धार्मिक आचरण आध्यात्मिक ज्ञान।

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धार्मिक आचरण 

पोथी पढ़कर कोई विद्वान नहीं हो सकता है । लोग कहते हैं कि इस अर्थ में विद्या क्या है ? ‘ सां विद्या या विमुक्तये । ‘ दरअसल विद्या उसी को कहते हैं , जिसके द्वारा हमें विमुक्ति मिलती है । यह विमुक्ति क्या है ? मुक्ति है बंधन से छुटकारा मिलना । किंतु एक बार बंधन से छुटकारा मिल जाए , लेकिन दोबारा भी तो बंधन हो सकता है । एक बार बंधन से छुटकारा हो गया और दोबारा बंधन की संभावना नहीं रह जाती है तो वह जो विशेष प्रकार की मुक्ति हुई , उसी को विमुक्ति कहते हैं ।
मनुष्य को जिसके द्वारा विमुक्ति मिलती है उसी को विद्या कहते हैं । ऐसी विद्या जिनमें है वही विद्वान हैं । इनका आचरण धार्मिक होता है । आदर्श व्यवहार का प्रचार करना जैसे एक साधक का काम है , वैसे ही खुद पवित्र बनना और दूसरों को भी पवित्र बनाना , स्वयं धार्मिक बनना और दूसरों को धार्मिक बनाना भी एक साधक का काम है । कहते हैं , ‘ आत्ममोक्षार्थम् जगत्हिताय च । ‘ 
हम खुद सत् बन गए , उससे काम नहीं चलेगा , हमें समाज को भी सत् बनाना होगा । हम खुद साफ – सुथरा रहते हैं , वह यथेष्ट नहीं है । महामारी के समय मान लें कि हमारा घर साफ – सुथरा है । हम खूब स्नान करते हैं । किंतु हम जिस बस्ती में रहते हैं , वह एकदम गंदी है तो उस दशा में हम भी उस महामारी से नहीं बच पाएंगे । क्योंकि हमारा वातावरण ही खराब है । इसी तरह हम खुद धार्मिक बन गए और हमारे पड़ोस , परिवार के अन्य लोग पापी रह गए तो फिर हम भी पापाचार से नहीं बच पाएंगे , क्योंकि उनका असर हम पर पड़ेगा

यथा दृष्टि तथा सृष्टि।

पाण्डवों और कौरवों को शस्त्र शिक्षा देते हुए आचार्य द्रोण के मन में उनकी परीक्षा लेने की बात उभर आई।
परीक्षा कैसे और किन विषयों में ली जाए इस पर विचार करते उन्हें एक बात सूझी कि क्यों न इनकी वैचारिक प्रगति और व्यावहारिकता की परीक्षा ली जाए।
दूसरे दिन प्रातः आचार्य ने राजकुमार दुर्योधन को अपने पास बुलाया और कहा- ‘वत्स! तुम समाज में से एक अच्छे आदमी की परख करके उसे मेरे सामने उपस्थित करो।’
दुर्योधन ने कहा- ‘जैसी आपकी इच्छा’ और वह अच्छे आदमी की खोज में निकल पड़ा।
कुछ दिनों बाद दुर्योधन वापस आचार्य के पास आया और कहने लगा- ‘मैंने कई नगरों, गांवों का भ्रमण किया परंतु कहीं कोई अच्छा आदमी नहीं मिला।’
फिर उन्होंने राजकुमार युधिष्ठिर को अपने पास बुलाया और कहा- ‘बेटा! इस पृथ्वी पर से कोई बुरा आदमी ढूंढ कर ला दो।’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘ठीक है गुरू जी! मैं कोशिश करता हूं।’
इतना कहने के बाद वे बुरे आदमी की खोज में चल दिए। काफी दिनों के बाद युधिष्ठिर आचार्य के पास आए।
आचार्य ने पूछा- ‘क्यों? किसी बुरे आदमी को साथ लाए?’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘गुरू जी! मैंने सर्वत्र बुरे आदमी की खोज की परंतु मुझे कोई बुरा आदमी मिला ही नहीं। इस कारण मैं खाली हाथ लौट आया हूं।’
सभी शिष्यों ने आचार्य से पूछा- ‘गुरुवर! ऐसा क्यों हुआ कि दुर्योधन को कोई अच्छा आदमी नहीं मिला और युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी नही*
आचार्य बोलें-बेटा जो व्यक्ति जैसा होता है उसे सारे लोग वैसे ही नजर आते है। इसीलिये दुर्योधन को कोई अच्छा आदमी नहीं मिला और युधिष्ठिर को कोई बुरा आदमी नही मिल सका।*

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