अर्जुन की आत्महत्या और युधिष्ठिर का वध।

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अर्जुन की आत्महत्या और युधिष्ठिर का वध।


 

महाभारत में भीष्म की प्रतिज्ञा , कर्ण का औदार्य , युधिष्ठिर की क्षमाभावना , विदुर की ज्ञानचर्चा , ये सभी कथानक व्यावहारिक जीवन से दूर लगते हैं । वास्तविक जीवन में प्रत्यक्ष प्रमाण मिले और जिसका स्वीकार जीवन को बेहतर बनाने में हो सके , ऐसा कोई विशिष्ट कथानक आज के संदर्भ में उद्धृत किया जा सकता है क्या ?

 महाभारत के विषय में जब भी विचार किया जाता है तो हमारे कथाकारों ने हमसे सतत एक बात कही है कि महाभारत के कथानक और उसके पात्र दर्शनीय हैं , परंतु अनुकरणीय नहीं हैं । इसके विपरीत रामायण के विषय में जब भी विचार होता है तो ये सभी एक ही स्वर में कोरस में बोल उठते हैं कि रामायण के कथानक और पात्र अनुसरणीय हैं ।

राम की पितृभक्ति , सीता की पतिपरायणता लक्ष्मण या भरत का भ्रातृप्रेम , हनुमान का सेवाकर्म , ये सभी पहली नजर में ही सरल लगते हैं । इन सभी पात्रों में जो गुण कवि ने निरूपित किए हैं , उनमें एकवाक्यता भी है । इसके विपरीत महाभारत में जो कथानक और पात्र हैं , उनमें स्पष्ट से बार – बार विसंवाद दिखाई देते हैं ।

भीष्म की पितृभक्ति राम की पितृभक्ति की अपेक्षा अधिक उदात्त है । परंतु राम की पितृभक्ति अनुसरण हो सके अथवा अनुसरण करने के लिए उद्धृत कर सके , ऐसी सरल है और व्यावहारिक भी है , जबकि भीष्म की पितृभक्ति अनुसरण करने के लिए उद्धृत की जा सके , ऐसी व्यावहारिक नहीं लगती । 

इसी प्रकार कर्ण का औदार्य ; युधिष्ठिर की क्षमाभावना या द्रौपदी का पत्नीधर्म , ये सभी ऐसे संकुल कथानकों के साथ प्रकट हुए हैं कि उनका अनुसरण करने के लिए इस घटनाक्रम का मर्म समझना पड़ता है । कृष्ण इन सभी में सर्वोच्च स्थान पर हैं । उनके जीवन में स्पष्टतः अपार विसंवाद है और ऐसा होने पर भी कृष्ण एक ऐसे पात्र हैं कि जिनमें वाणी वर्तन की चाबी यदि हल की जा सके तो हमारे अनेक प्रश्न आज के संदर्भ में भी समझे जा सकते हैं ।

महायुद्ध के सत्रहवें दिन महारथी कर्ण जब कौरव सेना के सेनापति थे , उस समय जो घटना घटित हुई है , उस घटना को अपूर्व कहा जा सकता है । कर्ण ने युद्ध के आरंभ में माता कुंती को वचन दिया था कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी पांडव का वध नहीं करेगा । इसी प्रकार यदि अर्जुन उसके हाथों युद्ध में मारा जाएगा तो कर्ण कुंतीपुत्र के रूप में पाँचवाँ पांडव रहेगा और यदि स्वयं कर्ण का ही अर्जुन के हाथों वध हो गया तो भी कुंती पाँच पांडवों की माता के रूप में यथावत् रहेगी ।

युद्ध के सत्रहवें दिन कर्ण के हाथ में युधिष्ठिर फँस गए । कर्ण ने युधिष्ठिर को पराजित किया । इतना ही नहीं , यदि चाहता तो इस पराजय के क्षण में वह युधिष्ठिर का वध कर सकता था और यदि ऐसा हुआ होता तो महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया होता , कौरव पक्ष विजयी हो गया होता और कृष्ण की उपस्थिति होने के बावजूद पांडव पक्ष छिन्न – भिन्न हो गया होता ।

परंतु कर्ण ने अपनी विजय के मूल्य पर भी जननी कुंती को दिया अपना वचन निभाया । उसने अपमानित युधिष्ठिर को सुरक्षित जाने दिया । आहत और अपमान के कारण रोष में भरा यह ज्येष्ठ पांडव अपने शिविर में वापस लौटा । 

बड़े भाई कर्ण के साथ युद्ध कर रहे थे और फिर अचानक रणक्षेत्र से चले गए , इस बात से चिंतित होकर अर्जुन ने अपना रथ युधिष्ठिर के शिविर की ओर लिया । क्रोध और पीड़ा से प्रमाणधान चूके युधिष्ठिर ने अर्जुन को कठोर वचन सुनाए । युधिष्ठिर ने कहा , ” हे अर्जुन , मुझे तो ऐसा लगा कि तुम कर्ण का वध

करके ही यह शुभ समाचार देने के लिए आए होगे । इसके बदले अकेले भीम को लड़ता छोड़कर मेरे पीछे यहाँ तुम दौड़े आए , इसलिए ऐसा लगता है कि तुम कर्ण से भयभीत हो गए हो । तुम तो कहते थे कि कर्ण का वध तुम तुरंत ही कर सकोगे , पर ऐसा लगता है कि तुम कर्ण के समकक्ष के योद्धा नहीं हो ।

तुमने केवल शेखी ही बघारी थी । धिक्कार है तुम्हारी शस्त्रविधा को और धिक्कार है तुम्हारे गांडीव धनुष को ! ” यह सुनकर अर्जुन म्यान में से तलवार खींचकर बड़े भाई का वध करने के लिए झपट पड़ते हैं । इस क्षण कृष्ण उनसे इसका कारण पृछते हैं । जवाब में अर्जुन ने कहा कि उनके गांडीव धनुष की जो कोई निंदा करेगा , उसका वध करने की उन्होंने प्रतिज्ञा ली है ।

यह एक अत्यंत नाजुक क्षण था । प्रचंड धर्मसंकट पैदा हुआ था । महाभारत के अधिसंख्य पात्र बात – बात में प्रतिज्ञाबद्ध होते रहे हैं और फिर इस प्रतिज्ञा का पालन करने के लिए नई – नई घटनाएँ सर्जित होती रही हैं । कर्ण ने युधिष्ठिर का वध न करके कौरवों को विजय से वंचित रखा था । अब इस क्षण यदि अर्जुन युधिष्ठिर का वध करे तो विजयश्री एक बार फिर कौरवों के भाग में चली जाएगी । इस प्रकार जो काम कर्ण ने नहीं किया , वह काम करने के लिए अर्जुन उद्यत हुए थे ।

हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे धर्मसंकट आते ही हैं । अर्जुन के जीवन का यह बहुत बड़ा संकट था । कृष्ण ने इस धर्मसंकट का व्यावहारिक हल सुझाया है । उन्होंने अर्जुन को कहा , “ हे अर्जुन , धर्म और सत्य का पालन उत्तम है , किंतु इस तत्त्व के आचरण यथार्थ स्वरूप जानना अत्यंत कठिन है ।

असत्य भी जाता है । आचरण में लाया गया एक सत्य उसके इस स्वरूप में अन्य संयोगों में भी जो आचरित करता है , वह सत्य के सूक्ष्म स्वरूप को नहीं जानता ” , यह कहकर कृष्ण ने अर्जुन से कहा , ” साधु पुरुष या वरिष्ठ व्यक्ति को ‘ तू ‘ कहकर अपमानित करना , उसका वध करने के समान ही है । फिर युधिष्ठिर तो तुम्हारे बड़े भाई हैं , इसलिए पितातुल्य हैं ।

