राजा दुष्यंत की आध्यात्मिक अनोखी कहानी ।

Spread the love

महाभारत की राजा दुष्यंत की आध्यात्मिक अनोखी कहानी ।

                     दुष्यंत

प्राचीन काल में एक अत्यन्त पराक्रमी राजा थे , जिनका नाम दुष्यंत था । उनके राज्य में प्रजा सुख – चैन से रहती थी । एक बार राजा दुष्यंत शिकार के लिए जंगल में गए । उनके साथ राजसी तामझाम हाथी , घोड़े , रथ , बहुत से सैनिक और राजकीय अधिकारी थे ।

विशाल जंगल को रोंदते , हिंसक पशुओं का पीछा करते और कोलाहल करते हुए राजा दुष्यंत आगे बढ़ते गए । उनकी सेना के सिंहनाद , नगाड़ों की आवाज , रथों की घड़घड़ाहट और सैनिकों की गर्जना से ऐसा कोलाहल हुआ कि जंगल के सभी जानवर भाग कर दूसरी जगहों पर चले गए ।

अतः शिकार की खोज में दुष्यंत ने दूसरे जंगल में प्रवेश किया । उसे पार करने के बाद उन्हें एक ऊसर मैदान मिला । उसे लांघने के बाद दुष्यंत एक विशाल वन में पहुंचे जहां अनेक आश्रम थे । यह वन विशाल वृक्षों , झाड़ियों , लताओं और नाना प्रकार के फूलों के पेड़ों से भरा था ।

उस वन में शीतल , सुगंधित और शरीर को तरोताजा कर देने वाली हवा चल रही थी । वन के एक ओर अत्यन्त रमणीय मनोहारी कण्व ऋषि का आश्रम था । उसमें विभिन्न प्रकार के पक्षी चहचहा रहे थे और भ्रमर गुंजन कर रहे थे । आश्रम के दूसरी ओर निर्मल जल से भरी नदी धीरे – धीरे बह रही थी ।

दुष्यंत ने अपने हाथी , घोड़ों , रथ और सैनिकों को आश्रम के बाहर रुकने का आदेश दिया । उन्होंने कहा मैं ऋषि कण्व से भेंट करने के लिए उनके आश्रम में जा रहा हूं । जब तक मैं वहां से लौट कर न आऊं तब तक आप लोग यहीं ठहरना ।

यह आदेश देने के बाद दुष्यंत ने साधारण वेश में आश्रम में प्रवेश किया । आश्रम में चारों तरफ घूमने के बाद जब उन्हें कण्व ऋषि नहीं मिले तो उन्होंने तेज आवाज में पूछा , ‘ क्या यहां कोई है ? ‘ दुष्यंत के प्रश्न को सुनकर तपस्वी वेश में एक अत्यन्त सुन्दर कन्या कुटिया से निकली ।

वह कन्या रूपवती , शीलवती और सदाचार से सम्पन्न थी । उधर दुष्यंत भी सुगठित शरीर , चौड़ी छाती , मजबूत कंधों , लम्बी भुजाओं और मनोहारी व्यक्तित्व वाले थे । कन्या ने दुष्यंत को देखकर कहा , ‘ अतिथि देव आपका स्वागत है । ‘ इसके बाद उसने उनसे परम्परागत कुशल क्षेम , परिचय और आश्रम में आने का कारण पूछा ।

दुष्यंत ने बताया , ‘ मैं राजर्षि महात्मा इलिल का पुत्र दुष्यंत हूं और महर्षि कण्व के दर्शन करने के लिए आया हूं । ‘ शकुन्तला ने कहा , ‘ मेरे पिताजी फल लेने के लिए बाहर गए हैं । कुछ ही समय में आ जाएंगे ।

इस पर दुष्यंत ने कन्या का परिचय पूछा और उससे विवाह करना चाहा । कन्या ने कहा , ‘ मैं महात्मा कण्व की पुत्री मानी जाती हूं । आप उन्हीं से विवाह की बात करें । ”

