परोपकार के समान कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है।
परोपकार के समान कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है।
परोपकार ही श्रेष्ठ धर्म ।
स्वयं भगवान् राम कहते हैं कि दूसरोंकी भलाईके समान कोई धर्म नहीं है और दूसरोंको कष्ट पहुँचानेके समान कोई पाप नहीं है ३ )
भारतीय चिन्तन , दर्शन एवं साहित्यमें परोपकार , हैं । परहित तथा लोक – कल्याण – जैसी धारणाओंको बहुत महत्त्व दिया गया है । सभी उपनिषदों , पुराणों एवं अन्य ग्रन्थोंका सार परोपकार ही है । संसारमें श्रेष्ठ धर्म परहित ही है । आदिकाव्य ‘ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण ‘ का स्रोत परपीड़ासे उत्पन्न करुणाकी अनुभूति ही है । श्रीमद्भगवद्गीता ‘ में तो सभी प्राणियोंके कल्याणकी कामनामें निरत रहनेको कहा गया है— ‘ सर्वभूतहिते रताः । ‘
अठारह पुराणोंका सार यही है कि परोपकार ही पुण्य है और परपीड़न ही पाप है
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् ।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि जिस मनुष्यके हृदयमें परोपकार बसा हुआ है , वहाँ विपत्ति आ ही नहीं सकती , वहाँ तो नित्यप्रति समृद्धि ही आती है
परोपकरणं येषां जागर्ति हृदये सताम् ।
स नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदःस्युः पदे पदे ॥
( चा ० नी ० दर्पण १७।१५ )
भर्तृहरिने कहा है कि इस पृथ्वीपर परोपकारसे बड़ा कोई
पुण्य नहीं है
तथाप्येतद्भूमौ नहि परहितात्पुण्यमधिकं ।
( शृंगारशतक ४७ )
महाकवि माघ कहते हैं कि सज्जन , स्वभावसे ही सदा सब प्राणियोंका उपकार करनेमें लगे रहते हैं
उपकारपरः स्वभावतः सततं सर्वजनस्य सज्जनः ।
( शिशुपालवध १६ । २२ )
विद्यापति कहते हैं कि सज्जन पुरुष सदैव परोपकार करते है
भल जन करथि परक उपकार ।
( पदावली ३२१।५ )
भक्तिकालके समस्त काव्यमें पीड़ाका अनुभूत केन्द्र ‘ स्व ‘ न होकर ‘ पर ‘ है । कबीर , नानक , दादू , रैदास , जाम्भोजी आदि महान् संत अत्यन्त संवेदनशील रहे हैं और वे पशु – पक्षी , पेड़ – पौधों आदि तककी पीड़ाको समझते रहे कोई पुण्य नहीं है करते हैं
हैं । परायी पीड़ाकी अनुभूति ही वैष्णवता मानी गयी है । संत नरसी मेहता कहते हैं
वैष्णव जन तो तेने कहिये , जे पीड पराई जाणे रे ।
संत मलूकदास कहते हैं कि दूसरोंकी पीड़ाको अपनी पीड़ा मानना ही धार्मिकताकी कसौटी है
मलूका सोई पीर है , जो जाने पर पीर ।
जो पर पीर न जानही , सो काफिर बे – पीर ।
कवि मंझन कहते हैं कि जो दूसरोंकी भलाईके लिये कष्ट सहते हैं , वे ही मनुष्य कहलानेके योग्य हैं
मैं बलि बलि तिन्ह परसे पैरा । पर दुख दुखी हिया जिन्ह केरा ॥
कारन आपु दुखी संभ होई । पर दुख दुखी सो बिरुला कोई ॥
पर सुख लागि जे दुख सहहिं , गनिय ते जन संसार ।
( मधुमालती ३७५ / ४-५ , ७ )
परोपकार ही श्रेष्ठ धर्म – तुलसीदासजी परोपकारको ही श्रेष्ठ धर्म मानते हैं । वे कहते हैं कि कीर्ति , कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है , जो गङ्गाकी भाँति सबका हित करनेवाली हो )
कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई ॥
( रा ० च ० मा ० १ । १४।९ )
स्वयं भगवान् राम कहते हैं कि दूसरोंकी भलाईके समान कोई धर्म नहीं है और दूसरोंको कष्ट पहुँचानेके समान कोई पाप नहीं है ३ )
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर । कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर ॥
( रा ० च ० मा ० ७ । ४१।१-२ )
इसीलिये गोस्वामीजीने दूसरोंके हितको हानि पहुँचाने वालेको दुष्टकी संज्ञासे अभिहित किया है
बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ । जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ ।
पर हित हानि लाभ जिन्ह करें । उजरें हरष बिषाद बसेरें ।
( रा ० च ० मा ० १।४।१-२ ) ५ )
, ( ख ) परोपकारी व्यक्ति ही ‘ परम बड़भागी – श्रीरामचरितमानसमें ‘ बड़भागी ‘ ( सौभाग्यशाली ) शब्दका प्रयोग विशेषणके रूपमें अनेक बार हुआ है । विशेषतः इसका प्रयोग भगवान्के प्रेमी भक्तों , सगुण भक्तों , अंगद
