आत्मदर्शन और एक संत की अमृत वाणी।

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                                 आत्मदर्शन
   [ एक संतकी अमृत वाणी ]

-मानवजीवनको एकमात्र मंजिल परमात्म-प्राप्ति ही है और दूसरा कुछ भी नहीं संसारमें अनेक मंजिलोंतक पहुँचनेके लिये बड़े हाथ-पैर मारने पड़ते हैं, परंतु परमात्माको प्राप्त करनेके लिये तो कछुएकी तरह अपने अंगोंको समेटकर जाना है आग, पानी, हवासे बचाव और पूर्ति में ही करेंगे और कर ही रहे हैं। अन्य किसीमें कुछ भी करनेकी कोई क्षमता नहीं है। वे जिसे चाहें, जब जहाँ रोक दें।

  • जबतक बालक जोर-जोरसे खूब रोता नहीं है. तबतक माताका हृदय उसके प्रति पूर्णरूपसे द्रवित नहीं होता पर आजका समझदार व्यक्ति माताके (परमात्माके) लिये न रोकर संसारके लिये ही रोता है। संसारकी पूर्ति होती ही नही एकके बाद एक न जाने क्या-क्या चाहिये उसीमें लगा रहता है, पर बच्चा केवल माँ के लिये ही रोता है, संसार या किसी वस्तुको इच्छाहेतु नहीं, इसीलिये तो माँके मिल जानेपर उसका रोना स्वतः ही बन्द हो जाता है और तब वह निश्चिन्ततासे माँकी गोदमें खेलने लगता है जबकि संसारके लिये रोना बन्द तो होता ही नहीं है।

-जो एक वस्तुसे अधिककी आकांक्षा रखता है, वह तो बहुत जन्मोंतक तृप्त सन्तुष्ट नहीं हो सकता। अतः एक ऐसे सागरका किनारा लें जहाँ आगे फिर किसी छोटी नदी, सरोवरका सहारा स्वतः ही छूट जाय; क्योंकि वहाँ सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जायेंगी।

कभी मन भटकता है कि ये पुत्र मेरा है, तो कभी स्त्री पर, तो कभी धन-वैभवपर; परंतु इन सबमें कहीं अपनापन नहीं है। ये सब हमारे सामने सेवाहेतु उपस्थित हैं। अतः उनके साथ सेवा करके इन्हें भी अन्यत्र सेवाहेतु अग्रसर करना है न कि इनसे नाता जोड़ लेना है क्योंकि आजतक कोई किसीका नहीं हुआ। किसीके विचार एक नहीं हुए, स्वभाव एक नहीं हुआ, रूपरंग एक नहीं हुआ,

क्रियाकलाप एक नहीं हुआ उठना-बैठना, चलना-फिरना, आना-जाना सब भिन्न है। तब कौन किसकी याद से

कि यह मेरा है।

जो जितने दिनके लिये आया है, वह उतने ही क्षण यहाँ टिकेगा। इसके आगे एक पल भी नहीं, फिर चाहे कोई सारी दुनियांका धन-वैभव सब एक साथ दाँवपर लगा दे; परंतु एक पल भी यहाँ रुका नहीं जा सकता। यहाँ अधिक रुके रहने की चेष्टा या जरूरत भी नहीं है। जरूरत तो है शीघ्र से शीघ्र अपना काम पूरा करनेकी।

-हवाके हल्के झोके से गरमी ठण्डीमें और ठण्डी गरमीमें बदल जाती है। इसी तरह यह मनुष्य भी पलभरमें सुखी और दूसरे पल दुःखी हो जाता है। ऐसा परमात्मा की सत्ता न माननेके कारण ही होता है। जबकि परमात्मा के अतिरिक्त कहीं भी कोई भी सत्य नहीं है। जो भी ऊपरी क्रियाकलाप हो रहा है, वह सब प्रभुकी लीलामात्र है।

-साधन बढ़ जानेपर भगवान्‌को अपने में ही देखा जा सकेगा। विनम्रता, दया, क्षमा, निर्भयता, सहनशीलता सब उच्च सीमामें पहुँच जायेंगे। तब भगवान्‌को बाहर ढूंढनेकी आवश्यकता नहीं रहेगी। सद्गुणोकी बढ़ोत्तरी ही मनुष्यका आभूषण है। ये आभूषण ही मनुष्यको बढ़ाते बढ़ाते देवताकी कोटि में पहुँचा देते हैं।

