अर्थात् कामव्यवस्था का ऊर्धीकरण।
महाभारत के पात्र अर्थात् कामव्यवस्था का ऊर्धीकरण।
महाभारत के अधिकतर पात्रों के जन्म हमारे नैतिक और सामाजिक स्वीकृति के मापदंड के विपरीत स्त्री – पुरुष संबंधों के कारण ही हुए हैं । जिन्हें धर्मात्मा या महात्मा कहा जा सके ऐसे पात्रों के जन्म भी सामाजिक रूप से कहे जाएं ऐसे संबंधों से हुए हैं । इसके बावजूद ये पात्र आज हजारों वर्ष के बाद भी अपने जीवन – व्यवहार के आदर्श पात्र बने हुए हैं । इस स्पष्ट विसंवाद के विषय में कुछ कहेंगे ?
आदर्श मानवजीवन के जो पुरुषार्थ हमारी सांस्कृतिक परंपरा और धर्म – संहिताओं में दरशाए हैं , उनमें धर्म , अर्थ , मोस के उपरांत काम का भी समावेश होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में स्वयं श्रीकृष्ण ने अपना विभूतियोग दरशाते हुए कहा है कि ‘ प्रजानश्चस्मि कन्दर्प ‘ अर्थात् प्रजा ( संतान को उत्पन्न करनेवाला काम में हैं । तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षावल्ली के ग्यारहवें अनुवाक में शिक्षा पूरी करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर रहे शिष्य को आचार्य जो उपदेश देते हैं , उसमें बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है , प्रजातन्तुमा व्यक्च्छेत्सी यानि की सयानी कि संतान उत्पन्न करने का जो तंतु परंपरागत रूप से संभाला गया है , उसका उच्छेद नहीं करना इस प्रकार संतानप्राप्ति को महत्त्व दिया गया है ।
इस संतान प्राप्ति के लिए काम को एक धर्मानुचरण माना जाता है । जहाँ तक महाभारत का संबंध है , वहाँ तक इन सभी श्रेष्ठ पात्रों के जन्म की कथा सचमुच जटिल है । परंतु इस जटिलता के पीछे एक बात जो रहस्य है , स्फुट हो जाती है तो उसका सौंदर्य और ऊपर दिखाई देता अधर्म है , उसके पीछे जो सूक्ष्म धर्म और मानवप्रकृति की गहनता होती है , वह देखी जा सकती है ।
स्वयं महाभारतकार महर्षि व्यास का जन्म एक ऐसी घटना से हुआ है , जिसका स्वीकार कोई भी सामाजिक मापदंड या धर्मशास्त्र नहीं कर सकता । गंगा नदी के एक तट से दूसरे तट पर जाने के लिए नाव में प्रवास कर रहे महर्षि पराशर प्रचंड तपस्वी और ज्ञानी हैं । सोलह – सत वर्ष की कुंवारी कन्या मत्स्यगंधा यह नाव चला रही है ।
मत्स्यगंधा के शरीर से मछली की दुर्गंध आती है और एक तट से दूसरे तट पर जाने में मुश्किल से दस – पंद्रह मिनट का समय लगता है । दोनों तटों पर आश्रम हैं और तट पर खड़े यात्री इस नाव को देख सकते हैं । ऐसी परिस्थिति में पराशर ऋषि कामवश हो यह विचित्र घटना लगती है , परंतु काम को स्थल , समय या अन्य मयांदाएँ नहीं होती हैं । काम सर्वतोमुखी है ।
महाप्रबल है , तप या ज्ञान से काम का नाश नहीं होता , वह तो देश में रक्त के परिभ्रमण की तरह बसा होता है । इसी की मानो महाभारतकार हमें चेतावनी देना चाह रहे हों , इस प्रकार ऋषि पराशर इस दुर्गंधमयी कन्या से कामतृप्ति की याचना करते हैं । काम कैसा ज्वलंत है , इसी को मानो प्रतिध्वनित करती हो , इस तरह वह अबोध कन्या भी इस पितृतुल्य ऋषि से कहती है कि इस समय तो प्रकाशमय दिन का समय है और तट पर के सभी लोग हमें देख रहे हैं ।
