कर्ण और भरद्वाज के पुत्र द्रोण की कहानी।

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सूर्य पुत्र कर्ण और  भरद्वाज के पुत्र द्रोण की रोचक कहानी।

 

 



 

                     कर्ण 

 

कौरव पांडवों ने युद्ध विद्या कृपाचार्य और द्रोणाचार्य से सीखी थी । उनके युद्ध कौशल की जांच के लिए एक दिन निश्चित किया गया । उस दिन सभी ने अपने युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया । इस प्रदर्शन में अर्जुन ने बाजी मार ली । उसने धनुर्विद्या का ऐसा बढ़िया प्रदर्शन किया कि सभी चकित हो गए । 

 

सभी लोग अर्जुन की प्रशंसा करने लगे । इसी समय एक तेजस्वी युवक ने आगे बढ़कर कहा , ‘ मैं अर्जुन से बेहतर प्रदर्शन कर सकता हूं । ‘ द्रोणाचार्य ने उसे अपना कौशल दिखाने की अनुमति दी । उस युवक ने तत्काल अर्जुन से बेहतर धनुर्विद्या का प्रदर्शन कर दिया । उसके भव्य प्रदर्शन के बाद अर्जुन का प्रदर्शन फीका लगने लगा । 

 

 

दुर्योधन ने जो पांडवों से जलता था , उस युवक को गले लगा लिया । उसने कहा मैं और यह कुरु राज्य तुम्हारी सेवा को तत्पर हैं । उस युवक को देख दर्शक एक दूसरे से पूछने लगे कि यह युवक कौन है । लोगों की आवाज कर्ण तक भी पहुंची । उसने दुर्योधन से कहा , ” मैं कर्ण हूं । 

 

मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूं और अर्जुन के साथ मेरी द्वंद युद्ध करने की इच्छा है । ” कर्ण की गर्वोक्ति और चुनौती सुनकर अर्जुन को क्रोध आ गया । उसने कहा , ‘ “ अरे कर्ण , मैं तुझे अभी रसातल को भेजता हूं , जो बिना बुलाए अतिथियों की जगह कर्ण अर्जुन के इस व्यंग्य से विचलित नहीं हुआ । 

 

उसने कहा , ‘ परीक्षा  सबके लिए खुला है । यहां सभी अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकते हैं । खाली बातों में क्या रखा है ? शब्दबाण चलाने के स्थान पर तुम वास्तविक बाण क्यों नहीं चलाते ? ’ कर्ण के वचन सुनकर अर्जुन मुकाबले के लिए तैयार होकर आगे बढ़ गया । 

 

कर्ण भी सामने आ गया । इसी समय कुंती ने अपने पहले पुत्र को देखा । भाइयों को विनाशक संघर्ष में उलझते देख वह बेहोश हो गई । वह बहुत दुःखी हुई । उसका दुःख अधिक कष्टदायक था , क्योंकि वह उस समय किसी को इस बारे में कुछ बता नहीं सकती थी । 

 

विदुर ने फौरन एक दासी को कुंती की सेवा करने का आदेश दिया । दासी की सेवा से कुंती होश में आ गई । लेकिन इस मुकाबले के विनाशक परिणामों को सोच वह मानसिक वेदना से हक्की बक्की रह गया । उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे ।

 

 जब दोनों लड़ने के लिए तैयार हो गए तो कृपाचार्य ने , जो इस तरह के संघर्ष के नियमों से भलीभांति परिचित थे , आगे बढ़कर कर्ण से कहा : ” यह राजकुमार जो तुमसे लड़ने को तैयार है , कुरुवंश की पृथा ( कुंती ) और पांडु का पुत्र है । अब कृपा करके अपने वंश का परिचय दो । 

 

वह जानने के बाद ही पार्थ तुमसे युद्ध कर सकता है क्योंकि उच्च कुल का राजकुमार किसी अपरिचित के साथ एकल युद्ध नहीं कर सकता ” ” यह शब्द सुनकर कर्ण ने अपना सिर झुका लिया । यह देख दुर्योधन आगे बढ़े और उन्होंने कहा , “ अगर यह युद्ध केवल इसलिए नहीं हो सकता कि कर्ण राजकुमार नहीं है तो मैं उसे अंग का राजा बनाता हूं । दुर्योधन ने कर्ण को राजमुकुट , आभूषण और

 