और हनुमान् – जैसे दास्य भक्तों तथा काकभुशुण्डि – जैसे भक्तिकी याचना करनेवाले भक्तोंके लिये हुआ है
सोइ गुनग्य सोई बड़भागी । जो रघुबीर चरन अनुरागी ।
( रा ० च ० मा ० ४ । २३ । ७ )
हम सब सेवक अति बड़भागी संतत सगुन ब्रह्म अनुरागी ।
( रा ० च ० मा ० ४ । २६ । १३ )
बड़भागी अंगद हनुमाना । चरन कमल चापत बिधि नाना ॥
( रा ० च ० मा ० ६ । ११ । ७ )
सब सुख खानि भगति तैं मागी । नहिं जग कोउ तोहि सम बड़भागी ।
( रा ० च ० मा ० ७ । ८५१३ )
दूसरी ओर ‘ अतिशय बड़भागी ‘ शब्दका प्रयोग श्रीराम चरितमानसमें केवल एक ही बार अहल्याके लिये हुआ है-
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही ॥
( रा ० च ० मा ० १ । २११ , छं ० )
परंतु श्रीरामचरितमानसमें परमार्थके लिये प्राणोत्सर्ग करनेवाले जटायुके लिये ‘ बड़भागी ‘ शब्दके चरम रूप ‘ परम बड़भागी ‘ शब्दका प्रयोग किया गया है
राम काज कारन तनु त्यागी । हरि पुर गयउ परम बड़भागी ।
( रा ० च ० मा ० ४ । २७।८ )
इस परमार्थ- भावनाके कारण रामने गीधको भी वह दुर्लभ गति प्रदान की , जिसकी याचना योगी जन भी करते हैं । स्वयं भगवान् राम कहते हैं कि जिनके हृदयमें परमार्थकी भावना रहती है , उनके लिये संसारमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
वस्तुतः परमार्थी व्यक्तिको कुछ भी प्राप्त करनेकी आवश्यकता नहीं रहती , क्योंकि वह पूर्णकाम हो जाता है—
परहित बस जिन्ह के मन माहीं । तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा । देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥
( रा ० च ० मा ० ३। ३१ । ९ -१० ) तु हि
इस प्रकार गोस्वामीजीने जटायुके परोपकारी व्यक्तित्व- को ‘ परम बड़भागी ‘ विशेषणसे गौरवान्वित किया है । यह ‘ परम बड़भागी ‘ विशेषण परोपकारकी विशाल भाव भूमिपर आधारित है ।
( ग ) परोपकार स्वयं स्फूर्त होना चाहिये – सच्चा परोपकारी व्यक्ति किसीकी याचनाकी प्रतीक्षा या अपेक्षा नहीं रखता । वह स्वभावतः ही परोपकार करता रहता है। भर्तृहरिने सत्य ही कहा है कि सूर्य बिना प्रार्थनाके ही
कमलको खिला देता है , चन्द्रमा कुमुदिनीको विकसित करता है और मेघ जल बरसाता है कि सत्पुरुषका परोपकार स्वयं स्फूर्त होता है—
पद्माकरं दिनकरो विकची करोति ॥
चन्द्रो विकासयति कैरवचक्रवालम् ।
नाभ्यर्थितो जलधरोऽपि जलं ददाति ||
संतः स्वयं परहितेसु कृताभियोगाः ॥
( नीतिशतक ७४ ) ॥
जटायु भी सीताके आर्तनादको सुनकर बलाढ्य रावणपर वज्रकी भाँति टूट पड़ा । उसने सीतासे सहायताकी याचनाकी प्रतीक्षा नहीं की । वस्तुतः उसका स्वभाव ही परमार्थ करनेका है । गोस्वामीजी कहते हैं कि परोपकारी व्यक्ति अपने सत्कर्मको तथा कपटी व्यक्ति अपने कपटको मृत्युपर्यन्त नहीं त्यागते हैं ।
जटायु सीताको छुड़ानेके प्रयत्नमें प्राणोत्सर्ग कर देता है और मारीच मरते समय भी रामके रूप से स्वरमें ‘ लक्ष्मण ‘ कहकर सीताको धोखा देता है ।
सुकृत न सुकृती परिहरइ कपट न कपटी नीच ।
मरत सिखावन देइ चले गीधराज मारीच ॥ ॥ ८ )
( दोहावली ३४१ )
( घ ) जगत् – हितके कार्य मोक्ष – विरोधी नहीं , मोक्षदायक –
तुलसीदासजीका समय भारतीय धर्म एवं संस्कृतिके लिये घोर संकटका काल था । उस समय भारतीय समाज जीवनके प्रति उदासीन हो गया था । उसके जीवनमें कर्मयोग तथा अन्य पुरुषार्थोंके लिये कोई स्थान नहीं था । इसके फलस्वरूप वह जीवनकी संघर्षमय चुनौतियोंका सामना करनेकी शक्ति निरन्तर खोता जा रहा था ।
ऐसे समयमें तुलसीदासजीने वेदान्तके मोक्षका समर्थन करते हुए जगत् हितायको पुनः नये परिप्रेक्ष्यमें स्थापित किया । उन्होंने बताया कि जगत् – हितायका सिद्धान्त मोक्षदायक एवं वेदसम्मत है
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥
पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसर्हि तेही ॥
( रा ० च ० मा ० १ । ८४।१-२ )
गोस्वामीजीने वेदान्तके इस स्वरूपको पहचाना और जटायुके प्रसंगके द्वारा जन – सामान्यका उद्बोधन किया । इस प्रकार उन्होंने भी परोपकारको सर्वोच्च धर्मके रूपमें प्रस्थापित किया ।
जय श्री राम
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