लोभ और प्रेम।आध्यात्मिक ज्ञान।
लोभ और प्रेम
रामचंद्र शुक्ल ने लोभ और प्रीति विषय में यही कहा कि किसी प्रकार का सुख या आराम देने वाली वस्तु के संबंध में मन की ऐसी स्थिति , जिसमें उस वस्तु के अभाव की भावना होते ही प्राप्ति , सानिध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जग पड़े तो उसे लोभ कहते हैं । किसी विशिष्ट वस्तु या व्यक्ति के प्रति होने पर लोभ वह सात्विक रूप प्राप्त करता है , जिसे प्रीति या प्रेम कहते है । जब तक लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है , तब तक वह लोभ ही रहता है । वहीं जब वह किसी जाति के एक ही विशेष व्यक्ति के प्रति होता है , वहां रुचि या प्रीति का पद प्राप्त करता है ।
वास्तव में दूसरे की वस्तु का लोभ करके लोग उसे लेना चाहते है । अपनी वस्तु का लोभ करके लोग उसे देना या नष्ट होने नहीं देना चाहते । लोभ किसी भी वस्तु से हो सकता है , किंतु प्रेम किसी एक या विशिष्ट के साथ ही होता है । अर्थात व्यक्ति का एक के प्रति लगाव हो जाना ही प्रेम है । लोभ जहां किसी व्यक्ति के लिए नकारात्मक होता है वहीं प्रेम सकारात्मक माना जाता है । लोभ वश जीवन के समस्त कार्य और प्रयास केवल स्वहित साधने में ही लगे रहते है । लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता ।
यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक नहीं बने रहने देता । लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है । यह मनुष्य को सभी बुरे कार्यों में प्रवृत्त रखता है । इसलिए लोभ को नियंत्रण में रखना प्रत्येक मनुष्य के सफल जीवन के लिए आवश्यक नीति है । वहीं प्रेम से हम अपने जीवन को खुशहाल और सफल बना सकते है ।
करता था क्यों रहा , अब करि क्यों पछिताय ।
बोवै पेड़ बबूल का , आम कहां से खाय ॥
-कबीरदास मनुष्य को कोई भी काम करने से पूर्व सोच लेना चाहिए कि इसका परिणाम क्या होगा । कबीरदास कहते हैं कि हे मनुष्य ! जब तू काम कर रहा था , तब तूने क्यों न सोचा । अब कर्म करके पछताने से क्या लाभ ? जिसने बबूल का पेड़ बोया है , उसे आम के फल खाने को कैसे मिलेंगे ?
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जल • पीजै छानकर , छान वचन मुख बोल ।
दृष्टि छानकर पांव धर , छान मनोरथ तोल ॥ –
परसराम
पानी को छानकर ही पीना चाहिए , क्योंकि बिना छाने पानी को पीने से रोग होने के संभावना रहती है । मुख से वचन बोलते समय सोच. विचार कर लेना चाहिए । नीचे पैर रखने से पहले देख लेना चाहिए कि कहीं कोई कीड़ा या अन्य कोई चीज नीचे तो नहीं है । नीचा ऊंचा पांव पड़ने पर चोट भी लग सकती है । प्रकार सोच – समझकर जीवन का लक्ष्य निर्धारण करना चाहिए ।
सहज सुहृद गुरु स्वामि सिख , जोन करई सिर मानि ।
सो पछताय अघाय उर , अवसि होय हित हानि ॥ –
तुलसीदास
जो मनुष्य अच्छे मित्र , गुरु और स्वामी की सीख के अनुसार काम नहीं करता , उसे बाद में हृदय से पछताना पड़ता है और उसके हित की अवश्य ही हानि होती है । अतएव बुद्धिमान मनुष्य को सदा अपने शुभचिंतक मित्र , कृपालु गुरु तथा पालन – पोषण करने वाले स्वामी का सम्मान करना चाहिए । ऐसा करने से उसका भला ही होता है ।
तरुवर फल नहिं खात है , सरवर पियहिं न पान ।
कहि ‘ रहीम ‘ पर कारज हित , संपत्ति संचहि सुजान ।
-रहीम
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कवि रहीम कहते हैं कि वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते । तालाब भी अपने पानी को स्वयं नहीं पीता । इसी प्रकार अच्छे लोग अपनी संपत्ति का स्वयं प्रयोग न करके परोपकार में लगाते हैं ।
कलह न जानव छोट करि , कलह कठिन परिनाम ।
लगत अगिनि लघु नीच गृह , जरत धनिक धन धाम ॥ –
कलह से बड़े – बड़े अनिष्ट होने की संभावना रहती है । कलह को छोटी बात नहीं मानना चाहिए क्योंकि इसका परिणाम बहुत भयंकर होता है । जैसे गरीब की छोटी – सी झोपड़ी में लगी आग से उसके निकटस्थ बड़े – बड़े धनियों के धन – धाम जल जाते हैं ।