राम और नामी की महिमा भाग 2
भायँ कुभाय कुभायँ अनख आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ ।
सादर सुमिरन जे नर करहीं ।
भव बारिधि गोपद इव तरहीं ।
किसी तरहसे नाम लिया जाय , वह फायदा करेगा ही । पर जो आदरके सहित नाम लेता है ; गहरी रीतिसे , भीतरके भावसे , प्रेमसे नाम लेता है उसका भगवान्पर विशेष असर पड़ता है । जैसे , गीली मिट्टीमें गौका पैर रखा हुआ हो और उसमें जल भरा हो तो उसको पार करनेमें क्या जोर आता है ? इधर – से – उधर पैर रखा और पार हुए । भगवन्नामका आदरसहित जप करनेवाला गो – पदकी तरह संसार समुद्रको तर जाता है ।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी ।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी ॥
‘ नाम और रूप – दोनों ईश्वरकी उपाधि हैं ; भगवान्के नाम और रूप – दोनों अनिर्वचनीय हैं , अनादि हैं । सुन्दर ( शुद्ध भक्तियुक्त ) बुद्धिसे ही इनका दिव्य अविनाशी स्वरूप जाननेमें आता है । ‘ भगवान्का स्वरूप और भगवान्का नाम -ये दोनों उनकी उपाधियाँ हैं । नामका चिन्तन करो चाहे स्वरूप – चिन्तन करो , दोनों ही भगवान्को खींचनेवाले हैं । योगदर्शनमें भी आया है।
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ‘ -ऐसे ईश्वरके उसके नामका जप करना और उसके स्वरूपका स्मरण – चिन्तन करना । भगवान्के नामका जप करनेवालेको स्वाभाविक ही भगवान् प्यारे लगते मिश्री मीठी लगने लग जायगी । ऐसे ही भगवान्का नाम मीठा न लगे तो लक्षण बताये ।
‘तस्य वाचकः प्रणवः ‘ और ‘ तज्जपस्तदर्थभावनम् ‘ हैं । क्यों प्यारे लगते हैं ? प्रभु हमारे हैं इसलिये प्यारे लगते हैं । उनके नामका जप और उनके स्वरूपका स्मरण करना चाहिये ।
‘ अकथ अनादि सुसामुझि साधी ‘ –भगवान् और भगवान्के नामकी महिमा कोई कह नहीं सकता । ये दोनों अनिर्वचनीय हैं , इस कारण कोई इनका कथन नहीं कर सकता । ‘ रामु न सकहिं नाम गुन गाई – रामजी खुद भी अपने नामकी महिमा नहीं गा सकते , फिर दूसरा क्या कह सकता है ? नामकी महिमा कबसे चली , कबसे आरम्भ हुई ? तो कहते हैं भगवानका नाम और नामकी महिमा सदासे है । जैसे भगवान् अनादि हैं , ऐसे उनके नामकी महिमा भी अनादि है ।
श्रेष्ठ बुद्धिसे अच्छी तरह समझकर उनकी सिद्धि की जाती है । भगवान्को और उनके नामको गहरा उतरकर समझना चाहिये । गहरा उतरना क्या है ? जैसे , भोजन कैसा है ? उसका भोजन करनेसे पता लगता है । ऐसे ही नाम – जपमें गहरा उतरकर ठीक तरहसे लग जायँ , तब इसका पता लगता है कि इसमें कितना रस भरा हुआ है ! श्रेष्ठ – बुद्धिके बिना इसमें प्रवेश सम्भव नहीं है ।
मलिन बुद्धिवालेका भगवान्में प्रेम नहीं होता । उसे भगवान्के नाममें रस नहीं आता । जब नाममें रुचि न हो , अच्छा न लगे तो समझना चाहिये कि भीतरमें कोई गड़बड़ी है । जैसे , जिस व्यक्तिको पित्तका बुखार हो , उसे मिश्री कड़वी लगती है तो क्या उपाय करें ? उसको मिश्री – ही – मिश्री खिलाओ । खाते – खाते जब पित्त शान्त हो जायगा फिर मिश्री मीठी लगने लग जाएगी पैसे कि भगवान का नाम मीठा ना लगे तो भी लिए जाओ नाम रूपी मिश्री में ऐसी शक्ति है कि मिठास पैदा हो जायगा ।
जहाँ पित्त शान्त हुआ कि मिठास आया । भगवान्का नाम किसी तरह लिये ही जाओ । फिर देखो , कितना विलक्षण आनन्द आता है । देखो भाई ! यह समय पूरा हो जायगा ऐसे ही । अगर भजन करना हो तो जल्दी कर लो । उमरका समय पूरा होनेके बाद फिर कोई वश नहीं चलेगा । जबतक यह श्वासरूपी धौंकनी चलती है , तभीतक ही भजन करके लाभ ले लो । ये श्वास पूरे हो जायेंगे फिर हाथमें कुछ भी नहीं रहेगा ।