ययाति की मांग आध्यात्मिक ज्ञान।
ययाति की मांग
शर्मिष्ठा असुरों के राजा विषपर्व की बेटी थी और देवयानी असुरों के गुरु शुक्र की बेटी थी । उन दोनों में ही गहन मित्रता थी । लेकिन एक दिन दोनों में डटकर लड़ाई हुई । तालाब में नहाने के बाद झटपट कपड़े पहनते हुए देवयानी ने भूल से शर्मिष्ठा के कपड़े पहन लिए । इससे क्रोधित होकर शर्मिष्ठा ने देवयानी को चोर और उसके पिता को भिखारी कह डाला । उसके बाद उसने देवयानी को कुएं में धकेल दिया और राजसी गुरुर में वापस लौट गई । देवयानी शाम को देर से घर लौटी और उसने अपने पिता से पूरी घटना की शिकायत की तथा फूट – फूट कर रोने लगी । अंततः उसके पिता को यह वायदा करना पड़ा कि वे असुर राजकुमारी को सबक सिखाएंगे । शुक्र ने कहा , ‘ अपनी पुत्री के दुर्व्यवहार के लिए राजा जब तक क्षमा नहीं मांगेंगे तब तक मैं उनके लिए कोई भी यज्ञ संचालित नहीं करूंगा । ‘ विषपर्व ने शुक्र से जिद छोड़कर यज्ञ फिर से आरंभ करने की याचना की क्योंकि उनके बिना वह अपने सनातन शत्रु , देवताओं के सामने कमजोर पड़ता था । शुक्र ने कहा , ‘ मैं शुरू कर दूंगा मगर उससे पहले आपको अपनी जहरबुझी जुबान वाली बेटी को दंडित करना पड़ेगा । शर्मिष्ठा को मेरी पुत्री की सेविका बना दीजिए तो मैं आपकी यज्ञशाला में वापस आ जाऊंगा । ‘
विषपर्व के सामने इसके लिए सहमत होने के अलावा कोई चारा नहीं था । इस प्रकार राजकुमारी शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बना दिया गया । यह अपमान भी हालांकि अंतत : उसके लिए वरदान ही साबित हुआ । घटना दरअसल कुछ ऐसे घटी कि शर्मिष्ठा द्वारा कुएं में धकेले जाने के बाद देवयानी को जिस पुरुष ने बचाया था वह चंद्रवंशी ययाति था । उसे बचाने के दौरान ययाति ने देवयानी को उसका हाथ पकड़कर बाहर खींचा था । इस पर देवयानी ने शास्त्रों का उल्लेख करते हुए ययाति से कहा , ‘ क्योंकि तुमने मुझ कुंआरी कन्या का हाथ थामा है , इसलिए तुम्हें , मुझे अपनी पत्नी के रूप में अंगीकार करना होगा । ‘ ययाति ने कहा , ‘ तो ठीक है , क्योंकि उसे भी शास्त्रों की पूरी जानकारी थी । वह शुक्र के आश्रम में आया और उनका आशीर्वाद प्राप्त करके देवयानी को अपने राज्य में नियमानुसार विवाहित पत्नी के रूप में ले गया । शर्मिष्ठा को और अपमानित करने की दृष्टि से देवयानी ने कहा , ‘ मेरी दासी को भी मेरे साथ ले जाने दें । ‘
ययाति का उत्तर था , ‘ जैसी आपकी इच्छा मेरी रानी ‘ शर्मिष्ठा के पास दासी के रूप में देवयानी की ससुराल जाने के अलावा कोई चारा नहीं था । एक दिन शर्मिष्ठा की नजरें ययाति से मिलीं । पहली ही नजर में दोनों को प्यार हो गया । देवयानी की तरह ऋषि रक्त की जगह शर्मिष्ठा की नसों में राजसी रक तथा राजा से मिलती जुलती भावनाएं थीं । ययाति इससे बहुत प्रसन्न हुआ । दोनों ने चुपचाप शादी की और बच्चे भी पैदा किए । देवयानी को इसका कोई भान नहीं था ; शर्मिष्ठा ने उसे यह भरोसा दिला दिया था कि उसका प्रेमी तो राजमहल का चौकीदार है । लेकिन देवयानी ने एक दिन शर्मिष्ठा के पुत्र को ययाति को पिता के रूप में संबोधित करते सुन लिया । यह पता चलते ही कि उसे , उसके पति तथा उसकी दासी दोनों ने ही धोखा दिया है , क्रोध में उबलती देवयानी राजमहल छोड़कर झटपट अपने पिता के घर लौट गई और उसकी जिद पर शुक्र ले फिर से उसके पति को सबक सिखाने का वचन दिया । शुक्र ने ययाति को शाप दे दिया , ‘ तुम बूढ़े और पौरुषहीन हो जाओगे । ‘ शाप का असर तत्काल