सबसे बड़ा पुण्यात्मा ,मक्खीका लोभ कहानी।

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सबसे बड़ा पुण्यात्मा ,मक्खीका लोभ ,वैद्यजी भगाये गये,दो टट्टू  की आध्यात्मिक कहानी।

         सबसे बड़ा पुण्यात्मा  

काशी प्राचीन समयसे प्रसिद्ध है । संस्कृत विद्याका वह पुराना केन्द्र है । उसे भगवान् विश्वनाथकी नगरी या विश्वनाथपुरी भी कहा जाता है । विश्वनाथजीका वहाँ बहुत प्राचीन मन्दिर है । एक दिन विश्वनाथजीके पुजारीने स्वप्न देखा कि भगवान् विश्वनाथ उससे मन्दिरमें विद्वानों तथा धर्मात्मा लोगोंकी सभा बुलानेको कह रहे हैं ।

पुजारीने दूसरे दिन सबेरे ही सारे नगरमें इसकी घोषणा करवा दी । काशीके सभी विद्वान् , साधु और दूसरे पुण्यात्मा दानी लोग भी गङ्गाजीमें स्नान करके मन्दिरमें आये । सबने विश्वनाथजीको जल चढ़ाया , प्रदक्षिणा की और सभा – मण्डपमें तथा बाहर खड़े हो गये ।

उस दिन मन्दिरमें बहुत भीड़ थी । सबके आ जानेपर पुजारीने सबसे अपना स्वप्न बताया सब लोग ‘ हर हर महादेव ‘ की ध्वनि करके शंकरजीकी प्रार्थना करने लगे । जब भगवान्की आरती हो गयी , घड़ी – घण्टेके शब्द बंद हो गये और सब लोग प्रार्थना कर चुके , तब सबने देखा कि मन्दिरमें अचानक खूब प्रकाश

था । पुजारीने वह रत्न जटित स्वर्णपत्र उठा लिया । उसपर हीरोंके अक्षरों में लिखा था- ‘ सबसे बड़े दयालु और पुण्यात्माके लिये यह विश्वनाथजीका उपहार है । ‘ पुजारी बड़े त्यागी और सच्चे भगवद्भक्त थे । उन्होंने वह

पत्र उठाकर सबको दिखाया । वे बोले- ‘ प्रत्येक सोमवारको यहाँ विद्वानोंकी सभा होगी । जो सबसे बड़ा पुण्यात्मा और दयालु अपनेको सिद्ध कर देगा , उसे यह स्वर्णपत्र दिया जायगा । ‘ देशमें चारों ओर यह समाचार फैल गया ।

दूर – दूरसे तपस्वी , त्यागी , व्रत करनेवाले , दान करनेवाले लोग काशी आने लगे । एक ब्राह्मणने कई महीने लगातार चान्द्रायण व्रत किया था । वे उस स्वर्णपत्रको लेने आये । लेकिन जब स्वर्णपत्र उन्हें दिया गया , उनके हाथमें जाते ही वह मिट्टीका हो गया ।

उसकी ज्योति नष्ट हो गयी । लज्जित होकर उन्होंने स्वर्णपत्र लौटा दिया । पुजारीके हाथमें जाते ही वह फिर सोनेका हो गया और उसके रत्न चमकने लगे । एक बाबूजीने बहुत से विद्यालय बनवाये थे । कई स्थानोंपर सेवाश्रम चलाते थे ।

दान करते – करते उन्होंने अपना लगभग सारा धन खर्च कर दिया था । बहुत – सी संस्थाओंको वे सदा दान देते थे । अखबारों में उनका नाम छपता था । वे भी स्वर्णपत्र लेने आये , किंतु उनके हाथमें जाकर भी वह मिट्टीका हो गया ।

पुजारीने उनसे कहा- ‘ आप पद , मान या यशके लोभसे दान करते जान पड़ते हैं । ‘ नामकी इच्छासे होनेवाला दान सच्चा दान नहीं है । इसी प्रकार बहुत से लोग आये , किंतु कोई भी स्वर्णपत्र पा नहीं सका । सबके हाथोंमें पहुँचकर वह मिट्टीका हो जाता था ।

