गंगा औरशांतनु की प्रेम कथा और भीष्म की कहानी।
गंगा और शांतनु की प्रेम कथा और भीष्म की रोचक कहानी।
शान्तनु
बहुत पुराने समय की बात है गांगेय क्षेत्र ( वर्तमान पश्चिमी उत्तर प्रदेश ) में शान्तनु नाम के एक राजा राज्य करते थे । एक दिन वह गंगा किनारे टहल रहे थे कि उन्हें एक बहुत सुन्दर युवती दिखाई दी । शान्तनु ने उस युवती से कहा , ” मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूं ।
” युवती ने उत्तर दिया , “ मेरी कुछ शर्तें हैं अगर आप उन्हें मान लें तो मैं आपसे विवाह कर लूंगी । ” आप या कोई भी आदमी मुझे कभी किसी काम को , चाहे वह अच्छा हो या बुरा , करने से नहीं रोकेगा । आप कभी मुझ पर गुस्सा नहीं करेंगे और न कभी कोई ऐसा काम करेंगे , जो मुझे नाराज करे ।
आप या कोई भी आदमी मुझसे यह नहीं पूछेगा कि मैं कौन हूं और कहां से आई हूं । अगर आपने इन शर्तों को तोड़ा तो मैं चली जाऊंगी । ” शान्तनु ने युवती की शर्तें मान ली । दोनों का विवाह हो गया । शान्तनु को अपनी पत्नी के गुण , शालीनता और सुन्दरता के कारण पता भी नहीं चला कि समय कैसे गुजर गया ।
उनकी पत्नी ने आठ बच्चों को जन्म दिया । जब कभी कोई पुत्र होता वह उसे नदी में ले जाकर बहा देती और लौटकर मुस्करा कर अपने काम में लग जाती । इस तरह उसने आपने सात बच्चे नदी में बहा दिए । शान्तनु बेबस थे । शर्तों से बंधे रहने के कारण वह कुछ नहीं कह सकते थे । जब आठवां पुत्र हुआ और वह उसे भी ले जाने के लिए तैयार हुई , तो शान्तनु से रहा नहीं गया ।
उन्होंने उसे रोका और कहा , “ तुम इस पुत्र की हत्या करने क्यों जा रही हो ? ” पत्नी ने कहा , ” आपका दिल अब इस बच्चे में है । आपको अब मेरी जरूरत नहीं है । आप अपने वचन को भूल रहे हैं । मैं अब इस बच्चे को लेकर चली जाऊंगी और इसे पाल – पोसकर आपको लौटा दूंगी । ” उसने बताया “ मैं गंगा हूं और मैंने वशिष्ठ के शापग्रस्त सात बसुओं को मुक्त कराने के लिए अपने सात पुत्रों को नदी में बहाया था ।
” कुछ वर्षों बाद गंगातट पर घूमते हुए शान्तनु ने गंगा की धारा को बहुत पतली पाया । जांच करने पर पता लगा कि एक सुन्दर तेजस्वी किशोर ने अपने बाणों का बांध बनाकर गंगा की धारा को रोक दिया है । शान्तनु उसे अचरज से देखने लगे । अचानक वह बालक गायब हो गया । शान्तनु ने गंगा को याद करके किशोर को बुलाने को कहा । गंगा पुत्र के साथ आ गई । उसने शान्तनु से कहा , ” यह आपका आठवां पुत्र है , जिसे मैं पालने – पोसने और शिक्षा – दीक्षा के लिए ले गई थी ।
इसका नाम देवव्रत है । इसकी पढ़ाई – लिखाई और हथियार चलाने की शिक्षा पूरी हो गई है । इसने धर्म , राजनीति , कला , विज्ञान सभी की शिक्षा प्राप्त कर ली है । अब आप इसे ले जाओ । ” शान्तनु अपने पुत्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुए । वे उसे अपने महल में ले गए । देवव्रत ने अपने काम और मीठे स्वभाव से सभी का दिल जीत लिया ।
शान्तनु ने उसे अपना युवराज बनाने की घोषणा की । एक दिन शान्तनु यमुना नदी के किनारे सैर कर रहे थे । अचानक उन्हें लगा कि आस – पास कहीं से मोहक मीठी सुगंध आ रही है । शान्तनु सुगंध की खोज में आगे बढ़े ।
उन्हें पता लगा कि सुगंध एक कुमारी कन्या के शरीर से आ रही है । वह लड़की अत्यन्त सुंदर थी । उस लड़की , सत्यवती के शरीर से पहले मछली की गंध आती थी । उसे मत्स्यगंधा भी कहा जाता था । वह यमुना में धमार्थ नाव चलाती थी ।
तीर्थयात्रियों को निःशुल्क एक तट से दूसरे तट पर ले जाती थी । एक दिन महर्षि पराशर उसकी नाव पर बैठे । उसे देखकर वह उस पर मोहित हो गए । पराशर के तेज और प्रताप को देख सत्यवती ने थोड़ा विरोध करने के बाद समर्पण कर दिया । उसने एक पुत्र पराशर नंदन व्यास को जन्म दिया ।