महर्षि पराशर इस कन्या के इस तर्क का प्रत्युत्तर दे रहे हो , इस तरह सूर्य के आड़े काले बादलों का निर्माण करके तुरंत ही चारों और अंधकार कर देते हैं । इस प्रकार काल को पराजित कर सकनेवाले महर्षि पराशर काम के समक्ष हो जाते हैं । इन कुछ क्षणों के बाद कौमार्य खो चुकी उस कन्या के समक्ष ऋषि अपनी दुर्बलता और भूल स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि इसमें जो कुछ हुआ , उसमें तुम निर्दोष हो , दोष तो मेरा ही कहा जाएगा और इसलिए अपने इस संबंध से जनमे पुत्र का उत्तरदायित्व तुम्हारे सिर पर नहीं बल्कि में अपने सिर पर स्वीकार कर लेता है ।
इतना ही नहीं , बल्कि तुम्हारा जो कौमार्य मैंने भंग किया है , वह कौमार्य भी मैं तुम्हारे शरीर में स्थापित कर देता है और इसके बाद से अब तुम्हारे से दुर्गंध नहीं बल्कि सुगंध बढ़ेगी और यह सुगंध चारों दिशाओं में एक – एक योजन तक फैल जाएगी । इस तरह महाभारतकार व्यास का जन्म एक अनैतिक दिखाई देते संबंध से हुआ है ।
परंतु यह संबंध बलात्कार नहीं कहा जा सकता । स्त्री और पुरुष का दैहिक सायुज्य संतान का निर्माण करता है , यह सही है , परंतु निर दैहिक सामुन्य से जो बालक जन्म लेता है , उसमें और दैनिक सायुज्य के उपरांत मनी – व्यापार का ऐक्य और संबंधों के दौरान एक – दूसरे के प्रति समर्पण और विपन का भाव यदि प्रकट हुआ हो तो वह संतान अधिक उच्च कोटि की पैदा होती है ।
दैहिक संबंध एक प्रक्रिया है । सामाजिक ढाँचे को टिकाए रखने के लिए इस स्थूल प्रक्रिया को विवाह अथवा अन्य व्यवस्था का नाम दिया है , परंतु स्वस्थ और मेधावी समाजरचना के लिए जो अनिवार्य है , उस संतानोत्पत्ति के क्षण में स्त्री – पुरुष के बीच की मानसिक अनुभूति और समर्पण , विलोपन तथा मानसिक ऐक्य अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ।
इस वास्तविकता को आधुनिक विज्ञान भी स्वीकार करता है । पराशर और मत्स्यगंधा के इस संबंध से जनमेव्यास स्कुलका स्वतत्य बनाए रखने का निर्मित बनते हैं , यह भी महाभारत की एक घटना है । प्रवास मत्स्यगंधा से सत्यवती बनकर राजा शांतनु के साथ उसने विवाह किया और इस वैवाहिक जीवन में उसे दो पुत्र भी हुए बड़े पुत्र चित्रांगद की अविवाहित अवस्था में ही मृत्यु हो गई और अब विधवा राजसत्यवती पुत्र विचित्रवीर्य का विवाह अंबिका और अवालिका नामक दो राजकुमारियों के साथ कराती हैं महाभारतकार ने एक बहुत ही सुंदर संदेश यहाँ दिया है ।
चित्रवीर्य जवान था और राज काज की चिंता बड़े भाई भीष्म संभाल रहे थे । साथ ही दो सुंदर व युवा पत्नियाँ थीं ऐसी स्थिति में व्यक्ति यदि समझकर नियंत्रित व्यवहार न करे उसका परिणाम खराब हो आता है । विचित्रवीर्य अमर्यादित कामवासना भोगता है और उसकी इस कामलिप्सा के कारण ही वह पुत्री रहकर में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता पत्नियों द्वारा पुत्र प्राप्त कर कुरुकुल को उबारने के सिवा अब दूसरा कोई विकल्प नहीं बचा था ।
हमारे स्मृतिकारो ने जिस प्रकार प्रजातंतु का विच्छेदन करने के लिए कहा है , उसी तरह प्रजातंतु माने क्या , इसकी समझ भी दी है । विचित्रवीर्य के किस्से में अपने आप ही इस प्रजातंतु का विच्छेद हो गया है । परंतु ऐसे असाधारण संयोगों में भी स्मृतिकारों ने पुत्रप्राप्ति के अन्य विकल्पों को धर्म का अनुमोदन दिया है । ऐसे बारह प्रकार के पुत्रों की धर्मविदित सूची दी गई है । ये बारह प्रकार के पुत्र क्रमानुसार इस प्रकार हैं :
1. परिणीता ( विवाहिता ) स्त्री मे पति द्वारा जनमा – औरस
2. 2. सुयोग्य पुरुष द्वारा स्वपत्नी से पैदा किया हुआ – प्रणीत
3. 3 . खरीदे अथवा उधार लिये जीपं द्वारा जनमा – परिफ्रीत ( इसे हम टेस्टट्यूब बेबी या फिर कृत्रिम गर्भाधान कहेंगे ।
4. 4. विधवा के गर्भ में अन्य पुरुष दुवारा प्रस्थापित – नर्भव
5. 5. कथा में जनमा कानीन
6. 6. स्वैरिणी स्त्री जिसकी खरीदी हुई हो , के गर्भ से जनमा- गूढ़ अथवा कुंड
7. 7 माता – पिता ने जिसका दान किया हो दंभ
8.जिसकी खरीदी हुई हो मूल्य चुकाया गया हो – क्री
9 जो मात्र कृत्रिम हो , वह उपक्रोत ,
10 में आपका पुत्र है , ऐसा कहकर जो स्वयं पुत्रपद पर प्रस्थापित हो – उपागत
11.भाई या अन्य संबंधी की गर्भवती स्त्री के साथ विवाह करने के बाद जनमा – जात रेता सदोड़ ( इस प्रकार में भाई की सगर्भा स्त्री के साथ भी विवाह की परोक्ष सम्मति स्पष्ट होती है )
12. हीन जाति की स्त्री द्वारा उत्पन्न किया हुआ हीनयोनिधृत विचित्रवीर्य की विधवा पत्नियों के साथ व्यास के संबंध से कुरुवंश का सातत्य जारी रखा गया है ।
मात्र आपदधर्म के रूप में और पुत्रप्राप्ति के लिए हुए इस संबंध की पूर्व शर्त यह है कि इसमें कामभावना का अभाव होता है ; इतना ही नहीं पुरुष को घी जैसा चिकना पदार्थ शरीर पर पोतकर कुरूप होकर स्त्री के पास जाना चाहिए ऐसा भी संकेत है । इसके बावजूद स्त्री की ओर से संपूर्ण समर्पण और कर्तव्यभावना तथा आनंद की अभिव्यक्ति ही अपेक्षित है ।
रानी अविका तथा अबालिका व्यास के समक्ष समर्पण नहीं कर सकी और शारीरिक संबंध में आनंद भी प्राप्त नहीं कर सकीं , परिणामस्वरूप उनकी संतानें अधे धृतराष्ट्र और निस्तेज पांडू जनमे तीसरी बार व्यास के पास शयनकक्ष में गई दासी पूरी दैहिक और मानसिक तैयारियों के साथ संबंध के इन क्षणों को आनंदपूर्वक स्वीकार करती है और उसके पेट से विदुर जैसे धर्मात्मा का जन्म होता है ; इतना ही नहीं , बल्कि इस संबंध के अंत में व्यास भी माता सत्यवती से कहते हैं कि आज में तृप्त हुआ है । पांडवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों के जन्म की कथा भी ऐसे ही जाल में गंधी है ।
कौमार्य अवस्था में ही जिस तरह माता सत्यवती ने मातृत्व प्राप्त किया था , उसी तरह कुंती भी माता बनी थी । सूर्य के मंत्र से कुमारी अवस्था में कुंती ने कर्ण को जन्म दिया था मात्र मंत्रोच्चारों से पुत्रप्राप्ति की यह बात अन्य प्रकार से भी जाँच के योग्य है । सूर्य ने कुंती के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किया है , ऐसा स्पष्ट उल्लेख महाभारत में है ।
