पूर्णत्व की अनुभूति आध्यात्मिक ज्ञान।

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पूर्णत्व की अनुभूति ।

समग्र सृष्टि में स्त्री और पुरुष , इन दो अद्भुत तत्त्वों का निर्माण हुआ है । ये दो घटक तत्त्व सहज और परस्पर पूर्णत्व के लिए अनिवार्य तत्त्व होने के बावजूद आज इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभकाल में भी इन दोनों के बीच का संबंध समाज में जो सर्वसामान्य स्वीकृति पानी चाहिए , वह नहीं पाया है । लहू के संबंधों से ऊपर उठकर स्त्री और पुरुष के बीच किसी भी प्रकार के सख्य को समाज ने नीतिमत्ता या धर्मोपदेश के मंत्रों के दायरे में समेट लिया है ।

परिणामस्वरूप आज भी ऐसे सहज सख्य को दूषित और अनैतिक माना जाता है । महाभारतकार ने तमाम मानवीय संबंधों का आलेखन किया है । लहू के संबंधों से ऊपर उठकर भी स्थापित होनेवाले ऐसे सख्य को महाभारतकार किस दृष्टि से देखता है , इस विषय में कुछ कहा जा सकता है ?

सही कहें तो स्त्री और पुरुष दोनों सृष्टि के कोई दो अलग – अलग घटक नहीं बल्कि एक ही घटक के दो अपूर्ण तत्त्व हैं । इन दोनों अपूर्ण तत्त्वों के सायुज्य से ही एक पूर्ण घटक की संप्राप्ति होती हैं । स्त्री और पुरुष इन दोनों शब्दों से कोई निरी दैहिक विभिन्नता ही नहीं प्रकट होती । दैहिक विभिन्नता तो एक स्थूल रूप है और स्थूलता की दृष्टि से पूर्णत्व की प्राप्ति हो ही नहीं सकती ।

मनोजगत् का संबंध है , वहाँ तक प्रत्येक पुरुष के शरीर में स्त्रीत्व का अंश हमेशा खाली होता है । इसी प्रकार स्त्री के चित्ततंत्र के अंदर पुरुषत्व का भी एक अंश सदैव खाली रहता है । इस खालीपन को भरने के लिए इन दोनों तत्त्वों को परस्परावलंबी होना ही पड़ता है । दैहिक सायुज्य स्थूल भूमिका है ।

चैतसिक भूमिका के ऊपर जो पूर्णत्व प्राप्त होता है , उस पूर्णत्व में देह का पूरा – पूरा विगलन न भी हो जाता हो , तो भी उसका अस्तित्व एक साधन जितना ही रहता है । इस भूमिका पर पहुँचने के लिए किसी भी संबंध को कोई भी नामामिधान करना अनिवार्य नहीं संबंध को शिष्टता की इस मगरिखा  ने कोई न कोई नाम दिया है ।

जिन संबंधों को निश्चित नामोनिशान प्राप्त नहीं होता है , उसे ‘ मैत्री ‘ जैसे व्यापक शब्द द्वारा हम समाहित ( आवृत्त ) कर लेते हैं । यहाँ प्रश्न का हार्द इस मैत्री शब्द के साथ संलग्न है । सजातीय ( स्त्री के साथ स्त्री की और पुरुष के साथ पुरुष की ) मैत्री के अनगिनत उदाहरण महाभारत सहित विश्वसाहित्य के अनेक ग्रंथों में प्राप्त होते हैं ।

कृष्ण और द्रौपदी के बीच की विजातीय ( पुरुष और स्त्री के बीच की ) मैत्री जैसा एक भी उदाहरण महाभारत सहित विश्वसाहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं । संबंध की दृष्टि से देखें तो द्रौपदी कृष्ण की बुआ कुंती के पुत्रों की संयुक्त पत्नी है ।

उसे यदि बड़े भाई युधिष्ठिर की ही पत्नी मानें तो वह कृष्ण की भाभी यानी कि माता समान पूजनीय मानी जाएगी और यदि छोटे भाई नकुल या सहदेव की पत्नी मानें तो वह पुत्रवधू समान कही जाएगी । कृष्ण के द्रौपदी के साथ के संबंधों में यह मातृतुल्य भाभी या पुत्रवधू जैसे किसी संबंध का कोई अंश दूर – दूर तक कहीं दिखाई नहीं देता है , फिर भी कृष्ण और द्रौपदी के बीच का जो संबंध आलेखित हुआ है ,

उसे स्त्री – पुरुष के बीच सख्य के दूसरा कोई नाम नहीं दिया जा सकता है । गांधीवादी विचारक दादा धर्माधिकारी ने इस सख्य को अंग्रेजी भाषा में Brosterhood