हुआ । लेकिन शीय ही यह भी स्पष्ट हुआ कि शाप का सबसे अधिक नुकसान स्वयं देवयानी को हुआ । बूढ़ा और कमजोर पति किसी के लिए भी किसी काम का नहीं हो सकता ! इसके बावजूद शुक्र अपना शाप वापस नहीं ले सकते थे । वह अधिक से अधिक उसे संशोधित कर सकते थे । ‘ ययाति , तुम्हें तुम्हारा यौवन और पौरुष तभी वापस मिल सकता है जब तुम्हारा कोई पुत्र इस शाप को तुम्हारे बदले अपने ऊपर ओढ़ ले । ‘ ययाति ने तत्काल अपने पुत्र को बुलावा भेजा । देवयानी से पैदा हुए उसके ज्येष्ठ पुत्र यदु ने अपने पिता के बदले शाप ओढ़ने से इन्कार कर दिया । उसने पूछा , ‘ समय के प्रवाह को उलटना क्या धर्म विरुद्ध नहीं है ? बेटे को दुनिया से विमुख करना , जबकि ऐसा करना पिता की उम्र में उचित है ? ‘
ययाति ने उसके बाद शर्मिष्ठा से प्रसूत अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु से शाप ओढ़ने को कहा । पुरु इसके लिए राजी हो गया । इसके परिणामस्वरूप पुरु को बुढ़ापा झेलना पड़ा और उसका पिता फिर जवानी का आनंद उठाने लगा । वह खांसते , लड़खड़ाते छड़ी पकड़कर चलने लगा , जबकि ययाति अपनी पत्नियों को आलिंगनबद्ध करते हुए और आखेट पर जाने तथा युद्ध लड़ने में व्यस्त हो गया । अनेक वर्षों के उपरांत ययाति को जब यह भान हुआ कि जवानी और पौरुष मात्र से ही संतोष नहीं मिल सकता , उसने पुरु द्वारा ओढ़े गए अपने को लगे शाप से उसे मुक्त कर दिया । उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा का अवसर आने पर ययाति ने सबसे छोटा होने के बावजूद पुरु को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । ययाति ने इसका कारण बताया , ‘ क्योंकि उसने मेरे लिए कष्ट झेला ‘ ज्येष्ठ पुत्र होने के बावजूद यदु को न सिर्फ राजसिंहासन से हाथ धोना पड़ा बल्कि शाप भी झेलना पड़ा । ‘ तुमने क्योंकि अपने पिता के लिए कष्ट उठाने से इन्कार किया था इसलिए तुम ही नहीं बल्कि तुम्हारे वंशज भी कभी राजा नहीं बन पाएंगे । ‘ इससे व्यथित होकर यदु , ययाति का राज्य छोड़कर दक्षिण की यात्रा करते हुए मथुरा पहुंच गया जो नागों का राज्य था । वहां उसके रूप – रंग और आचार – व्यवहार से धूमवर्ण नामक जान बेहद प्रभावित हुआ । उसने यदु से कहा , ‘ मेरी बेटियों से विवाह कर लो । मेरे दामाद बन जाओ । मथुरा में ही बस जाओ । ‘ यदु राजी हो गया , क्योंकि मथुरा के नामों का कोई राजा नहीं था ; वे बुजुर्गों की परिषद द्वारा सहमति आधारित प्रणाली के माध्यम से शासित थे । उसे यह स्थिति बहुत अनुकूल लगी । अभिशप्त होने के कारण वह राजा नहीं बन सकता था । इसके बावजूद मथुरा में वह शासक बन सकता था । यदु ने धूम्रवर्ण की बेटियों से विवाह रवाया और उन्होंने उसके बच्चे पैदा किए जिनसे विभिन्न जनजातियां निकलीं , जैसे अंधक , भोजक तथा वृषणा यदु के यह वंशज सामूहिक रूप में यादव कहलाए । कृष्ण भी क्योंकि यादव वंश में पैदा हुए थे इसीलिए अन्य यादवों की तरह वे भी कभी राजा नहीं बन पाएंगे पर राजा बनाने में सहायक होंगे । पुरु बहुवर्वित कुरुवंश के पितामह बन गए । कौरव और पांडव भी उन्हीं के वंशज थे । ययाति के शाप ने ऐसे युद्ध के बीज बो दिए थे जो बहुत बाद में कुरुक्षेत्र में लड़ा जाएगा : क्योंकि उसके पीछे पीढ़ियों के स्वाभाविक प्रवाह के बजाय पुत्र की आज्ञाकारिता को अधिक महत्व दिया जाना था । इस घटना से प्रेरित होकर भीष्म भी अपने बूढ़े पिता को पुनर्विवाह के लिए योग्य बनाने के लिए अपने यौन जीवन का बलिदान कर देंगे ।