भगवान् सूर्य ने कुंती के साथ समागम किया और उससे पुत्र जनमा , ऐसा असंदिग्ध रूप से लिखा है । यद्यपि पराशर ऋषि की तरह यहाँ भी भगवान् सूर्य ने समागम के बाद कुंती का कौमार्य वापस लौटाया है । राजा पांडु के साथ के वैवाहिक जीवन में संतति संभव नहीं , यह कुंती के जान लेने के बाद स्वयं पांडू ही कुंती को अन्य मार्ग से पुत्र प्राप्त करने का सुझाव देते हैं ।
पांडु संतानोत्पत्ति के लिए असमर्थ हुए , इसके पीछे भी एक कामप्रभावना की कथा है । असमर्थ पति के इस सुझाव को स्वीकार कर कुंती ने मंत्र द्वारा आमंत्रित किए गए देवों की सहायता से एक के बाद एक , तीन पुत्रों की प्राप्ति के बाद भी राजा पांडु जब पत्नी को और अधिक पुत्रों के लिए निर्देश देते हैं तो कुंती जो उत्तर देती है , वह अत्यंत ध्यान देने के योग्य है । कुंती कहती हैं , ” तीन से अधिक संतानों को जन्म देना ।
शास्त्र की आज्ञा के विरुद्ध है । इस प्रकार से चौथो संतान प्राप्त करनेवाली स्त्री स्वेच्छाचारिणी कही जाती है और यदि वह पाँचवें पुत्र को जन्म देती है तो वह वेश्या ही कही जाएगी । ” पति के सिवाय अन्य पुरुष द्वारा होने वाले पुत्र के विषय में भी जो धर्मसंगत नियम हैं , ये ध्यान में रखने लायक हैं ।
कुंती के बाकी के दो मंत्रों का उपयोग करके माद्री ने मातृत्व धारण किया । हस्तिनापुर में रानी गांधारी अपने पति धृतराष्ट्र द्वारा ही गर्भवती तो हुई , पर उसकी यह गर्भावस्था दो वर्ष जितना समय तक लंबी हो गई थी । दो वर्ष के बाद भी गांधारी ने संतान को जन्म नहीं दिया बल्कि बलपूर्वक गर्भ का त्याग किया ।
मांस के लोथे जैसे इस गर्भ के महर्षि व्यास ने सौ टुकड़े करके अलग – अलग घड़े में उसका स्थापन किया और फिर एक बार इन घड़ों की गर्भावस्था और दो वर्ष लंबी चली । इस तरह गर्भस्थापन के बाद पूरे चार वर्ष में इन बालकों का जन्म हुआ । इस बीच गांधारी की गर्भावस्था के दौरान महाराज धृतराष्ट्र की सेवा के लिए रखी गई दासी द्वारा धृतराष्ट्र एक और पुत्र के पिता बने हैं ।
इदस पुत्र का नाम था युयुत्स युयुत्स का जन्म गांधारी की गर्भावस्था के दौरान ही हो गया था , इसलिए वह सभी कौरवों में ज्येष्ठ पुत्र कहा जाएगा । महाभारत में स्वीकृत सामाजिक मूल्यों अथवा हमारी रूढ़ हो चुकी नैतिक मान्यताओं को आघात पहुँचाए , इस तरह जनमे इन सभी पात्रों में स्त्री और पुरुष दोनों के बीच का सामान्य दैहिक व्यवहार तो अभिप्रेत है ही विवाह के बंधन भले ही शिथिल रहे हो , परंतु सृजन के लिए जो सहज प्रक्रिया है , उसका अनुसरण तो इन सब के जन्म में हुआ ही है ।
महाभारत में ऐसे पात्रों का दूसरा एक वर्ग ऐसा भी है कि जिनके जन्म के लिए ऐसी प्रक्रिया का भी स्वीकार नहीं हुआ । ऐसे जन्म को महाभारतकार ‘ अयोनिजन्मा ‘ कहता है । द्रोण ऐसे अयोनिजन्मा पात्रों में प्रथम स्थान पर हैं । द्रोण के पिता महर्षि भरद्वाज गंगातट पर स्नान करने गए तो वहाँ स्नान कर रही धृताची नामक अप्सरा को सद्य : स्नाता स्वरूप में वस्त्र बदलते हुए देखा और यह तपस्वी ऋषि उसके दर्शन मात्र से विचलित हो गए ।