जैसे नाम से नवाजा है । Brosterhood शब्द Brother और Sister ये दोनों संबंध भी निश्चित अपेक्षाओं के साथ स्थापित हुए रहते हैं , इसलिए Brosterhood शब्द में भी वे अदृश्य अपेक्षाएँ झाँकती हुई लगती हैं ।

कृष्ण और द्रौपदी के बीच के संबंध ऐसी किसी भी निश्चित अपेक्षा से ऊपर उठे हुए हैं , इसलिए संभवतः वे Brotherhood से भी आगे सख्य के ही अनुरूप हैं । रसप्रद बात यह है कि कृष्ण और द्रौपदी के बीच का प्रथम मिलन द्रौपदी स्वयंवर के अंत में हुआ है । इस प्रसंग के समय द्रौपदी लग्नोद्यता कुमारिका है , जबकि कृष्ण , पुत्र , पौत्र सहित इस अवसर पर आए हैं ।

मत्स्यवेध के बाद तापस वेशधारी पांडव द्रौपदी को लेकर पांचाल नगरी के बाहर अपने ठिकाने पर जाते हैं , उस समय कृष्ण उनसे पहली बार वहाँ आकर मिलते हैं । यहाँ कृष्ण ने बुआ कुंती तथा युधिष्ठिर आदि पांडवों के साथ संवाद किया है । उस समय कृष्ण ने द्रौपदी के साथ कोई संवाद नहीं किया ।

कृष्ण और द्रौपदी ने एक – दूसरे को इस अवसर पर पहली बार देखा है , वे मिले नहीं । हस्तिनापुर की द्यूतसभा में जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ तो कृष्ण ने उसकी लाज बचाई थी , यह बात कथाकारों ने प्रचलित की है । वास्तव में वस्त्रहरण की यह घटना महाभारत में एक ही श्लोक में पूरी हो जाती है । ( सभापर्व , अध्याय 61 , श्लोक 41 ) ।

इसमें मात्र इतना ही इंगित है कि द्रौपदी के वस्त्र जब खींचे जा रहे थे , उस समय अंदर से अनेक प्रकार के वस्त्र निकलने लगे । यहाँ द्रौपदी ने वस्त्र पूरा करने की विनती की थी और कृष्ण ने उसे पूरा किया था , ऐसी कोई बात महाभारत में नहीं है । कृष्ण और द्रौपदी के बीच खुले मन से संवाद हुआ हो , ऐसी घटना राजसूय यज्ञ के अंत में खांडव वन विहार के अवसर पर दिखाई देती है । 

यहाँ भी कृष्ण , सत्यभामा , अर्जुन , द्रौपदी आदि क्षण – दो क्षण इस मुक्त विहार का आनंद लें , न लें कि उसी समय खांडववन दहन का प्रकरण खड़ा हो गया है और फिर भी इतना अल्प सामीप्य होने के बावजूद उन दोनों के बीच कैसी मानसिक भूमिका पैदा हुई थी , इसका प्रमाण द्यूतसभा के अंत में पांडवों ने जब अरण्यवास स्वीकार किया है , उस समय मिलता है ।

अरण्य ( वन ) में कृष्ण जब पांडवों से मिलने के लिए आते हैं तो द्रौपदी वस्त्रहरण की अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए कहती है- ” पार्थ की पत्नी , आपकी सखी और धृष्टद्युम्न की बहन होने के बावजूद मुझे भरी सभा में खींचकर लाया गया । ” ( यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रौपदी ने स्वयं को मात्र पार्थ यानी कि अर्जुन की पत्नी बताया है ।

कृष्ण और द्रौपदी के बीच कैसा परम सख्य स्थापित हुआ था , उसका यह संकेत है । ) ” उन दोनों के संबंधों में कहीं भी संकोच अथवा गोपनीयता नहीं है । द्रौपदी सरेआम कृष्ण से कहती है- ” हे मधुसूदन , पति मेरा नहीं , पुत्र , पिता या भाई – भतीजे मेरे नहीं और हे कृष्ण ! आप भी मेरे नहीं ।

” इन “ आप भी मेरे नहीं ” शब्दों में जो व्यथा है , उसमें कृष्ण के प्रति सख्य और श्रद्धा पूर्ण रूप से प्रकट हुई है । इतना ही नहीं , ” कृष्ण , मैं आपकी प्रिय सखी ” यह कहने में भी उसे कोई संकोच नहीं हुआ । आज हजारों वर्ष बाद भी इस मैत्री या सख्य का शतांश भी समझा जा सके या उसका आस्वाद लिया जा सके , ऐसी परिस्थिति का विचार भी बहुत दूर है ।

