ब्रह्मास्त्रवाले अश्वत्थामाओं के बीच कहनी।

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   ब्रह्मास्त्रवाले अश्वत्थामाओं के बीच
          खोज संयमी अर्जुनों की ।


 दो – दो विश्वयुद्धों के महाविनाश के बाद भी आज के विश्व में एक भी दिन ऐसा नहीं गया , जब कोई न – कोई सशस्त्र संघर्ष जारी न हो । मानवजाति पाँच – पच्चीस बार एक – दूसरे का संपूर्ण नाश कर सके , इतने और ऐसे शस्त्र विश्व की महाशक्तियों ने एकत्र किए हैं । शस्त्रों से कोई समस्या स्थायी रूप से ने हल नहीं हो सकती । इस पूर्वभूमि का संपूर्ण ज्ञान होने के बावजूद मानव शस्त्रों की इस दौड़ से बाज नहीं आया । उसकी इस अंधी शस्त्रश्रद्धा को रोक सके और उचित मार्गदर्शन मिल सके , ऐसा कोई कथानक महाभारत से उधृत कर सकेंगे ?

महाभारत एक तरह से देखें तो समांतर चलती अनेक भावनाओं और कथानकों का घटाटोप है । काम , मोक्ष , धर्म , असूया , इस प्रकार विविध भावों की बात महाभारत हमें समय – समय पर अपने अलग – अलग कथानकों द्वारा सूचित करता है । इन सूचनाओं को एक साथ एक ही संदर्भ में देखने के लिए महाभारत के सातत्य को नज़र के सामने रखना पड़ेगा ।

हस्तिनापुर में आचार्य द्रोण धृतराष्ट्र – पुत्रों और पांडु – पुत्रों के गुरु के रूप में उन्हें धनुर्विद्या सिखा रहे थे , उस समय उनके इस शिष्यवृंद में कर्ण और अश्वत्थामा भी थे । आचार्य द्रोण के मन में अर्जुन सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी बना रहे और इसके मार्ग में कोई प्रतिस्पर्धी न रहे , ऐसी द्रोण की इच्छा थी । फलस्वरूप आचार्य ने एकलव्य का अँगूठा गुरुदक्षिणा के रूप में माँगकर अर्जुन को निर्भय किया था ।

कर्ण अर्जुन के समकक्ष योद्धा बन सके , ऐसी पूरी संभावना थी , इसलिए गुरु द्रोण अर्जुन को अलग से कई गुप्त विद्याएँ सिखा रहे थे । आचार्य को जैसी अर्जुन के लिए प्रीति थी , वैसी ही प्रीति अपने पुत्र अश्वत्थामा के लिए भी थी । आचार्य कई बार पुत्र अश्वत्थामा को भी अन्य शिष्यों से गुप्त रख कर शस्त्र विद्या के कई मंत्र सिखा देते थे । 

तथापि आचार्य ने ‘ ब्रह्मास्त्र ‘ नामक अमोघ शस्त्र मात्र अर्जुन को ही सिखाया था । धनुर्विद्या के क्षेत्र में इस ब्रह्मास्त्र की विद्या अंतिम विद्या मानी जाती है । रावण का वध राम ने ब्रह्मास्त्र से ही किया था । इस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग भी कुछ निश्चित शर्तों के साथ और निश्चित परिस्थितियों में ही हो सकता था ।

राम ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करना जानते थे , फिर भी इस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग उन्होंने रावण के साथ लंबे समय तक युद्ध करने के बाद अंत में ही किया था । जब अन्य कोई उपाय शेष बचा ही न हो तो अंतिम शस्त्र के रूप में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जा सकता है । रावण ब्रह्मास्त्र जैसे प्रचंड शस्त्र के बिना नहीं मारा जा सकेगा , यह निश्चित रूप से जानते हुए भी राम इस शस्त्र का प्रयोग प्रारंभ में कहीं नहीं करते हैं ।

 अश्वत्थामा को जब पता चला कि पिता ने ब्रह्मास्त्र की यह विद्या अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को सिखाई है और उसे नहीं सिखाई तो उसने रोषपूर्वक पिता से यह विद्या स्वयं को सिखाने की माँग की । आचार्य द्रोण पुत्र – प्रेम से