दुष्यंत ने जब गहराई से कन्या का परिचय पूछा तो कन्या ने बताया कि कुछ समय पूर्व महर्षि विश्वामित्र तपस्या कर रहे थे । उनकी कठोर तपस्या को देख इन्द्र को भय हुआ कि विश्वामित्र इन्द्र का पद पाने के लिए तपस्या कर रहे हैं ।

अतः उसने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए अप्सरा मेनका को उनके पास भेजा । मेनका ने अपनी मनोहारी छवि , उभरते यौवन और नाना प्रकार के हाव – भाव दिखाकर विश्वामित्र को मोहित कर लिया ।

विश्वामित्र उसके रूप , यौवन और गुणों को देख उस पर आसक्त हो गए । उन्होंने मेनका को अपने पास बुलाया और दोनों प्रेम क्रीड़ा में व्यस्त हो गए । मेनका के गर्भ से शकुन्तला का जन्म हुआ । शकुन्तला के जन्म के बाद नवजात कन्या को छोड़कर मेनका इन्दरलोक चली गई ।

उस निर्जन वन में उस नवजात कन्या को देख आचार्य कण्व उसे उठाकर अपने आश्रम में ले आए । उन्होंने पुत्री की तरह शकुन्तला का पालन – पोषण किया । यह पता लगने पर कि शकुन्तला क्षत्रिय कन्या है दुष्यंत ने उससे गंधर्व विवाह का प्रस्ताव किया ।

थोड़ी हिचकिचाहट के बाद शकुन्तला इसके लिए सहमत हो गई । कुछ दिन आश्रम में रहने के बाद दुष्यंत यह वचन देकर कि वह शकुन्तला को शीघ्र बुला लेंगे अपनी राजधानी लौट गए । कण्व के आश्रम लौटने के बाद शकुन्तला ने उन्हें दुष्यन्त के आश्रम में आगमन और उनके साथ अपने गंधर्व विवाह की सूचना दी ।

कण्व ने शकुन्तला को सौभाग्यवती होने का आशीर्वाद दिया । शकुन्तला दिन – रात दुष्यन्त को याद करती थी और उनके बुलावे की परतीक्षा करती थी ।

शकुन्तला ने यथा समय एक तेजस्वी , रूपवान , गुणवान पुत्र को जन्म दिया । कण्व की देखरेख में बालक ने सभी विषयों की शिक्षा प्राप्त की । यह बालक अत्यन्त बलवान और साहसी था । वह शेरों , बाघों और भैंसों को आसानी से अपने वश में कर लेता था ।

उसने आश्रम के समीप रहने वाले और आश्रम निवासियों को कष्ट पहुंचाने वाले सभी दुष्टों , दुर्जनों को दंड देकर सीधा कर दिया । अत : आश्रमवासी उसे ‘ सर्वदमन ‘ कहने लगे ।

काफी समय बीतने के बाद जब शकुन्तला को बुलाने के लिए दुष्यंत के यहां से कोई नहीं आया तो कण्व ऋषि ने शकुन्तला और उसके पुत्र को दुष्यंत के पास भेज दिया । दुष्यंत कुछ समय तक स्मृति दोष के कारण शकुन्तला को पहचान नहीं सके ।

लेकिन पहचानने के बाद उन्होंने शकुंतला को समुचित आदर दिया । दुष्यंत ने अपने पुत्र का नाम भरत रखा और उसे युवराज बनाया । दुष्यंत के स्वर्गवासी होने के बाद भरत ने राजगद्दी संभाली और बड़ी कुशलता से देश का शासन किया । कहा जाता है कि भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत है । दुष्यंत और शकुन्तला के मिलन , प्रेम और विवाह पर महाकवि कालिदास ने ‘ अभिज्ञानशाकुन्तलम् ‘ काव्य की रचना की है ।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *