त्याग का स्थान सर्वोपरि आध्यात्मिक ज्ञान।
त्याग , अनासक्ति या दान अपनी सर्वोच्च भूमिका पर जिनके पास कुछ है , उनका ही भूषण है ? जिनके पास कुछ नहीं , ऐसे निम्न स्तर के लोग क्या उनकी बराबरी कर ही नहीं सकते ? इसका अर्थ क्या यह है
त्याग का स्थान सर्वोपरि।
भीष्म का त्याग , कृष्ण की अनासक्ति , कर्ण का औदार्य , युधिष्ठिर द्वारा अपने शासनकाल में किए गए राजसूय और अश्वमेघ यज्ञ तथा स्वयं अनेक यज्ञ और प्रभूत दान किए जाने पर दुर्योधन द्वारा मृत्यु के समय व्यक्त किया गया संतोष , यह सब क्या ऐसा संकेत नहीं देते हैं कि त्याग , अनासक्ति या दान अपनी सर्वोच्च भूमिका पर जिनके पास कुछ है , उनका ही भूषण है ? जिनके पास कुछ नहीं , ऐसे निम्न स्तर के लोग क्या उनकी बराबरी कर ही नहीं सकते ? इसका अर्थ क्या यह है कि महाभारत जो % 1 ड्ड 1 द्गह्य % हैं , उन्हें ही गौरव देता है और जो । ड्ड 1 द्ग – ठशलय हैं , उनके विषय में मौन है ? जिनके पास सत्ता , संपत्ति या ज्ञान जैसा कुछ नहीं अथवा न के बराबर है , वे इसका अनुसरण कैसे कर सकते हैं ?
महाभारत के केंद्र में मनुष्य है और महाभारतकार ने गा –
बजाकर कहा है कि
मुक्तं ब्रह्मा तदिदं वो ब्रवीमि । न मानुषाच्छेष्ठतरं हि किञ्चित् ॥
अर्थात् , एक अति गुह्य तत्त्व कहता हूँ कि मनुष्य से श्रेष्ठ दूसरा कुछ नहीं । भीष्म से लेकर अभिमन्यु तक के तमाम पात्रों के आलेखन और घटनाचक्र द्वारा केंद्र में स्थित मनुष्य को अधिक से अधिक व्यापक स्वरूप में समझने की यह समग्र रचना है । मनुष्य को उसके तमाम सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं के साथ परखने का कार्य अत्यंत दुष्कर है । मनुष्य एक अतिशय संकुल रचना है ।
इसके विषय में जितना जाना जा सका है , उससे अनेक गुना अधिक अज्ञात रहता है । अज्ञात के इस प्रदेश को पहचानने के लिए महाभारतकार ने मुख्य कथानकों के साथ उपाख्यानों या उपकथानकों को भी जोड़ा है । सही कहें तो एक लाख श्लोकों के महाग्रंथ महाभारत में बमुश्किल एक – तिहाई भाग के श्लोकों का ही संबंध मूल कथानक से है ।
शेष दो – तिहाई भाग के श्लोक ऐसे उपाख्यानों के लिए ही रचे गए हैं । परंतु अधिकांश भाग के उपाख्यान महाभारत के मूल हार्द को अधिक स्फुट करें , इस प्रकार आलेखित किए गए हैं । राग और त्याग के वैकल्पिक द्वंद्व में त्याग को ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ है ।
राग की अनुभूति का साक्षात्कार किए बिना यदि कोई त्याग की प्रशस्ति करता है तो वह झूठ है । परशुराम ने समग्र पृथ्वी को क्षत्रिय – विहीन करने के बाद जीती हुई इस तमाम भूमि का दान कर दिया था और स्वयं अकिंचन बनकर फिर एक बार अपने आश्रमधर्म को स्वीकार कर लिया था ।
परशुराम के पास भूमि या धन प्राप्त करने के लोभ में द्रोणाचार्य अपने पूर्व जीवन में गए थे । द्रोण को जो अभीप्सित था , ऐसा कोई धन परशुराम के पास बचा नहीं था । परंतु द्वार पर आया याचक ब्राह्मण खाली हाथ वापस न जाए , इसके लिए परशुराम ने उन्हें अपने पास जो शस्त्र विद्या थी उसका दान किया था । इस प्रकार दान की अपार महिमा का वर्णन महाभारतकार ने किया है ।
युधिष्ठिर ने अपने शासनकाल के दो चरणों में अलग – अलग यज्ञ किए थे । इंद्रप्रस्थ में पहले शासनकाल के दौरान उन्होंने राजसूय यज्ञ किया था और इस यज्ञ की जो व्यवस्था बैठाई गई थी , उसमें अपनी ओर से दान करने का अधिकार उन्होंने लघु भ्राता दुर्योधन को दिया था ।
राजकोष में जो भी धनराशि थी , उस सबको याचकों , भिक्षुकों , ब्राह्मणों को यथेष्ट दान देने का अधिकार उन्होंने युधिष्ठिर को सौंपा था और दुर्योधन को इस तरह आयोजन में शामिल करने का सुझाव कृष्ण ने ही दिया था । इस व्यवस्था के पीछे दो दृष्टिबिंदु थे- एक तो हस्तिनापुर से विदा लेने के बावजूद पांडवों ने जो अपार धनराशि प्राप्त की थी , उसका प्रत्यक्ष प्रमाण दुर्योधन प्राप्त कर सके , उससे उसे अपनी अल्प अंतर की दृष्टि का अहसास हो ।
दूसरी दृष्टि से देखें तो पांडवों की यह अपार संपत्ति पांडवों के प्रति अपने द्वेष के कारण दुर्योधन खुले हाथ बाँट देगा तो पांडवों को अधिक धर्मलाभ होगा । दुर्योधन के बदले कोई पांडव इस राजकोष का दान करने में विनियोग कर रहा होता तो उसमें लोभ या ममत्व पैदा होने की संभावना थी और ऐसा कुछ हो तो यज्ञ के अंत में सर्वस्व दान करने की जो भावना होती है , वह खंडित होती ।
इस प्रकार यहाँ भी दान की उच्च प्रणालिका का गौरव हुआ है । महायुद्ध के अंत में हस्तिनापुर के सिंहासन पर आरूढ़ हुए युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ किया है । इस यज्ञ के अंत में उन्होंने अपना संपूर्ण राजकोष ब्राह्मणों , ऋषियों और तापसों को दान कर दिया था ; इतना ही नहीं , बल्कि समग्र राज्य की भूमि उन्होंने महर्षि व्यास को दान में दे दी थी । महर्षि व्यास ने दान में मिली अपनी यह भूमि शासन करने के लिए युधिष्ठिर को वापस सौंप दी थी ।
युधिष्ठिर द्वारा व्यास को दी हुई स्वर्णमुद्राएँ व्यास ने अपनी पुत्रवधू कुंती को भेंट दी थीं । इस प्रकार दान का यह समग्र चक्र घूमता रहा है । युधिष्ठिर के यज्ञ में जो अपार दान हुआ , उससे प्रसन्न होकर समस्त ऋषियों ने और अतिथि राजवियों ने पांडवों की भूरि – भूरि प्रशंसा की और कहा कि ऐसा यज्ञ या ऐसा अपूर्व दान पहले कभी किसी ने नहीं किया ।
• ठीक इसी समय यज्ञभूमि के पास से एक नेवला गुजरा और इस नेवले ने अपना शरीर यज्ञभूमि में इधर – ऊधर रगड़कर अंत में हताश होकर वहाँ से चल दिया । सभी ने आश्चर्यचकित होकर गौर किया कि उस नेवले का आधा शरीर स्वर्णमंडित था । इस अर्धस्वर्णमंडित देह का रहस्य ऋषियों ने जब पूछा तो इस प्राणी ने अपनी जो कथा कही है , वह कथा मात्र सामान्यजन के ही नहीं , वरन् नितांत अकिंचन व्यक्ति के दान और त्याग की अपार महिमा सिद्ध करती है ।
कथा कुछ इस प्रकार है एक अकिंचन ब्राह्मण परिवार पहले कुरुक्षेत्र में निवास करता था परिवार में ब्राह्मण की पत्नी , उसका पुत्र और पुत्रवधू , इस प्रकार चार सदस्य थे । परिवार घोर दरिद्रता में जी रहा था और यथाशक्ति तपस्या में आयु निर्गमन कर रहा था । जीविका का कोई साधन उपलब्ध नहीं था , इसलिए यह ब्राह्मण रोज सुबह तड़के उठकर गाँव के बाहर मार्ग से होकर जानेवाले अन्न से भरे गाड़ों में से जो अन्न बिखर गए हों , उन्हें एकत्र कर लेता था ।
