भीष्म पितामह का असंगत ताटस्थ्य ।
भीष्म पितामह का असंगत ताटस्थ्य ।
देश के निकट के भूतकाल में देखें तो स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल घोषित किया था और इस तरह लोकतंत्र का गला घोंटा था तो जनता की नजर सर्वप्रथम आचार्य विनोबा भावे पर गई थी । विनोबा भावे ने ऐसे समय में देश को जो अपेक्षित था , ऐसा नेतृत्व उपलब्ध कराकर इंदिरा गांधी को रोकने के बजाय उनका समर्थन कर रहे हों , इस तरह ‘ यह आपात काल तो अनुशासन पर्व है ऐसा कहा था । द्यूतसभा में जब द्रौपदी का वस्त्रहरण हुआ , उस समय इस निर्लज्ज दृश्य के साक्षी के रूप में स्वयं पितामह भीष्म थे और द्रौपदी ने पितामह से इस अधर्म के विरोध में प्रश्न किया तो उन्होंने दोनों हाथ ऊपर उठाकर तटस्थता धारण की थी । भीष्म का यह आचरण उनके पात्र के साथ असंगत लगता है । भीष्म ने यदि ऐसा न किया होता तो महाविनाश संभवतः टाला जा सकता था । इसी प्रकार कृष्ण के दौत्य कर्म के समय भी भीष्म ने यद्यपि दुर्योधन को समझाया तो है , परंतु सत्ता के विशेष ताप से उसे रोका नहीं । भीष्म ने चाहा होता तो वे दुर्योधन और दुःशासन को रोक सकते थे । भीष्म की इस तटस्थता के विषय में समाधान करना कठिन लगता है । इसके विषय में कुछ अधिक प्रकाश डाला जा सकता है ?
कृष्ण और भीष्म ये दोनों महाभारत के पात्रों की सृष्टि में सबसे उत्तुंग शिखर हैं । इन दोनों के व्यवहार में अनेक स्थलों पर विसंवाद दिखाई देता रहा है । कृष्ण के व्यवहार में ऐसे जो विसंवाद हैं , उनके विषय में बहुत अधिक लिखा गया है और इन विसंवादों को कृष्ण के पात्र के सातत्य को दृष्टि में रखकर मूल्यांकित करने का प्रयत्न भी हुआ है ।
ऐसे प्रयत्न अधिकांशतः तार्किक होते हैं और उनके पीछे यदि कोई प्रमाणों की अपेक्षा रखे तो ऐसे प्रमाण महाभारत में नहीं मिलेंगे । कृष्ण के स्पष्ट विसंवादी व्यवहार को संवादी और न्यायसंगत ठहराने के जो विश्लेषण हुए हैं , वे कृष्ण के पात्र में इतने सुसंगत रहे हैं कि उनके विषय में विशेष अवरोध का अवकाश नहीं रहता ।
इसके विपरीत , भीष्म के कई व्यवहारों के विषय में स्पष्टतः प्रश्न पैदा होते हैं । परंतु इस विषय में महाभारत का अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने या तो अधिक विचार नहीं किया है अथवा जो भी विचार हुआ है , उसे विशेष प्रसिद्धि मिली नहीं । वास्तव में महाभारत के कथानायक पद पर कृष्ण नहीं बल्कि भीष्म रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है ;
क्योंकि भीष्म ही एक ऐसे पात्र हैं कि जो इस महाकाव्य महाग्रंथ में सबसे अधिक बार दिखाई देते हैं ; इतना ही नहीं , इससे भी आगे बढ़कर कहें तो आदि के अंत तक उसकी व्याप्ति विस्तृत है । प्रस्तुत प्रश्न का विचार करने के पूर्व हम जिन परिस्थितियों में शांतनु राजा का यह पुत्र कुमार देवव्रत से भीष्म बन उस घटना को याद कर लेना चाहिए ।
पिता शांतनु के लिए निषादराज से उसकी पुत्री योजनगंधा की माँग की , उस समय निषादराज जो शर्त रखी , उसमें शांतनु राजा के उत्तराधिकारी के रूप में पाटलिपुत्र देवव्रत नहीं , बल्कि पुत्री योजनागंधा की संतानें अभिषिक्त हों , ऐसा कहा है , कुमार देवव्रत ने एक क्षण का विलंब किए बिना नितांत निर्लिप्त भाव से कह दिया :
ऐवमेतत करिष्यामि यथा त्वमनुभीषसे ।
योस्यां जनिष्यते पुत्रः स नो राजा भविष्यति ॥ •
अर्थात् निषादराज की माँग के अनुसार उनकी पुत्री योजनगंधा यदि पिता शांतनु के साथ विवाह करेगी तो जो संतति होगी , वही राजा बनेगी , इसे देवव्रत ने स्वीकार किया । परंतु निषादराज चतुर राजनयिक था । देवव्रत तो सत्यप्रतिज्ञ हैं , इसमें उसे शंका नहीं थी , पर इसके बाद उनकी संतानें पैदा होंगी , उन्हें तो इस प्रतिज्ञा का बंधन होगा ही नहीं ।
ऐसी स्थिति में उसके भावी दौहित्र के हित की रक्षा कैसे होगी ? राजा मोहांध हैं और कुमार पुत्रधर्म में आकंठ डूबा है , इसका साक्षात्कार होते ही उसने अपनी शर्त में सहज विस्तार किया— “ कुमार ! आपकी सत्यवादिता पर तो विश्वास है , पर आपके पुत्रों का क्या ? आपके पुत्र • यदि आपकी इस प्रतिज्ञा को स्वीकार नहीं करेंगे तो मेरे दौहित्र का कल्याण कैसे होगा ? ”
और यहाँ भीष्म के जीवन का भव्यतम क्षण आता है । एक क्षण का भी विलंब किए बिना भीष्म ने कह दिया कि— “ हे निषादराज ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करूँगा और अपुत्रावस्था में ही जीवन समाप्त करूँगा । ” आजीवन ब्रह्मचर्य के पालन की इस प्रतिज्ञा के मूल में माता सत्यवती की संतति ही हस्तिनापुर के सिंहासन पर सदैव स्थापित हो , यह उद्देश्य रहा है , यह याद रखना चाहिए ।
जैसाकि ऊपर कहा है ‘
योस्यां जनिष्यते पुत्रः स नो राजा भविष्यति ॥ ‘
भीष्म का यह वाक्य इसके बाद के भीष्म के व्यवहार को • समझने के लिए मार्गदर्शक बनेगा । एक तरह से देखें तो माता सत्यवती के दो पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य की अकाल और अपुत्र अवस्था में मृत्यु हो गई और उसके साथ ही कुरुवंश की इतिश्री हो जाती है । इन दोनों दिवंगत राजपुत्रों की विधवाओं द्वारा जनमे धृत और पांडु का वास्तव में कुरुवंश के रक्त के साथ कोई संबंध नहीं ।
इनका जन्म माता सत्यवती के कौमार्यावस्था के पुत्र महर्षि व्यास के साथ हुए शारीरिक संबंधों से हुआ है , इसलिए एक तरह से देखें तो धृतराष्ट्र से शुरू होती संतति में यद्यपि कुरुवंश का रक्त नहीं , पर माता सत्यवती का रक्त अवश्य बहता है । दुर्योधन आदि कौरवों का जन्म माता गांधारी की कोख और पिता धृतराष्ट्र के वीर्य से हुआ है ।
पांडु से पुत्रों यानी कि पांडवों के लिए ऐसा कहना संभव नहीं । युधिष्ठिर और उनके भाई पिता पांडु के वीर्य से पैदा नहीं हुए । उनका जन्म इंद्र , वायु आदि अन्य तत्त्वों से हुआ है । इस तरह धर्म और न्याय भले ही सतत पांडवों के पक्ष में रहे हों , परंतु सत्यवती की संतानें होने का गौरव तो भले ही बहुत कम प्रमाण में हो , पर दुर्योधन और उनके भाइयों को ही प्राप्त हुआ है ।
पांडवों को यह गौरव प्राप्त नहीं हो सकता । इस भूमिका के साथ यदि हम भीष्म के इस असंगत कहे जानेवाले बरताव को समझने का प्रयास करेंगे तो संभवतः ऊपर से दिखाई देनेवाली इस असंगति के पीछे जो संवादिता रही है , उसे पूरी – पूरी नहीं , तो भी बहुतांश में जाना जा सकता है । द्यूतसभा में द्रौपदी वस्त्रहरण के समय द्रौपदी ने पितामह भीष्म से जो प्रश्न किया है , उसमें पूछा है कि हे पितामह ! इस द्यूत में मैं जीती हुई मानी जाऊँ कि नहीं , इसका स्पष्ट उत्तर मैं आपसे जानना चाहती हूँ ?
भीष्म के लिए यह बहुत ही कठिन क्षण रहा होगा , इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है । द्रौपदी के इस प्रश्न का उत्तर भीष्म यदि हाँ में दें यानी कि दुर्योधन ने तुम्हें जीता है , वह धर्मपूर्वक नहीं , ऐसा कहें तो • पराजित पांडव और खास करके भीम और अर्जुन एक भी क्षण के विलंब के बिना पांडवों की इस पराजय को विजय में बदल डालें , ऐसा उनका सामर्थ्य था ।
दुर्योधन के पक्ष अधर्म है , ऐसा कहने का अर्थ हस्तिनापुर के सिंहासन पर से धृतराष्ट्र के पुत्रों को दूर कर देने जैसा ही होता । भीष्म जिसे अधर्म मानते हों , उसे द्रोण भी कैसे धर्म मान सकते थे ?
इस प्रकार कौरव पक्ष से यदि भीष्म और द्रोण बाहर हो जाते तो उनकी पराजय निश्चित हो जाती । दुर्योधन की पराजय का संकेत यही होता कि युधिष्ठिर हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ और यदि ऐसा होता तो भीष्म के उस प्रख्यात वचन
योस्यां जनिष्यते पुत्रः स नो रजा भविष्यति ‘
का फलितार्थ व्यर्थ जाता । इस वचन को लक्ष्य में रखकर ही संभवतः भीष्म ने वारणावत के लाक्षागृहमें से लंबा समय अज्ञातवास में रहकर वापस लौटे पांडवों को , युधिष्ठिर के युवराज पद पर इसके पूर्व ही स्थापित होने के बावजूद उन्हें सिंहासन देने के बदले इंद्रप्रस्थ की नई नगरी बसाने के लिए भेज दिया ।
इसके पहले भरतवंशियों में कभी भी राज्य का विभाजन नहीं हुआ था । इस क्षण युधिष्ठिर के युवराज पद पर होने के नाते हस्तिनापुर का राज्य उन्हें मिले और यदि विभाजन करना ही हो तो नया राज्य दुर्योधन को मिले , यह अधिक बुद्धिगम्य हल लगता है । ऐसा होने के बावजूद भीष्म ने वास्तविकता को स्वीकार करते हुए अपनी प्रतिज्ञा के संदर्भ में हस्तिनापुर का राज्य तो दुर्योधन को ही दिया और नए राज्य में पांडवों को भेजा ।
भीष्म के मन में ऐसा कोई विचार रहा होगा कि नहीं , इस विषय में महर्षि व्यास अपने इस कालजयी ग्रंथ में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं करते हैं , पर सत्यवती की संतान ही शांतनु राजा का उत्तराधिकारी बना रहेगा , ऐसा जो आश्वासन उन्होंने निषादराज को दिया था , उसके पूरे – पूरे अर्थ में नहीं , तो भी अल्पांश में भी पालन करने का संतोष तो तभी लिया जा सकता था , जब हस्तिनापुर के सिंहासन पर दुर्योधन आरूढ़ होता ।
भीष्म की दुविधा इन परिस्थितियों में देखने लायक है । दुर्योधन के नाम से महाभारत में आगे चलकर एक उक्ति कही गई है । यह उक्ति सर्वस्वीकृत नहीं , पर महाभारत की किसी – किसी में आवृत्ति मिलती है । दुर्योधन कहता है , ‘ ‘
जानामि धर्मम् न च मे प्रवृत्ति , जानाम्यधर्मम् न च मे निवृत्ति । ”
यह बात दुर्योधन से भी अधिक भीष्म के लिए प्रयुक्त की जा सकती है । भीष्म की संभावित मनोभूमिका के विषय में इतना विश्लेषण करने के बाद जो निष्कर्ष प्राप्त होता है उसके आधार पर भीष्म के समग्र जीवन को और अकल्पनीय लगते व्यवहार को समझना सुगम हो जाएगा ।
फिर एक बार यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि भीष्म के इस मनोगत के विषय में हम निरी मनोवैज्ञानिक संभावना के आधार पर ही ये मनोयत्न प्रस्तुत कर रहे हैं । महाभारत में महामनीषी व्यास ने हमें कहीं भी ऐसा स्पष्ट संकेत नहीं दिया है । द्यूतसभा में द्रौपदी ने जो धारदार प्रश्न पूछा है , उसका उत्तर देते हुए भीष्म द्वारा ‘ पुरुष तो अर्थ का दास है ‘
ऐसा कहे जाने का उल्लेख हमारे कथाकार बार – बार करते हैं , पर यह बात सत्य से परे है । यहाँ पितामह भीष्म ने ऐसा विवश कथन कहा नहीं । यहाँ तो भीष्म ने मात्र इतना ही कहा है कि- ” हे कल्याणी ! धर्म की गति अति सूक्ष्म है और महात्मा पुरुष भी धर्म को पूरा – पूरा नहीं समझ सकते । ” यहाँ तक तो भीष्म का यह कथन सर्वस्वीकार्य बन सकता है , पर इसके बाद उन्होंने जो कहा है , वह विदास्पद होने की क्षमता रखे , ऐसा है—
” संसार के समर्थ व्यक्ति जिसे धर्म कहते हैं , उसे ही बाकी के लोग धर्म मान लेते हैं । सामर्थ्य विहीनों के लिए तो समर्थ पुरुष ने जो कहा हो , वही धर्म है । धर्म का स्वरूप ऐसा सूक्ष्म और गहन होने के कारण तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर यथार्थ देना मेरे लिए कठिन है । मुझे लगता है कि तुम्हारे इस प्रश्न का निराकरण करने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर ही सबसे अधिक योग्य व्यक्ति हैं । ”
” भीष्म के इस उत्तर से स्पष्ट समझा जा सकता है कि उन्होंने धर्म पांडवों के पक्ष में है और द्रौपदी अधर्म से जीती गई है , ऐसा कहना टाला है । परंतु इसके साथ ही धर्मविषयक टीका – टिप्पणी करके सामर्थ्य का जो प्रभाव दरशाया है , वह एक तरह से देखें तो लाचारी में से प्रकट होती वेदना की ही अभिव्यक्ति हैं ।
बलवान पुरुष जो मार्गरेखा खींच दे , उसे ही यदि धर्म कहें तो विश्व में अनेक अनर्थ पैदा हो सकते हैं । भीष्म जैसे महापुरुष यह बात न समझते रहे हों , ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? अतः भीष्म की इस अभिव्यक्ति में सच्चाई से भी अधिक विफलता में से प्रकट होती वेदना की बात प्रतिध्वनित हो रही हो , ऐसा लगता है ।
द्यूतसभा में भीष्म के इस व्यवहार के बाद ‘ उद्योगपर्व ‘ में जब महायुद्ध टालने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण विष्टिकार ( संधिदूत ) बनकर हस्तिनापुर आए , उस समय भीष्म द्वारा निभाई गई भूमिका के विषय में थोड़ा विचार करना न्यायोचित है । युद्ध के अंत में महासंहार से त्रस्त हुई माता गांधारी ने इस युद्ध को न टाल सकने के लिए कृष्ण को दोषी ठहराया तो उस समय कृष्ण कहते हैं ,
” हे माता ! युद्ध का निवारण करने के लिए तो आप और पितामह भीष्म भी समर्थ थे ही । ” कृष्ण ने चाहा होता तो अपने सामर्थ्य के प्रभाव से दुर्योधन को डराकर युद्ध को रोक सकते थे , ऐसा संकेत गांधारी देती है । यहाँ अधिक महत्त्व की बात यह है कि कृष्ण के चित्त में युद्ध के निवारण के लिए भीष्म भी सुयोग्य व्यक्ति थे , ऐसा प्रतिपादित हुआ है ।
भीष्म के इस सामर्थ्य के विषय में किसी प्रकार की शंका को स्थान नहीं । जो भीष्म अकेले हाथ समग्र आर्यावर्त के राजाओं को पराजित करके छोटे भाइयों के लिए राजकुमारियों को बलपूर्वक ले आए थे , जिस भीष्म ने साक्षात् काल समान परशुराम को विजेता नहीं होने दिया था , उस भीष्म ने विष्टि के प्रसंग के कुरुसभा में नगण्य भूमिका निभाई है , यह निर्विवाद है ।
वय से जर्जरित होने के बावजूद विष्टि के समय उनका प्रताप और सामर्थ्य वैसा ही प्रचंड था और उन्होंने यदि दुर्योधन को अपने इस प्रताप से डराया होता या जरूरत पड़ने पर उसे बंदी बना लिया होता अथवा उसका वध भी कर दिया होता तो यह महासंहार अवश्य टाला जा सकता था और भीष्म के ऐसे कथित कृत्य के लिए किसी ने उनपर दोषारोपण भी न किया होता ।
इसके विपरीत इस क्षण भीष्म ने सौम्य कही जा सके , इस प्रकार की समझावट का मार्ग स्वीकारा है । वे दुर्योधन को द्यूतसभा में द्रौपदी की हुई अवहेलना से पांडवों को हुए क्लेश की बात याद दिलाते हैं और इस समय पांडवों का व्यवहार न्यायपूर्ण है , ऐसा परोक्ष संकेत भी दिया है ।
इसके अतिरिक्त थोड़े समय पहले ही विराट नगरी की सीमा पर अकेले अर्जुन के हाथों भीष्म , द्रोण , कर्ण और दुर्योधन सहित समग्र सेना की जो पराजय हुई थी , उसकी याद दिलाकर भय का संकेत भी दिया है । यदि दुर्योधन इंद्रप्रस्थ का राज्य पांडवों को वापस लौटाए तो हस्तिनापुर के सिंहासन पर दुर्योधन का सामर्थ्य आर्यावर्त में कई गुना बढ़ जाएगा , ऐसा लालच भी दिया है ।
पर अंत में तो जैसे विनती कर रहे हों , इस तरह इतना ही कहा है कि यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो हमें युधिष्ठिर के विरुद्ध युद्ध करना पड़ेगा , यह महान् दुःखदायक घटना होगी । इस तरह समझाने के बाद भी भीष्म ने दुर्योधन को डराने के बदले एक प्रकार से अप्रत्यक्ष रूप से अभयवचन भी दिया है कि अंततः यदि युद्ध अनिवार्य होगा तो भीष्म हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा के लिए दुर्योधन के पक्ष में रहकर लड़ेंगे ।
इस अंतिम बात में भीष्म के चित्त में स्थित संक्षोभ की अनुगूँज मुखरित हुई है । इस अनुगूंज में फिर एक बार हमें वर्षों पूर्व कुमार देवव्रत के निषादराज के समक्ष कहे गए शब्दों की ही ध्वनि अब पितामह बने भीष्म के रोम – रोम से प्रतिध्वनित हो रहा ही जो इस प्रकार सुनाई देती है : एवमेतत करिष्यामि यथा त्वमनुभाषसे ।
एवमेतत करिष्यामि यथा त्वमनुभाषसे ।
येस्यां जनिष्यते पुत्रः स नो राजा भविष्यति ॥
अर्थात् निषादराज की माँग के अनुसार उनकी पुत्री योजनगंधा माता सत्यवती की जो संतति होगी , वही राजा होगी । माता सत्यवती के रक्त का प्रत्यक्ष तो नहीं , परोक्ष रूप से ही सही , जो थोड़ा – बहुत योगदान था , वह दुर्योधन में ही था ।
इस योगदान की रक्षा करने के लिए भीष्म ने चुपचाप अपने अंतर में घुमड़ती व्यथा सँभालकर रखी थी और सपाटी पर ऐसा दिखावा किया कि जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ उनके व्यवहार पर उँगलियाँ न उठाएँ । भीष्म का प्रतिज्ञापालन के शब्दों के लिए किया गया यह मनोमंथन किस सीमा तक उचित कहा जा सकता है , यह प्रश्न अलग चर्चा का विषय बन सकता है , परंतु भीष्म ने जिसे अपने जीवन का एक अनिवार्य अंग माना , उस प्रतिज्ञा का अर्थघटन उनका स्वयं का हो सकता है ।
श्रेष्ठतर महापुरुषों को हम हमेशा अपने सामान्य मापदंडों से मूल्यांकित नहीं कर सकते । गिरिराज हिमालय के उत्तुंग शिखर को हम भले ही फुट के आँकड़ों द्वारा भूगोल में पढ़ते हों , परंतु कोई फुटपट्टी लेकर यदि हम इस शिखर को इसी तरह मापने जाएँ तो शिखर की ऊँचाई कभी हाथ में नहीं आएगी । बारह इंच के फुटे से शायद ही किसी पहाड़ी को नापा जा सकता है , नगाधिराज हिमालय को नहीं । महापुरुषों के जीवन में ऐसा सतत होता रहा है ।
हमारी दृष्टि तत्कालीन लाभ अथवा हानि पर केंद्रित रहती है , परंतु महापुरुष महामनीषी भी होता है , इसलिए उसकी दृष्टि नितांत वर्तमान पर नहीं टिकी होती है , बल्कि आनेवाले कल , आनेवाली पीढ़ी , पीढ़ियों के बाद के इतिहास पर भी होती है । इतिहास को जो पहचान सकता है , बीच वह विशुद्ध महापुरुष है । ऐसा पुरुष , इसके लिए अपने समयकालीनों के बीच उपेक्षित हो , ऐसा भी होता है । यह मर्यादा मानवजाति की मर्यादा है और इसको स्वीकार किए बिना काम नहीं चलता ।
हमारे वर्तमान युग के एक संत , साधक और विचारक स्वामी आनंद ने ऐसे महापुरुषों को ‘ लोकोत्तर पुरुष ‘ कहा है और ऐसे लोकोत्तर पुरुषों के लिए ‘ सुत , वित , द्वारा शीश समर्पित ‘ सहजकर्म है । यह सहजकर्म सब के लिए समानरूप से सहज नहीं होता और इसीलिए लोकोत्तर पुरुष के विषय में विचार करते समय त्वरित निर्णय करने में समझदारी नहीं । केवल इतिहास ही इसका उचित न्याय कर सकता है । कालपुरुष की आँख के लिए यथासमय यह दर्शन सुलभ होता है ।
अच्छा लगे तो शेयर अवश्य करे।
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