इसके फलस्वरूप उनका वीर्यस्खलन हुआ स्खलित हुए इस वीर्य को उन्होंने अपने साथ स्नान और पूजा के लिए लाए द्रोण यानी कि लोटे में एकत्र कर लिया । इस पात्र में पड़े ऋषि के वीर्य से कालांतर में एक बालक का जन्म हुआ । द्रोण में से जनमे होने के कारण उस बालक का नाम भी पिता भरद्वाज ने ‘ द्रोण ‘ रखा । द्रोणाचार्य का विवाह जिस कन्या के साथ हुआ , उसका नाम कृपी था कृपी और उसका भाई कूप दोनों भी महाभारत के अयोनिजन्मा पात्र हैं ।
महर्षि शरद्वान भी महर्षि भरद्वाज की तरह उर्वशी नामक अप्सरा को देखकर स्खलित हुए और यह स्खलित हुआ वीर्य घास पर पड़ा तथा इस घास में से दो बालकों ने जन्म लिया जिनके नाम कूप और कृपी रखे गए पिता शरदन तो वीर्यस्खलन होने के बाद तुरंत ही चल देते हैं और उन्हें इन संतानों के विषय में कोई जानकारी नहीं थी घास पर पड़े दोनों बालकों को हस्तिनापुर के सैनिकों ने देखा और उनका लालन – पालन पितामह भीष्म ने राजकुल में किया मातृ – पितृ विहीन परमात्मा की कृपा से जीवित रहे इन बच्चों का नामकरण भीष्म ने बहुत ही सोच – समझकर क्रमश : कृप और कृपी रखा था ।
आगे जाकर कृप कृपाचार्य होकर हस्तिनापुर के कुल पुरोहित के पद पर स्थापित हुए थे और कन्या कृपी का विवाह द्रोणाचार्य के साथ हुआ था । इसके उपरांत महाभारत के दो महत्त्वपूर्ण पात्र द्रौपदी और धृष्टद्युम्न का जन्म तो माता या पिता दोनों में से किसी की भी सहायता के बिना हुआ है । पुत्रेष्टि यज्ञ हमारे शास्त्रों में इच्छित पुत्रों की प्राप्ति के लिए वर्णित है ।
रामायण में राजा दशरथ ने भी पुत्रप्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किया था और इस यज्ञ के फलस्वरूप यज्ञदेवता से प्राप्त हुए प्रसाद को अपनी तीनों पत्नियों को खिलाया था । इस प्रसाद के परिणामस्वरूप ये स्त्रियाँ गर्भवती हुई और कालांतर में उन्होंने पुत्रों को जन्म दिया । इसमें यज्ञदेवता का प्रसाद भले कारणभूत रहा हो , परंतु माता – पिता का अस्तित्व उनके जन्म में अनिवार्य माना गया है ।
महाभारत में द्रौपदी और धृष्टद्युम्न का जन्म यज्ञदेवता के प्रसाद के रूप में हुआ है , पर इसमें राजा द्रुपद या उनकी पत्नी का कोई योगदान नहीं । यज्ञवेदी में से ये दोनों भाई – बहन सीधे युवावस्था में प्रकट हुए थे , ऐसी कथा दी गई है । इस प्रकार ये दोनों पात्र , पहले जिनका उल्लेख किया गया है , उन अयोनिजन्मा पात्रों से अलग पड़ जाते हैं , क्योंकि उनके जन्म के लिए किसी भी दैहिक क्रिया का स्वीकार नहीं हुआ था । यहाँ अब जिस मुद्दे का सवाल पैदा होता है , वह इतना ही है कि इस तरह से जनमे पात्र इतनी सदियों के बाद हमारे धर्म , इतिहास और संस्कृति के साथ किस तरह एकत्व साथ सके होंगे ? इस प्रकार जन्म हो भी सकता है
क्या ? यह प्रश्न अलग है । शरीरशास्त्र के नियमों के विपरीत प्रकार से ऐसा कैसे संभव हो सकता है , यह सवाल भी किया जा सकता है । परंतु पिछले दस – बीस वर्षों में हमारे आधुनिक विज्ञान ने प्रजनन क्षेत्र में जो नए अनोखे प्रयोग किए हैं और उसमें जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं , उसे भी ध्यान में रखना चाहिए ।