अन्य राजसी चिन्ह प्रदान किए । अब जब युद्ध शुरू होने वाला था कर्ण का पिता बूढ़ा रथवान अधिरथ वहां आ गया । अधिरथ ने कर्ण का पालन – पोषण किया था । उसे देखते ही कर्ण ने सिर झुकाकर उसे प्रणाम किया । अधिरथ ने कर्ण को गले लगा लिया । 

 

यह देख भीम ने खिलखिलाकर हंसते हुए कहा , ” अच्छा तो यह रथवान का एकमात्र पुत्र है । इसे तो चाबुक हाथ में लेकर रथ हांकना चाहिए । यह अर्जुन के हाथों मौत का अधिकारी नहीं है । ” यह सुनकर कर्ण तो चुप हो गया । लेकिन दुर्योधन ने कहा , ” बृकोदर ( भीम का एक और नाम ) तुम्हारा ऐसा कहना उचित नहीं है ।

 

 क्षत्रिय का प्रमाण चिन्ह वीरता है । उसका वंश से कोई संबंध नहीं है । ” नाराज दुर्योधन कर्ण को अपने रथ में बिठाकर ले गया । इसके बाद कर्ण ब्रह्मास्त्र प्राप्त करने के लिए परशुराम के पास गया । उसने कहा कि मैं ब्राह्मण हूं । उसने परशुराम से ब्रह्मास्त्र चलाने का मंत्र सीखा । एक दिन परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर विश्राम कर रहे थे , 

 

जब एक कीड़े ने कर्ण की जांघ को काटा । उससे कर्ण को भयंकर पीड़ा हुई और रक्त की धारा बहने लगी । कर्ण ने गुरु की नींद भंग न हो इस भय से अपनी पीड़ा को चुपचाप सहन किया । परशुराम ने उठने के बाद कर्ण के घाव से बह रही रक्त की धारा को देख उससे कहा , “ प्रिय शिष्य , तुम ब्राह्मण नहीं हो । 

 

केवल एक क्षत्रिय ही इतनी शारीरिक पीड़ा सहन कर सकता है । मुझे सच – सच बताओ । ” कर्ण ने माना कि उसने झूठ बोला था । वह रथवान का पुत्र है । इस पर क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को शाप दिया , “ चूंकि तुमने अपने गुरु को धोखा दिया । अतः निर्णायक अवसर पर तुम ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल नहीं कर सकोगे । 

 

तुम उसे सक्रिय करने का मंत्र भूल जाओगे । ” इसी कारण अर्जुन से युद्ध के दौरान कर्ण ब्रह्मास्त्र का प्रयोग नहीं कर सका । कर्ण अन्त तक दुर्योधन के साथ रहा । भीष्म और द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद वह कौरव सेना का सेनापति बना । उसने दो दिन तक वीरता पूर्वक युद्ध किया । अन्त में उसके रथ का पहिया जमीन में धंस कर फंस गया । वह उसे उठा नहीं सका । जब वह इस संशय में था अर्जुन ने उसे मार दिया ।

 

                         द्रोण 

 

 



                 

द्रोणाचार्य भरद्वाज के पुत्र थे । उन्होंने वेद , वेदांग और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने के बाद धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल की । पांचाल नरेश का पुत्र द्रुपद उनका सहपाठी था । द्रुपद किशोरावस्था के अति उत्साह में द्रोण से कहा करता था कि जब मैं पांचाल राज्य का राजा बनूंगा तो आधा राज्य तुम्हें दे दूंगा ।

 

 अध्ययन समाप्त करने के बाद द्रोण ने कृपाचार्य की बहिन से विवाह किया । उनका एक पुत्र अश्वत्थामा हुआ । विवाह के बाद द्रोण को धन दौलत की इच्छा हुई । यह जानकर कि परशुराम अपनी सम्पत्ति बांट रहे हैं , वह उनके पास गए । दुर्भाग्यवश वह देर से पहुंचे । 

 

तब तक परशुराम अपनी सम्पत्ति बांट चुके थे । लेकिन परशुराम द्रोण को निराश नहीं करना चाहते थे । उन्होंने द्रोण को धनुर्विद्या के कुछ गुर सिखाने का प्रस्ताव किया । द्रोण इसके लिए फौरन तैयार हो गए , क्योंकि परशुराम धनुर्विद्या और सैनिक रणनीति के आचार्य समझे जाते थे । 