कृष्ण- द्रौपदी के सख्य के विषय में कुछ बौद्धिकों ने भ्रांति भी फैलाई है । युद्ध की पूर्व संध्या पर उपालव्य से हस्तिनापुर वापस लौटे संजय ने ‘ उद्योगपर्व ‘ में ऐसा कहा है कि वह जब कृष्ण और अर्जुन से मिला , उस समय कृष्ण का मस्तक सत्यभामा की गोद में और उनके चरण द्रौपदी की गोद में थे । वास्तव में संजय जब शिविर में दाखिल हुआ तो उसने जो देखा , उसकी बात इस तरह लिखी गई है । ( उद्योग पर्व अध्याय 58 , श्लोक – 6 ) —

“ शत्रुदमन ये दोनों वीर जिन विशाल आसनों पर बैठे थे , वे सुवर्णमंडित थे । दोनों रत्नजडित और शोभायमान थे । ” अब जिस शिविर में अर्जुन और कृष्ण सिंहासनों पर बैठे हों , वहाँ सत्यभामा की गोद में सिर और द्रौपदी की गोद में चरण रखने की बात कैसे संभव है ? 

वास्तव में ‘ उद्योगपर्व ‘ में ही एक ऐसा श्लोक अवश्य है कि जिसमें ऐसा लिखा है कि श्रीकृष्ण के दोनों चरण अर्जुन की गोद में थे और अर्जुन का एक पग द्रौपदी की गोद में और दूसरा पग सत्यभामा की गोद में था । यह दृश्य नजर के सामने तादृश्य करना मुश्किल है । फिर भी अर्जुन का एक पग द्रौपदी की गोद में हो , तो भी इससे कोई अनर्थ पैदा नहीं होता है , क्योंकि कृष्ण अर्जुन के मन से पूजनीय थे और इस प्रकार सत्यभामा भी अर्जुन के लिए पूजनीय ही हों , इसमें घनिष्ठता का दर्शन होता है , अपवित्रता का नहीं ।

इसमें कहीं भी कृष्ण का मस्तक सत्यभामा की गोद में तथा चरण द्रौपदी की गोद में थे , ऐसा उल्लेख नहीं है । महायुद्ध के अंत में अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अर्जुन जब विजय यात्रा करता है तो युधिष्ठिर कृष्ण से पूछते हैं — ” हे कृष्ण ! अर्जुन में कौन सा ऐसा विशिष्ट लक्षण है कि उसे बार – बार यात्राएँ ही करनी पड़ती हैं ? इसके उत्तर में कृष्ण ने कहा है- ” हे राजा ! अर्जुन की पिंडलियाँ अधिक बड़ी हैं , इसलिए ऐसा होता है । ”

 वहाँ कृष्ण की बात सुनकर कृष्णा यानी कि द्रौपदी ने कृष्ण की ओर तिरछी नजर से देखा ऐसा श्लोक है । ( आश्वमेधिक पर्व , अध्याय 33 , श्लोक 20 ) । इसके बाद द्रौपदी ने ईर्ष्यालु तथा तिरछी नजर से कृष्ण की ओर देखा ।

कृष्ण ने भी द्रौपदी की इस दृष्टि को स्वीकार किया , क्योंकि द्रौपदी की नजर में केशव स्वयं अर्जुन का ही रूप थे । इस श्लोक ने कई भ्रांतियों को अवकाश दिया है । परंतु इसका समर्थन हो सके , ऐसा एक भी चरण पूरे महाभारत में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता है ।

द्रौपदी की नजर में यदि कृष्ण और अर्जुन एकरूप हों , तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं ; क्योंकि स्वयं कृष्ण ने ही आरण्यक पर्व में अर्जुन के साथ की अपनी एकता की बात की है । परंतु यही तो कृष्ण और द्रौपदी का अंतिम मिलन है । द्रौपदी ने उपालंभ से कृष्ण की ओर देखा और कृष्ण अर्जुन उसे एकरूप से , किसी भी आयास के बिना एक क्षण में यह घटना घट गई और इसके साथ कृष्ण द्रौपदी का सख्य भी जैसे समाप्त हो गया ।

इसके बाद पूरे साढ़े तीन दशक तक महाभारत की कथा चली है , पर उसमें कहीं भी कृष्ण द्रौपदी मिले नहीं । पूर्ण पुरुष या पूर्ण स्त्री की संभावना ऐसे किसी परम सख्य के बिना कोरी कल्पना ही बनी रहती है ! यह पूर्णत्व सपाटी पर हमेशा प्रकट ही हो , यह जरूरी नहीं पूर्णता की अनुभूति आंतरिक संवेदना है ।

इस संवेदना के साक्षात्कार के बिना जीवन सहजभाव से व्यतीत तो हो जाता है और अधिकांश मामलों में न तो खालीपन का अहसास होता है और न ही पूर्णत्व का परमात्मा ने प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा संवेदना तंत्र दिया नहीं , इसके पीछे भी सृष्टि के संतुलन की कोई परम दृष्टि ही होगी !


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