घिरे थे , यह सही था , परंतु उनका यह स्नेह अभी तक राजा धृतराष्ट्र के पुत्रमोह जितना अंधा नहीं बना था । पिता ने पुत्र से कहा कि यह विद्या ऐसे हाथ में ही सौंपी जा सकती है , जो हाथ मात्र अधर्म के विरुद्ध लड़ने में और आक्रमण के लिए नहीं बल्कि आत्मरक्षा के लिए ही इसका विनियोग करे ।

इस शस्त्र का उपयोग मात्र विजय प्राप्त करने के लिए नहीं बल्कि धर्म की स्थापना के लिए ही हो सकता है । इस शस्त्र का उपयोग मात्र प्रतिस्पर्धी योद्धा के विरुद्ध ही किया जा सकता है और उसका शमन भी किया जा सकता है । इसके शमन के लिए क्रोधरहित होना अनिवार्य शर्त है ।

पिता अपने पुत्र का क्रोधी और जिद्दी स्वभाव भलीभाँति जानते थे और इसीलिए यह प्रचंड शस्त्र उसके हाथ में सौंपने से झिझक रहे थे । परंतु पुत्र ने पिता के समक्ष हठ किया और पुत्रमोह से प्रेरित होकर पिता ने पुत्र को यह विद्या सिखाई भी ।

 कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में अर्जुन पांडवपक्ष में थे और अश्वत्थामा कौरवपक्ष में था अठारह दिन के महासंहार के बाद युद्ध समाप्त हुआ तो कौरवपक्ष में तीन योद्धा बचे थे । इन तीन योद्धाओं में अश्वत्थामा भी एक था । अठारहवें दिन की रात में उसने विजयी पांडवों के शिविर में घुसकर गहरी नींद में सोए पाँच द्रौपदी पुत्रों और छठवें द्रौपदीभ्राता धृष्टद्युम्न की हत्या कर दी । 

इसके बाद की कथा जानी हुई है । हत्यारे अश्वत्थामा को पकड़कर लाने के लिए अथवा उसका वध करने के लिए अर्जुन उसके पीछे दौड़े तो अर्जुन के हाथ से बचने के लिए अश्वत्थामा ने पिता द्रोणाचार्य द्वारा सिखाई हुई उस ब्रह्मास्त्र की अमोघ विद्या का प्रयोग किया ।

विद्या प्राप्ति के पूर्व की जो पूर्वशर्त थी , उसका यह खुला उल्लंघन था । ब्रह्मास्त्र के प्रयोग के लिए क्रोधरहित होना जितना अनिवार्य था , उतना ही अनिवार्य निर्भय होना भी था । यहाँ ‘ क्रोध ‘ शब्द का अर्थ समझ लेना चाहिए जब व्यक्तिगत स्वार्थ या हित की आड़ में क्रोध आ रहा हो तो हताशा में जो रोष प्रकट होता है तो वह क्रोध है , परंतु समष्टि के हित के सामने कोई अवरोध उपस्थित करता हो तो ऐसे विघ्नों के विरुद्ध वीर पुरुष के मन में जो क्रोध प्रकट होता है , उसे हमारे शास्त्रकारों ने क्रोध नहीं ‘ मन्यु ‘ कहा है ।

राम ने जब रावण का वध करने के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था तो उनके चित्त में ‘ मन्यु ‘ व्याप्त था । यहाँ महाभारत में अश्वत्थामा ने जब ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया , उस समय वह प्राण बचाने की हताशा से क्रोधित हुआ था ; इतना ही नहीं , अभी अर्जुन के साथ उसकी भेंट भी नहीं हुई थी कि युद्ध के आरंभ में एकपक्षी रूप से उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया ।

अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का निवारण करने के लिए अर्जुन ने प्रत्युत्तर में ब्रह्मास्त्र छोड़ा । इन दोनों ब्रह्मास्त्रों के बीच यदि अंतरिक्ष में संघर्ष होता तो समग्र सृष्टि और चराचर जीवों का नाश होने की संभावना थी । महर्षि व्यास और देवर्षि नारद उस क्षण इस संभावना से विश्व को उबार लेने के लिए अर्जुन को सूचित करते हैं कि वे अपने ब्रह्मास्त्र का शमन कर लें और शस्त्र को विश्वकल्याण हेतु वापस खींच लें ।

