर्थ्य सद्गुरु और सत्शिष्य की गाथाओं में समाई हुई है । जिनका हृदय सद्गुरु के श्रीचरणों में द्रवित हो चुका है , जिनके हृदय में सद्गुरु प्रविष्ट हो गए हैं वे लोग सद्भागी हैं । वे उस प्राप्ति में पागल हैं ।
पागल अर्थात् – जिन्होंने ‘ गल ‘ को पा लिया , इस अटकल को पा लिया है कि मस्ती कैसी ली जाती है , जिन्होंने इस बात को समझ लिया है कि अमृत कैसे लूटा जाता है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *