जानें , किस भ्रम में हैं हम ?
जानें , किस भ्रम में हैं हम ?
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प्रमाण वृत्ति के तीनों स्रोतों से साक्षात्कार करने के उपरांत समधिपाद के आठवें सूत्र में महर्षि ने दूसरी वृत्ति का खुलासा किया है । वह कहते हैं
विपर्ययो मिथ्या ज्ञानमतद्रूप प्रतिष्ठिम् ॥१८ ॥
यानि कि विपर्यय एक मिथ्या ज्ञान है , जो विषय से उस तरह मेल नहीं खाती , जैसा वह है । शास्त्रकारों ने विपर्यय को असत् ज्ञान कहा है । यानि कि किसी वस्तु , व्यक्ति या विचार के बारे में झूठी धारणा है । इसे चित्त की भ्रमित स्थिति भी कह सकते हैं । मजे की बात यह है कि ऐसी स्थिति हममें से किसी एक की नहीं है , बल्कि प्रायः हम सबकी है । जीवन के किसी न किसी कोने में हम सभी भ्रमित हैं । सच यही है कि हम तथ्य को जाने , सत्य को अनुभव करें , उसके पहले ही उस विषय या वस्तु के बारे में अनगिन धारणाएँ ‘ बना लेते हैं ।
कई बार तो ये धारणाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है । उस धारणा से सम्बन्धित असत् ज्ञान को जिस – किसी तरह निभाया जाता है । परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि व्यक्ति अकेला नहीं , परिवार और समाज भी असत् ज्ञान कि विपर्यय के भारी बोझ से लदे हैं । उसे ढोए जा रहे हैं । इस बारे में वह एक बड़ी रोचक कथा सुनाते थे । यह कथा प्रसंग एक ग्रामीण परिवार का था । इस परिवार में एक परम्परा थी कि शादी – विवाह के समय परिवार के लोग एक बिल्ली को पकड़कर एक टोकरी के नीचे ढक देते । शादी – विवाह का आयोजन चलता रहता । इसमें कई दिन बीत जाते । तब तक प्रायः बिल्ली मर जाती । बाद में उसे फेंक दिया जाता । ग्रामीण परिवार में यह प्रथा सालों से नहीं , पीढ़ियों से चल रही थी । कभी किसी ने इस प्रथा से जुड़ी धारणा के बारे में खोज – बीन करने की कोशिश नहीं की ।
उस परिवार के लोगों का ध्यान ज्यादातर इस बात पर टिका रहता था कि घर में जब भी कोई शादी हो , तब एक बिल्ली को टोकरी के नीचे रख देना है । फिर जब सारा आयोजन समाप्त हो जाय , तो उस मरी हुई बिल्ली को कहीं फेंक देना है । परिवार की नयी पीढ़ी के लोग जिसने भी इस प्रथा के औचित्य को जानने की कोशिश की उसे झिड़क दिया गया । घर के बड़े – बूढ़ों ने उन्हें धमकाया , घर से बाहर निकाल देने की धमकी दी । और कहा कि बुजुर्गों की बातों पर सवाल उठाते हो ? बस , इतना जान लो कि शादी के समय ऐसा करना शुभ होता है । बिल्ली को मार देने से भला शुभ का क्या सम्बन्ध है ? इस सवाल का उत्तर किसी ने भी न दिया । लेकिन परिवार के एक नवयुवक से रहा न गया । उसने बात की जड़ में जाने की ठान ली । उसने परिवार की पुरानी डायरियों को पलटा । गाँव के बड़े – बुजुर्गों से बात की । अंत में उसे सच्चाई का पता चला ।
सच्चाई यह थी कि सालों पहले पुरानी पीढ़ी में एक लड़की की शादी थी । सभी लोग शादी के काम में जुटे थे । घर में पालतू बिल्ली थी , जो इधर – उधर दौड़कर जब – तब चीज – सामानों को गिरा रही थी । गृहस्वामिनी उसके इस व्यवहार से परेशान हो गयी । अन्त में उसने उस बिल्ली को एक टोकरी के नीचे ढक दिया । काम – काज की व्यस्तता में वह उसे भूल गयी । शादी के बाद जब याद आयी , तो उसे टोकरी से निकाला , लेकिन तब तक बिल्ली मर चुकी थी । बड़े ही दुःखी मन से उसे बिल्ली को फेंकना पड़ा । इस सत्य ज्ञान को जानते ही असत् ज्ञान अपने आप ही खत्म हो गया । उस घर के लोगों को जब इस सच्चाई का पता चला , तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ । गुरुदेव कहते थे समाज और परिवार परम्पराओं , रूढ़ियों के नाम पर ऐसे असत् ज्ञान का विपर्यय का बोझ ढोए जा रहे हैं । समाज ही क्यों व्यक्ति के रूप में हमारी अपनी जीवन शैली भी विपर्यय से घिरी है । अनगिनत मिथ्या धारणाएँ हमें घेरे हैं । इनके कारण हमारी जीवन ऊर्जा बरबाद हो रही है । रस्सी को साँप समझकर हम डरे हुए हैं । रेगिस्तान की
तपती रेत में पानी के भ्रम से भ्रमित होकर लोभ के कारण भाग रहे हैं । कहीं हमें भय सता रहा है , तो कहीं लोभ । जबकि दोनों ही औचित्यहीन हैं । मिथ्या धारणाओं से ग्रसित मन जो प्रक्षेपित करता है , उसी को सच समझ लेते हैं । हमारे पूर्वाग्रह , दुराग्रह से भरी हुई धारणाएँ हमारी जानने की शक्ति को ढके हुए हैं । साधक वही है , जिसकी निगाहों में ताजगी हो । जो क्षण प्रतिक्षण मन – अन्तःकरण पर जमने वाली धूल – मिट्टी को हटाता रहे । अतीत के हर पल को मिटने दे और सच्चा सत्यान्वेषी हो ।
परम पूज्य गुरुदेव के अनुसार विपर्यय है तो मिथ्या ज्ञान । सामान्यतया इसे साधना के लिए बाधा ही समझा जाता है । पर यदि साधक समझदार हो , तो इसे भी अपनी साधना बना सकता है । भ्रम में समझदारी पैदा हो जाय । भ्रमित करने वाली वस्तु , विषय या विचार के प्रति जागृति हो जाय , तो भ्रम अपने आप ही टूट जाते हैं । साधकों ने यदि गुरुदेव की पुस्तक ‘ मैं क्या हूँ ? ‘ पढ़ी होगी , तो इस तत्त्व को और गहराई से समझ सकते हैं । यदि किसी ने यह पुस्तक अब तक न पढ़ी हो , तो उसे अवश्य पढ़ना चाहिए । क्योंकि प्रकारान्तर से इसमें विपर्यय को साधना विधि बनाने की तकनीक है । और वह साधनाविधि विपर्यय के प्रति सचेत होना , जागरूक होना । उसे परत – दर – परत उद्घाटित करना मैं क्या हूँ ? इस गहन जिज्ञासा के साथ ही विपर्यय की परतें उघड़ने लगती हैं ।
इस क्रम में पहले अपने को देह मानने का असत् ज्ञान टूटता है । फिर टूटता है अपने को प्राण मानने का परिचय । इसके बाद मन की मान्यता समाप्त होती है । फिर बुद्धि का तर्कजाल भी समाप्त होता है । अन्त में निदिध्यासन का यह क्रम भाव समाधि का स्वरूप लेता है और पता चलता है- आत्मा का परिचय । होता ‘ अयमात्मा ब्रह्म ‘ का प्रगाढ़ बोध । जीवन के सारे विपर्यय समाप्त होते हैं । असत् का अँधेरा मिटकर सत् का प्रकाश होता है । यह सब होता है विपर्यय के सत्य और तत्त्व को सही तरह से जानने पर । क्षण – प्रतिक्षण अपने ऊपर से मिथ्या धारणाओं के आवरण को हटाने
पर । इस तरह क्लिष्ट कही जाने वाली विपर्यय वृत्ति भी अक्लिष्ट हो सकती है । बस इसके लिए साधकों में समझदारी भरी साधना होना चाहिए । उन्हें बस अपने जीवन शैली और जीवन तत्त्व दोनों ही आयामों में छाई हुई विपर्यय घटाओं के प्रति जागरूक होना पड़ेगा । तो आज और अभी से प्रारम्भ करें अपनी यह जागरूकता की ध्यान साधना ।