पराशर ने सत्यवती पर प्रसन्न होकर उसे वर दिया कि अब तुम्हारे शरीर से सुगंध निकलेगी । सुगंध निकलने के कारण उसका नाम गंधवती हो गया । उसकी सुगंध एक योजन तक जाती थी । अत : उसका एक नाम योजनगंधा भी हो गया । गंगा के जाने के बाद शान्तनु ने अपने मन और शरीर को काबू में रखा था ।
लेकिन अप्सराओं की तरह भव्य और सुन्दर इस मोहनी मूरत को देख शान्तनु के संयम का बांध टूट गया । उन्होंने उस लड़की से विवाह करने का प्रस्ताव किया । लड़की ने उत्तर दिया , “ मैं मछुवारों के सरदार की पुत्री हूं । आपको मेरे विवाह की बात उनके साथ करनी होगी । ” लड़की का पिता चतुर था ।
जब शान्तनु ने उसके साथ विवाह की बात की तो उसने कहा , अगर आप मेरी लड़की के पुत्र को अपने बाद राज सौंपने को तैयार हो तो मुझे यह संबंध स्वीकार है । शान्तनु देवव्रत को बहुत प्यार करते थे । देवव्रत के स्थान पर किसी और को राजा बनाना उन्हें अनुचित लगा । वह निराश होकर घर लौट आए ।
उन्होंने यह बात किसी को नहीं बताई । इसके बाद शान्तनु धीवर पुत्री के वियोग में घुलने लगे । अपने पिता की यह हालत देख देवव्रत को चिन्ता हुई । उसने अपने पिता से पूछा कि आप किस चिन्ता से ग्रस्त हैं ? पिता ने देवव्रत को असली बात नहीं बताई । केवल यह कहा , ” तुम मेरे एक मात्र पुत्र हो । तुम सदैव अस्त्र शस्त्रों के अभ्यास में लगे रहते हो ।
अगर कभी तुम पर कोई संकट आया तो हमारा यह वंश समाप्त हो जाएगा । मैं इस कारण चिन्तित रहता हूं । मैं पुनः विवाह नहीं करना चाहता , किन्तु वंश परम्परा की रक्षा के लिए यह जरूरी हो गया है । देवव्रत समझदार था । वह समझ गया कि पिता उससे कुछ छिपा रहे हैं । उसने अपने पिता के मंत्री से सारी बात जान ली ।
इसके बाद वह मछुवारों के सरदार के पास गया । उसने अपने पिता के लिए मछुवारे की लड़की का हाथ माँगा । मछुवारों के सरदार ने देवव्रत के सामने अपनी लड़की के पुत्र के राजा बनने की शर्त दोहराई । देवव्रत ने कहा , मैं वचन देता हूं कि तुम्हारी लड़की का पुत्र ही राजा बनेगा । मछुवारों के सरदार ने कहा निस्सन्देह आप अपने वचन का पालन करोगे , लेकिन आपकी सन्तान जो आपके समान वीर और बली होगी गद्दी का दावा करेगी ।
देवव्रत ने मछुवारों के सरदार की इस चिन्ता को दूर करने के लिए उसके सामने सौगन्ध ली कि मैं कभी विवाह नहीं करूंगा । इसके बाद सरदार की पुत्री सत्यवती से शान्तनु का विवाह हो गया । अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत के इस त्याग के कारण उस दिन के बाद उसे भीष्म कहा जाने लगा ।
भीष्म उसे कहा जाता है जो कोई कठिन सौगन्ध लेकर उसे पूरा करता है । भीष्म ने आजीवन अपने वचन और सौगंध को निभाया । अत : भीष्म की कोई सन्तान नहीं थी । हिन्दुओं में सन्तान अपने माता – पिता का श्राद्ध करती है । भीष्म के महान त्याग और वचननिष्ठा को देखते हुए हमारे पूर्वजों ने यह व्यवस्था की कि अपने माता – पिता का श्राद्ध करने वाला हर हिन्दू शराद्ध करते समय भीष्म को भी तर्पण की अंजलि देगा ।
भीष्म
महाभारत के असाधारण , तेजस्वी और प्रमुख चरित्र हैं – भीष्म । वे वीर योद्धा , कुशल प्रशासक और शास्त्रों के ज्ञाता थे । शान्तनु की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने भाइयों के प्रति पिता के दायित्वों को पूरा किया । अपने भाई विचित्रवीर्य के वयस्क होने तक उन्होंने हस्तिनापुर का शासन इतनी कुशलता से चलाया कि राज्य सुख सम्पदा से भर गया । विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद जब तक उनकी संतान राजकाज संभालने योग्य नहीं हुई उन्होंने राज्य का शासन फिर संभाला ।
अपने भाई के विवाह के लिए वे काशी नरेश द्वारा आयोजित स्वयंवर से उनकी तीन कन्याओं अम्बा , अम्बिका और अम्बालिका का हरण करके उन्हें हस्तिनापुर ले आए । • हस्तिनापुर पहुंचकर जब वे इन कन्याओं का विचित्रवीर्य के साथ विवाह करने की तैयारी रहे थे तो इनमें से सबसे बड़ी अम्बा ने उनसे कहा , ” मैं सौभ नामक विमान के स्वामी साल्व से प्रेम करती हूं और उन्हें अपना पति मान चुकी हूं ।