जिस व्यक्तिमें विनम्रता नहीं है, वह तो सदा निराश – खीझा हुआ ही नजर आयेगा उसे

कभी खुशहाली की स्थितिमें नहीं देखा जा सकता। चाहे वह जितने धन, मानसे युक्त हो।

जिस स्थानमें विनम्रता, दया भरनी थी वहाँ धन, मानका मद भर गया।

अब खुशी और आनन्दके लिये वहाँ स्थान ही कहाँ बचा!

  • सज्जन जब मिलते हैं तब शरीरमें आनन्द एवं प्रेमकी लहर दौड़ने लगती है और दुर्जनोंके मिलनेपर अपार कष्टकी अनुभूति होती है। ‘बिछुरत एक प्रान उप हरि लेहीं मिलत एक दुख दारून देहीं।’ यही वजह है कि दुर्जनोंके मिलते ही विकलता आ जाती है और सज्जनोंके बिछुड़ने पर मानों प्राण ही जा रहे हैं. ऐसी अनुभूति होती है।
  • व्यक्ति कैसा भी क्यों न हो? यदि उससे विनती की जाती है, उसके चरण पकड़ लिये जाते हैं तो वह जरूर द्रवित हो जाता है। फिर भगवान् तो बहुत सहृदयी हैं। वे तो बहुत शीघ्र ही वशमें होनेवाले हैं। हाँ, उनसे अपनापन जरूर होना चाहिये। किसी तरहका दिखावा या आडम्बर वे पसन्द नहीं करते।
  • दुनियासे दोस्ती बढ़ाना है. राग द्वेष का नाता समाप्त करना है तो सबके समक्ष हाथ जोड़कर ही खड़े रहना चाहिये। अच्छेके सामने भी और बुरेके सामने भी। इस तरह हमारे प्रति किसीका ध्यान नहीं होगा, लगाव नहीं होगा दुनियाका लगाव तो उन्ही से होता है, जो उनसे कुछ लेना-देना चाहते हैं।
  • मन्दिरमें जाकर व्यक्ति कहता है हे प्रभो सब कुछ आपका ही है, पर घर पहुँचनेपर घर मेरा परिवार मेरा, जमीन, यश, पद आदि सारा वैभव मेरा है- ऐसा कहता है और दिन-रात उसकी सुरक्षाकी जी तोड़ कोशिश करता है और रोता- कराहता है। अब भगवान् क्या करें ? क्योंकि वहाँ उनका तो कुछ है ही नहीं सब भक्तका हो गया, तब वे किस तरहसे उसकी सुरक्षा करें।

भगवान् तो सदा ही इसी ताकमें रहते हैं कि किसी भी तरहसे मुझे कहाँ प्रवेश मिल जाय।

पर व्यक्ति इतना चतुर है कि भगवान्के प्रवेशके लिये वह एक इंच जगह नहीं छोड़ता।

जहाँ अपनापन न हो, वहाँ भगवान् क्या करें। वे तो दरवाजे में खड़े-खड़े वापस हो जाते हैं।

  • हमें अपनेको उच्च स्थितिपर स्वतः ही पहुंचाना होगा। वहाँ हमें दूसरा भेज नहीं सकता और पहुँचनेपर पीछे या नीचे गिरा नहीं सकता। हाँ, आगे बढ़नेके लिये इशारा जरूर कर सकता है और शेष चीजोंका भरसक उपयोग ही होता है। यथा माता पिता अपने पुत्रको धन मकान सब दे सकते हैं; पर परमपद प्राप्त करनेके लिये हमें स्वतः ही प्रयास करना होगा।

-लौकिक दासतामें बड़ा दुःख दर्द है और पारमार्थिक दासता बड़े ही आनन्द का मार्ग है। भगवान्के चरणाम पड़े रहना दासता नहीं, अपितु सच्चे आनन्दका विषय है। जबकि लौकिक दासताकी बेड़ियाँ (बन्धन) दिनोंदिन मजबूत होती जाती हैं।