माता के गर्भ के बिना अब हमें टेस्ट ट्यूब बेबी कोई अजायबी नहीं लगती । इसी तरह वीर्य बैंकों द्वारा कोई भी स्त्री इच्छानुसार इच्छित बालक प्राप्त कर सके , यह वास्तविकता भी आधुनिक विज्ञान ने अब दूर नहीं रहने दी है । जिस तरह आज के परमाणु शस्त्रों के सर्वव्यापी विनाश के मूल प्राचीन धनुर्विद्या द्वारा उल्लिखित ब्रह्मास्त्र या अन्य शक्तिशाली आयुधों में मिलते हैं , उसी तरह महाभारत के ये अयोनिजन्मा पात्रों को समझने की हमें कोशिश करनी चाहिए ।
जन्म चाहे जिस तरह से हुआ हो , परंतु व्यक्ति का मूल्य उसके जन्म से नहीं बल्कि उसके कर्मों से आँकना चाहिए । महाभारतकार को शायद यही अभिप्रेत है । महर्षि भरद्वाज या महर्षि शरधान अपनी तपस्या के बाद भी भले विचलित हुए हो- यह चलायमान मन का क्षण उनकी दुर्बलता का क्षण था अथवा वो तपःपूत होने के बाद भी काम दुर्धर्ष हैं और यह अवांछनीय हो , तो भी तिरस्करणीय नहीं है , ऐसे ही किसी संकेत का इसके पीछे • आयोजन हो , ऐसा माना जा सकता है ।
स्वयं कृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार जनमे होने के बावजूद महाभारत में स्वयं कृष्ण के लिए वंदनीय और पूजनीय रहे हैं । मनुष्य हीन जन्म से नहीं बल्कि हीन कर्म करके हीन बनता है । यह कवि कथित सत्य मानो यहाँ चरितार्थ हुआ है । अश्वत्थामा जैसा पात्र संपूर्ण रीति सुयोग्य जन्म प्राप्त करता है ।
विद्वान् है , वीर है और सुपात्र भी है , फिर भी अपने अपन्य कर्मों के कारण वह तिरस्करणीय रहा है । महाभारतकाल में यद्यपि पुरुषप्रधान संस्कृति का ही प्राधान्य रहा है , फिर भी स्त्रियाँ भी जब ऐसे स्खलनों में सहभागी बनी हैं तो उन्हें निंद्य नहीं माना गया । माता सत्यवती समग्र कुरुकुल की सबसे अधिक वंदनीय पात्र हैं और सत्यवती भी कौमायावस्था में माता बन चुकी थीं , इतना ही नहीं , माता सत्यवती का जन्म भी उपरिचर नामक एक वसु के स्खलित हुए वीर्य से जल में रही एक मछली के पेट से हुआ था ।
यहाँ एक अलग प्रकार के जन्म की कथा है । ऊपर के सभी पात्रों में तो मानव नर – मादा का संयोग अथवा वियोग जन्म के लिए कारणभूत रहा है , परंतु सत्यवती के जन्म में तो मानव नर और जलचर प्राणी की मादा , इन दोनों के प्राणी सृष्टि के विरुद्ध सहयोग की कथा है । महाभारतकार को जो कहना है , उसे पितामह भीष्म के माध्यम से उन्होंने संभवतः सांकेतिक रूप से कह दिया है ।
जीवन की अंतिम श्वास शरशय्या पर ले रहे पितामह से जीवन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पांडव सपरिवार एकत्र होते हैं । पौत्र युधिष्ठिर पितामह से सभी स्त्रीगण , जिसमें पत्नी , अनुज पत्नी और माताएँ शामिल हैं , उनकी उपस्थिति में ही पूछते हैं , ‘ हे पितामह , काम का महत्त्व क्या होता है और काम भोग रहे स्त्री – पुरुष दोनों में कौन अधिक आनंद प्राप्त करता है ? “
इस प्रश्न के उत्तर में , जिन्होंने जीवन में कभी यह आनंद प्राप्त किया ही नहीं , ऐसे पितामह भीष्म जो कहते हैं , वह आधुनिक कामशास्त्र के वैज्ञानिकों के भी समझने लायक है