इस तरह से मिले अन्न पर परिवार के चारों जन दोपहर में एक जून का भोजन प्राप्त करते थे । एक बार इस प्रकार मध्याह्न भोजन लेने के लिए तैयार हुए परिवार को आँगन में एक अतिथि साधु ने दर्शन दिए । द्वार पर आए अतिथि ने भूखे होने के कारण भोजन की माँग की । परिवार के मुख्य व्यक्ति के रूप में उस ब्राह्मण ने अतिथि का सत्कार किया और अपने भाग का भोजन उनके सामने रख दिया ।
इतने भोजन से उस अतिथि की क्षुधा तृप्त नहीं हुई और उसने और अधिक भोजन की माँग की ।
उसकी क्षुधा तृप्त करने के लिए एक – एक करके ब्राह्मण की पत्नी , पुत्र और पुत्रवधू ने अपने – अपने बरतन में परोसे भोजन को अतिथि के सामने रख दिया और पूरा परिवार भूखा रहा । दूसरे , तीसरे और सातवें दिन भी ऐसा ही हुआ और सातों दिन पूरा परिवार भूखा रहा ; इतना ही नहीं , तनिक भी असंतोष का भाव लाए बिना वह परिवार अतिथि को भोजन कराता रहा ।
सात दिन के सतत निराहार अवस्था के अंत में पूरी तरह क्षीण हो गए इस परिवार के समक्ष अब उस अतिथि ने अपना असली रूप प्रकट किया । यह अतिथि स्वयं धर्मराज थे और उस ब्राह्मण परिवार ने जो विराट् यज्ञ किया था , उससे प्रसन्न होकर उन्हें सशरीर धर्मलोक की प्राप्ति हो , ऐसा आशीर्वाद दिया ।
इतनी बात कहने के बाद नेवले ने कहा कि वह ठीक उसी समय ब्राह्मण के घर के पास से गुजर रहा था । सात – सात दिन के भूखे परिवारजनों ने प्रसन्न चित्त से अपनी थाली का भोजन जहाँ अतिथि को परोसा था , उस स्थान से गुजरने के दौरान उसकी धूल के स्पर्श से उसकी आधी देह सुवर्णमंडित हो गई ।
ब्राह्मण परिवार के एक अतिथि को भोजन कराने के एक धर्मकार्य से यदि यज्ञभूमि इतनी पवित्र और चामत्कारिक हो जाती हो तो पृथ्वी के अन्य राजाओं और धनवानों द्वारा किए गए यज्ञों और दानों से उनकी यज्ञभूमियाँ निश्चित ही अधिक चामत्कारिक होंगी , यह मानकर वह अनेक वर्षों से पृथ्वी पर जहाँ जहाँ ऐसे दानकर्म या यज्ञ आयोजित होते हैं , वहाँ – वहाँ घूम रहा है ।
परंतु अभी तक कहीं भी उसका शेष आधा शरीर सुवर्णमंडित नहीं हुआ । आज युधिष्ठिर का यह अश्वमेध यज्ञ पृथ्वी पर सबसे अलौकिक और सर्वश्रेष्ठ है , यह सुनकर वह वहाँ आया था , परंतु इस यज्ञभूमि की धूल में लोटने के बाद भी शेष आधा शरीर स्वर्णमंडित नहीं हुआ ,
इसका अर्थ ही यह हुआ कि यह श्रेष्ठ कहा जानेवाला यज्ञ भी उस अकिंचन ब्राह्मण परिवार के दान की तुलना में निम्न कोटि का ही है । इतना कहने के बाद महर्षि व्यास ने ऋषि वैशंपायन के मुख से इस घटना का सारांश एक श्लोक में प्रकट करवाया है
अद्रोहः सर्वभूतेषु सन्तोष : शीलमार्जवम् ।
तपो दमश्च सत्यं च प्रदानं चेति सम्मितम् ॥
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति अद्रोह , शील और सदाचार का अनुसरण , सरल व्यवहार , तपस्या , मन और इंद्रियों पर संयम , सत्यवादन और न्यायपूर्वक स्वयं द्वारा प्राप्त की हुई वस्तु का श्रद्धापूर्वक दान , ये सारे लक्षण महान् यज्ञों के समकक्ष हैं ।
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