-कितने लोग दुनियाकी व्यर्थकी बातोंमें ही अपने जीवनका अमूल्य समय नष्ट करते रहते हैं और अधिकांश लोगोंकी चर्चाका विषय होता है, दूसरोंकी निन्दा इस तरहसे लाभ तो किसीको एक नये पैसेका नहीं होता, अपितु हानि पूरे सोलह आने होती है।

1 -भगवान् ही हमारे परम मित्र हैं। वे ही हमारे परम हितैषी हैं। उन्होंके संसर्गमें हर पल रहनेकी चेष्टा को जाय खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना सब उन्होंके साथ हो। वे चाहे मीठी बोली बोलें, चाहे कड़वी पर उनके समीपसे हमें लाभ ही होगा। यदि वे हमारेमें कोई न कमी देख-समझ रहे हैं तो हमें सुधारने के लिये ताड़ना भी दे सकते हैं। हमें भला-बुरा भी कह सकते हैं। पर करेंगे, कहेंगे ये हमारे हितकी ही बात।

संसारी बात सुनने, कहने में व्यक्तिको बड़ा हो आनन्द आता है, पर अन्तमें उसका नतीजा अच्छा नहीं होता। व्यक्तिको जैसे दाद, खुजलीके रोगमें खुजलाने में तो आनन्द आता है, पर बड़ी जलन होती है और चमड़ी पर ऊपरसे खराब होती चली जाती है। ऐसा ही प्रतिफल वह संसारी चर्चाका होता है। हाँ -अच्छी-अच्छी मनमोहक बातें सुननेसे चित्तकी

चंचलता बढ़ती है। कुछ और हो जाय कुछ और हो जायबस, यह इच्छा बनी रहती है। पर व्यक्ति यह नहीं ना अनुमान कर पाता कि मैं किसी भी दूसरेसे सम्पर्क बढ़ाकर पर अपने लिये एक खतरनाक स्थिति पैदा करता जा रहा हूँ। नये हो, रागमें ही व्यक्ति असलमें मारा जाता है।

-जो किसीका प्रिय नहीं होता, वह भगवान्का प्रिय होता है। जबतक संसारसे प्रियता बनी हुई है, तबतक भगवान्से हो नहीं सकती; क्योंकि सांसारिक क्रियाकलाप, रहन-सहन और तरहका है और परमात्माके यहाँका और तरहका। परमात्माके यहाँपर दुनियाका साज-सामान नहीं चलता, न इसकी वहाँ कोई जरूरत ही है। वहाँ तो सारी पूर्ति अन्य तरीकेसे ही होती है।

  • भक्त हरिदासजीकी चोर पिटायी करते हैं तो वे दूसरे दिन लोगोंके पूछनेपर कहते हैं कि अब प्रभुकी विशेष कृपा हुई है। अरे! चोरोंने डंडे बरसाये और यह प्रभुकी विशेष कृपा है। हाँ, सही है, भक्तोंकी भाषा ऐसी ही होती है। जहाँ संसारी व्यक्तियोंके बिगड़नेकी बात होती है। वहाँ भक्तजन बहुत सावधान रहते हैं।
  • आत्माको पूर्ण शान्तिकी स्थितितक पहुँचाने के लिये सर्वोत्तम मार्ग है— चुप रह जाना, मौन-व्रत कर लेना । हाँ, मनसे परमात्माका ही निरन्तर चिन्तन करना, मनसे परमात्माका चिन्तन करनेसे मनकी सारी शक्ति एक ही दिशामें खर्च होती रहती है, जिससे शीघ्र ही लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, परम आनन्द प्राप्त हो जाता है।
  • जब चारों ओर अँधेरा छा जाता है तो प्रकाशकी – आवश्यकता होती है, परंतु जिसके हृदयमें निरन्तर प्रभुनामकी ज्योति जलती रहती है, उसके जीवनमें न कभी अन्धकार आता है और न उसे किसी प्रकाशकी ही आवश्यकता रहती है।
  • [प्रेषक- श्रीअवधेशजी द्विवेदी ]

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