अर्जुन तो तत्काल इस सुझाव से सहमत होकर अपने ब्रह्मास्त्र को शांत कर देते हैं , पर अश्वत्थामा ऐसा नहीं कर पाता है । वह अपनी विवशता प्रकट करता है और पांडवों के नाश के लिए छोड़ा गया यह ब्रह्मास्त्र , अंत में समग्र कुरुवंश के एकमात्र बचे वंशज समान उत्तरा के गर्भ से , जिसका अभी जन्म भी नहीं हुआ था , ऐसे गर्भस्थ शिशु परीक्षित का ध्वंस कर डालता है ।

इस प्रकार कुरुकुल का पांडवों के जीवित होते हुए भी एक तरह से नाश हुआ ही कहा जा सकता है । पांडवों के सौभाग्य से कृष्ण जैसी परम विभूति वहाँ उपस्थित थी और कृष्णत्व के संस्पर्श से इस नष्ट हुए गर्भस्थ शिशु को पुनर्जीवन मिला । एक तरह से देखें तो संपूर्ण महाभारत शस्त्रों की दौड़ की ही एक स्पर्धा है ।

आचार्य द्रोण के पास से शस्त्र संपादन करने के बाद कर्ण ने और अधिक शस्त्र प्राप्त करने के लिए परशुराम का शिष्यत्व स्वीकार किया । दुर्योधन ने बलराम से गदायुद्ध में प्रवीणता प्राप्त की । अर्जुन ने अरण्यवास के दौरान भगवान् शंकर से पाशुपातास्त्र प्राप्त किया । इस प्रकार समग्र रूप से शस्त्रों की यह दौड़ अविरत चलती रही है । जो शस्त्र समर्थ और समझदार हाथों में दिए गए , वे शस्त्र हर स्थिति में धर्मयुद्ध के लिए आग्रही रहे ।

भीष्म , द्रोण या कर्ण प्रचंड योद्धा थे और अभिमन्यु के वध जैसे इक्के – दुक्के प्रसंग छोड़ दें तो दुर्योधन के अधर्मपक्ष में रहकर लड़ते हुए भी इन योद्धाओं ने अपने शस्त्रों का धर्म निषिद्ध उपयोग कहीं नहीं किया और ऐसा होते हुए भी इस प्रचंड शस्त्र – दौड़ के अंत में विजेता पांडवों के भी महामनीषी व्यास ने जो रुदन कराया है , शस्त्र किसी समस्या को स्थायी रूप से हल नहीं कर सकते , इसका ही यह प्रमाण है ।

शस्त्र अयोग्य हाथों में जा पड़ें तो कैसा परिणाम आ सकता है , इसका दिशासूचन महाभारतकार ने अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र प्रयोग से किया है । आज के जगत् में शस्त्रों की जो दौड़ चल रही है , उसमें सभी कोई भीष्म या अर्जुन जैसे नहीं जनमेंगे । 

अर्जुन के ब्रह्मास्त्र को रोकने के लिए उस क्षण तो महर्षि व्यास और देवर्षि नारद उपस्थित थे ; इतना ही नहीं अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से समग्र कुरुवंश को नष्ट होने से रोकने के लिए श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष भी थे । आज विश्व में अश्वत्थामा तो पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं , पर व्यास , नारद या कृष्ण कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहे हैं , और इसीलिए शस्त्रों की आधुनिक दौड़ महाभारत काल की शस्त्र स्पर्धा कहीं अधिक विकराल और विनाशक है ।

परस्पर संहार का तत्त्व मनुष्य ने आदिकाल से पाला – पोसा है । सचराचर सृष्टि में कोई जीव कभी हिंसा को पोसे बिना टिक नहीं सकता और इसके बावजूद अहिंसा से ऊँचा कोई आदर्श नहीं हिंसा जब तक जीवसृष्टि के अस्तित्व के लिए अनिवार्य है , तब तक शस्त्रों की दौड़ थमनेवाली नहीं है और प्रत्येक युग में श्रीकृष्ण , महर्षि व्यास या देवर्षि नारद की हम अपेक्षा भी नहीं कर सकते । ऐसी स्थिति में मानवजाति को महाभारत से जो सीखना है , वह इतना ही है कि अर्जुन की समझदारी और उनकी अक्रोष अवस्था हमें प्राप्त हो ।

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