कई महीने बीत गये । बहुत से लोग स्वर्णपत्र पानेके लोभसे भगवान् विश्वनाथके मन्दिरके पास ही दान – पुण्य करने सबसे बड़ा पुण्यात्मा लगे । लेकिन स्वर्णपत्र उन्हें भी मिला नहीं ।

एक दिन एक बूढ़ा किसान भगवान् विश्वनाथके दर्शन करने आया । वह देहाती किसान था । उसके कपड़े मैले और फटे थे । वह केवल विश्वनाथजीका दर्शन करने आया था । उसके पास कपड़ेमें बँधा थोड़ा सत्तू और एक फटा कम्बल था ।

मन्दिरके पास लोग गरीबोंको कपड़े और पूड़ी – मिठाई बाँट रहे थे ; किंतु एक कोढ़ी मन्दिरसे दूर पड़ा कराह रहा था । उससे उठा नहीं जाता था । उसके सारे शरीरमें घाव थे । वह भूखा था , किंतु उसकी ओर कोई देखतातक नहीं था ।

बूढ़े किसानको कोढ़ीपर दया आ गयी । उसने अपना सत्तू उसे खानेको दे दिया और अपना कम्बल उसे उढ़ा दिया । वहाँसे वह मन्दिरमें दर्शन करने आया । मन्दिरके पुजारीने अब नियम बना लिया था कि सोमवारको जितने यात्री दर्शन करने आते थे , सबके हाथमें एक बार वह स्वर्णपत्र रखते थे ।

बूढ़ा किसान जब विश्वनाथजीका दर्शन करके मन्दिरसे निकला , पुजारीने स्वर्णपत्र उसके हाथमें रख दिया । उसके हाथमें जाते ही स्वर्णपत्रमें जड़े रत्न दुगुने प्रकाशसे चमकने लगे । सब लोग बूढ़ेकी प्रशंसा करने लगे ।

पुजारीने कहा – ‘ यह स्वर्णपत्र तुम्हें विश्वनाथजीने दिया है । जो निर्लोभ है , जो दीनोंपर दया करता है , जो बिना किसी स्वार्थके दान करता है और दुखियोंकी सेवा करता है , वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा है । ‘

              मक्खीका लोभ 

एक व्यापारी अपने ग्राहकको शहद दे रहा था । अचानक व्यापारीके हाथसे छूटकर शहदका बर्तन गिर पड़ा । बहुत सा शहद भूमिपर ढुलक गया । जितना शहद व्यापारी उठा सकता था , उतना उसने ऊपर – ऊपरसे उठा लिया ; लेकिन कुछ शहद भूमिमें गिरा रह गया ।

बहुत – स -सी मक्खियाँ शहदकी मिठासके लोभसे आकर उस शहदपर बैठ गयीं । मीठा – मीठा शहद उन्हें बहुत अच्छा लगा । जल्दी – जल्दी वे उसे चाटने लगीं । जबतक उनका पेट भर नहीं गया , वे शहद चाटनेमें लगी रहीं ।

जब मक्खियोंका पेट भर गया , उन्होंने उड़ना चाहा । लेकिन उनके पंख शहदसे चिपक गये थे । उड़नेके लिये वे जितना छटपटाती थीं , उतने ही उनके पंख चिपकते जाते थे । उनके सारे शरीरमें शहद लगता जाता था ।

बहुत – सी मक्खियाँ शहदमें लोट – पोट होकर मर गयीं । बहुत – सी पंख चिपकनेसे छटपटा रही थीं । लेकिन दूसरी नयी – नयी मक्खियाँ शहदके लोभसे वहाँ आती – जाती थीं । मरी और छटपटाती मक्खियोंको देखकर भी वे शहद खानेका लोभ छोड़ नहीं पाती थीं ।