 

परशुराम की शिक्षा के बाद द्रोण धनुर्विद्या में पारंगत हो गए । इसी बीच द्रुपद पांचाल का राजा हो गया था । अपनी पुरानी मित्रता और द्रुपद के आधा राज्य देने के वचन को याद करके द्रोण उसके पास पहुंचे । लेकिन दुरुपद का व्यवहार और आचरण एक दम बदला हुआ था । 

 

जब द्रोण ने उसे पुराने मित्र के रूप में अपना परिचय दिया तो द्रुपद ने धन और सत्ता के नशे में उन्मत्त होकर कहा , ” एक याचक और राजा की कैसी मित्रता ? अगर बचपन में मैंने तुम्हारे साथ अच्छी तरह बातचीत की तो उसका अर्थ मित्रता कैसे हो सकता है ? मित्रता तो केवल बराबरी में होती है ।

 

 ” द्रोण को महल से निकाल दिया गया । द्रोण ने इस अपमान का बदला लेने का संकल्प किया । इसके बाद द्रोण काम की तलाश में हस्तिनापुर पहुंचे । हस्तिनापुर में वह अपने बहनोई कृपाचार्य के यहां रहने लगे । एक दिन राजकुमार गेंद खेल रहे थे । अचानक उनकी गेंद कुंए में चली गई । कुंए के साफ पानी में गेंद दिखाई दे रही थी लेकिन राजकुमारों की समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे निकाला जाए । 

 

इस प्रकार अचानक खेल समाप्त होने से राजकुमार निराश और खिन्न हो गए । कुंए से कुछ दूरी पर द्रोण खड़े थे । वह राजकुमारों की मनोदशा समझ गए । उन्होंने कहा कुंए से गेंद निकालना अत्यन्त सरल है । यही नहीं उन्होंने अपनी अंगूठी कुए में गिरा दी । द्रोण ने अपने कौशल और धनुर्विद्या से अंगूठी और गेंद दोनों को आसानी से निकाल दिया ।

 

 उनके इस कौशल से राजकुमार चमत्कृत हो गए । उन्होंने द्रोण से पूछा , ‘ आप कौन हैं ? क्या हम आपके लिए कुछ कर सकते हैं ? ” द्रोण ने उत्तर दिया , “ आप लोग मेरे बारे में भीष्म से पूछना ” । राजकुमारों से उस व्यक्ति का विवरण सुनकर भीष्म समझ गए कि वह द्रोण है । उन्होंने सोचा कौरव – पांडवों को युद्ध की शिक्षा देने के लिए द्रोण सर्वोत्तम व्यक्ति हैं । उन्होंने द्रोण को सम्मानपूर्वक बुलाया और राजकुमारों की शिक्षा का दायित्व सौंप दिया ।

 

 

इसके बाद द्रोण राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाने लगे । इससे द्रोण की ख्याति सर्वत्र फैल गई । देश के विभिन्न भागों से राजकुलों के पुत्र उनसे शिक्षा प्राप्त करके आने लगे । इनमें निषाद राजा का पुत्र एकलव्य भी था । द्रोण ने उसे निषाद होने के कारण शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया । 

 

इस पर एकलव्य ने वन में जाकर द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाई और अभ्यास करने लगा । कठोर परिश्रम और लगन के कारण वह जल्दी श्रेष्ठ धनुर्धर हो गया । एक दिन सभी राजकुमार द्रोण की आज्ञा लेकर हस्तिनापुर से बाहर शिकार को गए । उन्होंने शिकार के लिए कुछ कुत्ते भी अपने साथ लिए । 

 

वन में एक कुत्ता उस स्थान पर पहुंचा जहां द्रोण की मूर्ति के आगे एकलव्य अभ्यास कर रहा था । एकलव्य ने विचित्र सूरत बनाई हुई थी । वह काला तो था ही इस पर उसको काले हिरन की खाल ओढ़ रखी थी । उसका यह रूप देखकर कुत्ता जोर – जोर से भोंकने लगा । 

 

एकलव्य ने बाण चलाकर कुत्ते का भोंकना बंद कर दिया । बाण इतने कौशल से चलाए गए थे कि उससे कुत्ते का भौंकना तो बंद हो गया लेकिन उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा । कुत्ता राजकुमारों की मंडली में लौट आया । बाण चालक के कौशल को देखकर राजकुमार आश्चर्य में पड़ गए । 