अब आपको धर्मानुसार जो उचित लगे कीजिए । ” भीष्म ने अम्बिका और अम्बालिका का विवाह तो विचित्रवीर्य से कर दिया । अम्बा की बात सुनने के बाद उन्होंने उसे सैनिकों की सुरक्षा में सम्मान के साथ साल्वराज के पास भिजवा दिया । साल्वराज ने यह कह कर कि भीष्म ने मुझे खुले आम पराजित किया और मैं अम्बा की रक्षा नहीं कर सका , उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया ।
इस तरह उपेक्षित , अपमानित और दुखी होकर अम्बा को हस्तिनापुर लौटना पड़ा । भीष्म ने विचित्रवीर्य के साथ अम्बा का विवाह करने का प्रयास किया । लेकिन विचित्रवीर्य ने एक अन्य पुरुष से प्रेम करने वाली स्त्री से विवाह करने से इनकार कर दिया । भीष्म स्वयं आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा के कारण अम्बा से विवाह नहीं कर सकते थे । ऐसा कोई अन्य सुपात्र नहीं मिला जिसके साथ अम्बा का विवाह किया जा सके । इस तरह कई वर्ष बीत गए ।
भीष्म ने एक बार फिर अम्बा को साल्व के पास जाने की सलाह दी । शुरू में अम्बा ने इनकार किया । लेकिन अन्त में लोगों के समझाने पर वह चली गई । साल्व ने एक बार फिर उसे अपनाने से इनकार कर दिया । इस तरह बार – बार उपेक्षित और अपमानित किए जाने से अम्बा बहुत नाराज़ हुई ।
उसका मधुर स्वभाव क्रोधी , असहनशील और कटु में बदल गया । वह अपनी इस स्थिति के लिए भीष्म को जिम्मेदार ठहराने लगी । पहले उसने भीष्म से बदला लेने के लिए अनेक क्षत्रिय वीरों , महारथियों से अनुरोध किया । लेकिन भीष्म से शता करने को कोई तैयार नहीं हुआ । फिर उसने ईश्वर की शरण में जाने का फैसला किया । उसने कठिन साधना की ।
भगवान ने उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर उसे एक माला प्रदान की और कहा इसे पहनने वाला भीष्म को मारकर तुम्हारी इच्छा पूरी करेगा । अम्बा ने वह माला अनेक वीरों महारथियों को पहनने के लिए दी लेकिन भीष्म के भय से कोई उसे पहनने को तैयार नहीं हुआ ।
चारों तरफ से निराश होने के बाद वह ध्रुपद नरेश के पास गई । उन्होंने भी माला लेने से इन्कार कर दिया । निराश होकर अम्बा ने वह माला दरुपद के दरवाजे पर लटका दी । इसके बाद वह वीरवर परशुराम के पास गई । परशुराम उसकी व्यथा सुनकर अत्यन्त दुखी हुए ।
उन्होंने अम्बा के लिए भीष्म को युद्ध के लिए ललकारा । दोनों वीरों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ । इस युद्ध में किसी को निर्णायक विजय नहीं मिली । अन्त में परशुराम युद्ध से अलग हो गए । दुखी और बदले की आग से झुलस रही अम्बा इसके बाद भगवान शंकर की तपस्या करने के लिए हिमालय क्षेत्र में चली गई ।
वहां उसने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया । उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उसे वरदान दिया कि तुम अगले जन्म में भीष्म को मार कर अपना बदला लोगी । अम्बा इस वर को प्राप्त करके इतनी खुश हुई कि उसने मरने के लिए मौत का इन्तजार नहीं किया ।
उसने एक चिता बनाई और उसमें कूद कर अपने जीवन का अन्त कर दिया । अगले जन्म में अम्बा ने दरुपद के यहां जन्म लिया । बड़ी होने के बाद उसने एक दिन महल के दरवाजे पर लटकी माला देखी और उसे अपने गले में डाल लिया । यह देख दुरुपद नरेश बुरी तरह डर गए ।
उन्हें आशंका हुई कि भीष्म उन पर हमला करके उनको सपरिवार मार देंगे । उन्होंने अपनी पुत्री को वन में निर्वासित कर दिया । निर्वासित पुत्री वन में जाकर फिर तपस्या करने लगी । उसकी लगन और भक्ति देखकर भगवान ने उसे स्त्री से पुरुष बना दिया और वह शिखंडी के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।