मक्खियोंकी दुर्गति और मूर्खता देखकर व्यापारी बोला – ‘ जो लोग जीभके स्वादके लोभमें पड़ जाते हैं , वे इन मक्खियोंके समान ही मूर्ख होते हैं । स्वादका थोड़ी देरका सुख उठानेके लोभसे वे अपना स्वास्थ्य नष्ट कर देते हैं , रोगी बनकर छटपटाते हैं और शीघ्र मृत्युके ग्रास बनते हैं । ‘

                मेलकी शक्ति 

मातादीनके पाँच पुत्र थे – शिवराम , शिवदास , शिवलाल , शिवसहाय और शिवपूजन । ये पाँचों लड़के परस्पर झगड़ा किया करते थे । छोटी – सी बातपर भी आपसमें ‘ तू – तू ‘ , ‘ मैं – मैं ‘ करने लगते और गुत्थमगुत्थी कर लेते थे ।

मातादीन अपने लड़कोंके झगड़ेसे बहुत ऊब गया था । उसने एक दिन उन्हें समझानेके विचारसे पास बुलाया । पहिलेसे पतली – पतली सूखी पाँच टहनियोंका उसने एक छोटा गट्ठर बना लिया था । पुत्रोंसे उसने कहा- ‘ तुममेंसे जो इन टहनियोंके गट्ठरको तोड़ देगा , उसे एक रुपया पुरस्कार मिलेगा ।

‘ – पाँचों लड़के झगड़ने लगे कि गट्ठरको वे पहिले तोड़ेंगे । उन्हें डर था कि यदि दूसरा भाई पहिले तोड़ देगा तो रुपया उसीको मिल जायगा । मातादीनने कहा- ‘ पहिले छोटे भाई शिवपूजनको तोड़ने दो । ‘ – शिवपूजनने गट्ठर उठा लिया और जोर लगाने लगा ।

दाँत दबाकर , आँख मीचकर बहुत जोर उसने लगाया । सिरपर पसीना आ गया ; किंतु गट्ठरकी टहनियाँ नहीं टूटीं । उसने गट्ठर शिवसहायको दे दिया । उसने भी जोर लगाया , पर तोड़ नहीं सका । इस प्रकार सब लड़कोंने बारी – बारीसे गट्ठर लिया और जोर लगाया ; किंतु कोई उसे तोड़नेमें सफल नहीं हुआ ।

मातादीनने गट्ठर खोलकर एक – एक टहनी सब लड़कोंको दे दी । इस बार सभीने टहनियोंको पटापट तोड़ दिया । अब मातादीन बोला – ‘ देखा , ये टहनियाँ जबतक एक साथ थीं तुममेंसे कोई उन्हें तोड़ नहीं सका और जब ये अलग – अलग हो गयीं तो तुमने सरलतासे सबको तोड़ डाला ।

इसी प्रकार यदि तुमलोग आपसमें झगड़ते और अलग रहोगे तो दूसरे लोग तुमलोगोंको तंग करेंगे और दबा लेंगे । लेकिन यदि तुमलोग परस्पर मेलसे रहोगे तो कोई तुमसे शत्रुता करनेका साहस ही नहीं करेगा । ‘ मातादीनके लड़कोंने उसी दिनसे आपसमें झगड़ना छोड दिया । वे मेलसे रहने लगे ।

             वैद्यजी भगाये गये

देवीसहायका लड़का भगवतीप्रसाद बीमार हो गया था । वह गरमीकी दोपहरीमें घरसे चुपचाप आम चुनने भाग गया और वहाँ उसे लू लग गयी । उसे जोरसे ज्वर चढ़ा था । देवीसहायने वैद्यजीको अपने लड़केकी चिकित्साके लिये बुलाया ।

– वैद्यजीने आकर लड़केकी नाड़ी देखी और कहा- ‘ इसे लू लगी है । यह बड़ा चञ्चल जान पड़ता है । दोपहरीमें घरसे बाहर जानेका क्या काम था ? यह बहुत बुरी बात है । जो लड़के अपने बड़ोंकी बात नहीं मानते , वे ऐसे ही दुःख भोगते हैं ।