 

उन्होंने वन में उसकी खोज की । उन्होंने देखा एक किशोर द्रोण की मूर्ति के सामने बाण चलाने का अभ्यास कर रहा है । परिचय पूछने पर एकलव्य ने कहा मैं द्रोणाचार्य का शिष्य एकलव्य हूं । मैं यहां बाण चालन का अभ्यास करता हूं । हस्तिनापुर पहुंचकर राजकुमारों ने द्रोण को एकलव्य के बारे में बताया । 

 

अर्जुन ने द्रोण को उलाहना दिया कि आपका यह शिष्य तो मुझसे भी आगे निकल गया है । द्रोण वन जाकर एकलव्य से मिले । वह बाण चलाने का अभ्यास कर रहा था । वह अपने गुरु के आगमन से बहुत प्रसन्न हुआ । उसने उनका विधिवत स्वागत किया “ मैं आपका शिष्य एकलव्य हूं । ” और कहा , द्रोण ने उत्तर दिया , “ तब तुम्हें हमें गुरु दक्षिणा देनी होगी । 

 

एकलव्य ने कहा , “ भगवन , आज्ञा दीजिए , आपको दक्षिणा में क्या चाहिए ? ” द्रोण “ हमें तुम्हारे दाहिने हाथ का अंगूठा चाहिए । ” एकलव्य ने फौरन अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर द्रोण के सामने पेश कर दिया । द्रोणाचार्य अर्जुन को वचन दे चुके थे कि वे उसे सर्वोत्तम धनुर्धर बनाएंगे । 

 

अपने उस वचन को पूरा करने के लिए उन्होंने एकलव्य का अंगूठा मांगा । जब राजकुमार धनुर्विद्या और युद्ध कौशल में निपुण हो गए तो द्रोण ने गुरु दक्षिणा के रूप में शिष्यों को द्रुपद पर हमला करने और उसे बंदी बनाकर लाने का आदेश दिया । कौरव इस कार्य को करने के लिए पहले आगे बढ़े , लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी ।

 

 द्रुपद की सेना ने उन्हें मार भगाया । वे इस कार्य को नहीं कर सके । तब अर्जुन के नेतृत्व में पांडव आगे बढ़े । अर्जुन ने द्रुपद को युद्ध में पराजित किया और उसे बंदी बनाकर द्रोण के सामने पेश कर दिया । द्रोण ने द्रुपद से कहा , “ राजन ! अपने जीवन के लिए डरो नहीं । बचपन में हम सहपाठी थे , लेकिन तुम इस बात को भूल गए और तुमने मेरा अपमान किया ।

 

 

 

 

तुमने मुझसे कहा कि केवल एक राजा ही राजा का मित्र हो सकता है । तुम्हारे राज्य को जीतकर मैं अब राजा हूं । लेकिन फिर भी मैं तुम्हारी मित्रता चाहता हूं । इसलिए मैं जीते हुए राज्य का आधा भाग तुम्हें दे देता हूं । तुम्हारा कहना है कि मित्रता केवल बराबरी में हो सकती है ।

 

 अब हम बराबर हैं । हरेक के पास आधा राज्य है । ” द्रोण के अनुसार उन्होंने अपने अपमान का द्रुपद को पर्याप्त दंड दे दिया था । उन्होंने द्रुपद को मुक्त कर दिया । उसके साथ अत्यन्त स्नेह और सम्मान का व्यवहार कर उसे आदर के साथ विदा किया । दुरुपद ने भी ऐसा दिखाया मानो वह द्रोण के साथ स्थायी मैत्री करना चाहता है । 

 

लेकिन उसे इस अपमान से गहरी चोट लगी । वह द्रोण से बदला लेने की इच्छा करने लगा । उसने तप , पूजा , आराधना , उपवास आदि करके देवताओं को प्रसन्न किया । उसकी इच्छा ऐसा पुत्र प्राप्त करने की थी जो द्रोण का वध करे और ऐसी पुत्री जो अर्जुन से विवाह करे । उसे अपने उद्देश्य में सफलता मिली । देवताओं ने उसे मनोवांछित वर प्रदान किया । उसके पुत्र धृष्टद्युम्न ने अजेय द्रोण का वध किया और पुत्री द्रोपदी पांडवों की पत्नी बनीं ।

 

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