एक राजा का उदाहरण देकर भीष्म कहते हैं कि वह राजा सौ पुत्रों का पिता था सौ पुत्रों की प्राप्ति के बाद एक बार मृगया खेलने के लिए वह जंगल में गया और वहाँ एक सरोवर में उसने स्नान किया । सरोवर का यह क्षेत्र किसी शाप के कारण पुरुष के लिए प्रतिबंधित था ।
यहाँ स्नान करने के कारण राजा का शरीर नारी देह में परिवर्तित हो गया स्त्रीदेहधारी यह राजा ऐसा लज्जित हो गया कि उसने पुनः राज्य में जाने का विचार ही छोड़ दिया , और जंगल में ही एकांतवास करने लगा । अरण्यवास के दौरान किसी अन्य राजा ने इस स्त्रीदेहधारी राजा को देखकर उस पर मोहित होकर उसने उसके साथ विवाह किया इस नए वैवाहिक जीवन से उसे दूसरे सौ पुत्र प्राप्त हुए ।
इसके बाद जब स्त्रीदेहधारी यह राजा अपना परिचय देता है , तो जिसके कारण वह सरोबर शापित हुआ था , वह देव राजा को शाप से मुक्त होने के लिए कहता है । स्त्रीदेह में से मुक्त होकर पुन : पुरुषदेह में प्रवेश करने से यह राजा अब अस्वीकार करता है और इसका कारण बताते हुए कहता है कि एक स्त्री के रूप में वैवाहिक जीवन का आनंद अधिक उत्कटता से वह उठा सकता है , इसलिए वह नारीदेह पसंद करता है ।
से आज भी इस विषय में आधुनिक विज्ञान विश्वासपूर्वक कुछ कहने की स्थिति में नहीं है । इस विषय में ढेर सारे मतांतर रहनेवाले ही हैं । काम स्त्री और पुरुष दोनों के बीच प्रयोजित एक सामान्य तत्व है , फिर भी हमने सहजभाव से यह स्वीकार कर लिया है कि पुरुष भोक्ता है और स्त्री भोज्य है ।
महाभारतकार इस काम व्यवस्था का अद्भुत ऊवीकरण करके मानो भावी पीढ़ियों को संकेत देता है कि यह एक पवित्र रचना है । सहज कर्म है । इसमें कोई भोक्ता नहीं और न ही कोई भोज्य है सृजन प्रक्रिया कभी कलुषित नहीं हो सकती है । महत्व उसके परिणाम का है , इसके पीछे की भावना का है और सृजन के क्षण स्त्री और पुरुष दोनों में किन भावों का प्राधान्य है , यह अधिक महत्त्वपूर्ण है ।
दोनों के बीच एक – दूसरे को आत्मसात् करने की मनोवृत्ति , फिर रौले ही इन संबंधों को विवाह या ऐसे किसी सामाजिक स्वीकार का नाम न मिला हो , तो भी इसमें निहित पवित्रता दूषित नहीं । इसका अर्थ यह नहीं कि अमर्यादित विलास या स्वेच्छाचारी भोग को स्वीकृति प्राप्त होती है । विचित्रवीर्य या पांडु इसके उदाहरण हैं ।
तीन पुत्र की प्राप्ति के बाद मंत्र होने के बावजूद पति के सिवाय अन्य पुरुष से पुत्रप्राप्ति को निंद्य समझनेवाली कुंती इस बात का समर्थन करती है । महाभारत की व्याप्ति में सौंदर्य ढूँढ़ने के लिए पाठक को स्वयं प्रयास करना पड़ता है ।
उसमें भी कामभावना तो एक अत्यंत जटिल भावना है । महाभारत के घटाटोप में जब यह जटिलता मिलती है तो उसमें से सूचितार्थ व संकेतार्थ प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को सदेह नहीं , विदेह बनना पड़ेगा जो यह शर्त पूरी नहीं कर सकता है , उसके लिए ये अनर्थ हैं अन्यथा महाअर्थ हैं ।
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