‘ वैद्यजी उपदेश देते जाते थे और लड़केको डाँटते जाते थे । देवीसहायको यह बात अच्छी नहीं लगी । उन्होंने कहा – ‘ वैद्यजी ! मैंने आपको बुलाकर भूल की । आप अपनी फीस लीजिये और जाइये । मैं अपने लड़केकी चिकित्सा किसी अन्य वैद्यसे करा लूँगा । आप तो बीमार लड़केको डाँटकर और दुःखी कर रहे हैं ।

‘ वैद्यजी बेचारे लज्जित होकर चले गये । जो दुःखमें पड़ा है , उसे उस समय उसकी भूलें बताकर और उपदेश देकर अधिक दुखी नहीं करना चाहिये । उस समय तो उससे सहानुभूति दिखाना और

उसकी सेवा करना ही उचित है ।

दो टट्टू 

एक व्यापारीके पास दो टट्टू थे । वह उनपर सामान लादकर पहाड़ोंपर बसे गाँवमें ले जाकर बेचा करता था । एक बार उनमें से एक टट्टू कुछ बीमार हो गया । व्यापारीको पता नहीं था कि उसका एक टट्टू बीमार है । उसे गाँवमें बेचनेके लिये नमक , गुड़ , दाल , चावल आदि ले जाना था ।

उसने दोनों टट्टुओंपर बराबर – बराबर सामान लाद लिया और चल पड़ा । – ऊँचे – नीचे पहाड़ी रास्तेपर चलनेमें बीमार टट्टूको बहुत कष्ट होने लगा । उसने दूसरे टट्टूसे कहा- ‘ आज मेरी तबीयत ठीक नहीं है । मैं अपनी पीठपर रखा एक बोरा गिरा देता हूँ , तुम यहीं खड़े रहो ।

हमारा स्वामी वह बोरा तुम्हारे ऊपर रख देगा । मेरा भार कुछ कम हो जायगा तो मैं तुम्हारे साथ चला चलूँगा । तुम आगे चले जाओगे तो गिरा बोरा फिर मेरी पीठपर रखा जायगा ।

‘ दूसरा टट्टू बोला – ‘ मैं तुम्हारा भार ढोनेके लिये क्यों खड़ा रहूँ ? मेरी पीठपर क्या कम भार लदा है ? मैं अपने हिस्सेका ही भार ढोऊँगा । ‘ बीमार टट्टू चुप हो गया । लेकिन उसकी तबीयत अधिक खराब हो रही थी । चलते समय एक पत्थरके टुकड़ेसे ठोकर खाकर वह गिर पड़ा और गड्ढेमें लुढ़कता चला गया ।

दूसरा टट्टू बोला – ‘ मैं तुम्हारा भार ढोनेके लिये क्या खड़ा रहूँ ? मेरी पीठपर क्या कम भार लदा है ? मैं अपने हिस्सेका ही भार ढोऊँगा । ‘ बीमार टट्टू चुप हो गया । लेकिन उसकी तबीयत अधिक खराब हो रही थी । चलते समय एक पत्थरके टुकड़ेसे ठोकर खाकर वह गिर पड़ा और गड्ढेमें लुढ़कता चला गया ।

व्यापारी अपने एक टट्टूके मर जानेसे बहुत दुखी हुआ । वह थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा । फिर उसने उस टट्टूके बचे हुए बोरे भी दूसरे टट्टूकी पीठपर लाद दिये । अब तो वह टट्टू पछताने लगा और मन – ही – मन कहने लगा – ‘ यदि मैं अपने साथीका कहना मानकर उसका एक बोरा ले लेता तो यह सब भार मुझे क्यों ढोना पड़ता । ‘ संकटमें पड़े अपने साथीकी जो सहायता नहीं करते उन्हें पीछे पछताना ही पड़ता है ।

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