इस पितृतुल्य बड़े भाई को तुमने सदैव मान दिया है । आज अब तुम उन्हें तूकार के साथ संबोधित करके कठोर वचन कहो , इसलिए यह उनका वध हुआ ही कहा जाएगा । ” कृष्ण के इस सुझाव के अनुसार अर्जुन ने युधिष्ठिर को अपमानित किया और पांडवों के आज तक के तमाम दुःखों और द्रौपदी के अपमान के लिए युधिष्ठिर के द्यूतप्रेम को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि अन्य पांडव जब कष्ट सहन कर रहे थे तो बड़े भाई द्रौपदी की शय्या पर बैठे हुए थे , ऐसे अतिशय कठोर शब्दों का प्रयोग किया ।

एक संकट तो कृष्ण ने अपनी व्यावहारिक सूझ – बूझ से दूर कर दिया और युधिष्ठिर का वध हो , ऐसी नाजुक परिस्थिति धर्मसंगत ढंग से हल्की की , लेकिन बड़े भाई को कठोर वचन कहकर उनका अपमान करना पितृहत्या के समान बताया जाता है । ऐसे धर्म का सहारा लेकर अर्जुन ने कहा कि मैं पितृहंता सिद्ध हुआ हूँ और इस पाप से मुक्त होने के लिए अब मैं स्वयं अग्निप्रवेश करके आत्महत्या करूँगा । फिर एक बार धर्मसंकट पैदा हो चुका था । अर्जुन ने आत्महत्या करने का जो निश्चय किया , वह धर्मसंगत ही था , क्योंकि पितृवध के पाप की मुक्ति अग्निप्रवेश से ही मिलती है , ऐसा शास्त्रोक्त कथन है ।

परंतु अब इस धर्म के अनुसार अर्जुन अग्निप्रवेश करके आत्महत्या करे तो फिर एक बार युद्ध निरर्थक हो जाएगा और कौरवों की विजय निश्चित हो जाएगी । इस क्षण कृष्ण शास्त्रों और धर्म का अनुसरण करके ही उसका निराकरण करते हैं । कृष्ण ने कहा , ” अर्जुन , मैंने तुमसे पहले ही कहा कि धर्म का स्वरूप बहुत ही सूक्ष्म है , इसलिए इसे इस तरह ऊपर ऊपर से नहीं समझा जा सकता है ।

पितृहत्या के पाप की मुक्ति यदि आत्महत्या हो तो यह आत्महत्या कोई अग्निप्रवेश से ही हो , ऐसा नहीं । धर्म को जाननेवाले समर्थ पुरुष कह गए हैं कि आत्मश्लाघा ( आत्मप्रशंसा ) आत्महत्या का ही एक रूप है , अतः अब तुम अपनी स्वयं की प्रशंसा करके आत्मश्लाघा द्वारा आत्महत्या करके इस पितृहत्या के पाप से मुक्ति प्राप्त कर लो । ” कृष्ण द्वारा सुझाए इस व्यावहारिक निराकरण को फिर एक बार अर्जुन ने स्वीकार किया ।

उसने स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते हुए कहा कि भगवान् शंकर के सिवा मेरा प्रतिकार कर सके , ऐसा कोई योद्धा इस पृथ्वी पर नहीं है । मेरी शक्ति के कारण ही राजसूय यज्ञ हो सका था । मैं तीनों लोकों का विनाश कर सकूँ , इतना शक्तिशाली इस प्रकार अर्जुन ने गांडीव की निंदा करनेवाले का वध करने की अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया और उसके साथ ही पितृहत्या के पाप से मुक्ति भी पाई ।

इस धर्मसंकट में से उसे जो मुक्ति मिली , वह कृष्ण की सूक्ष्मातिसूक्ष्म , पर व्यावहारिक धर्मबुद्धि की आभारी है । सत्य किसे कहते हैं ? धर्म क्या हैं ? ये प्रश्न मात्र ज्ञानियों के लिए चर्चा या विवाद के ही मुद्दे नहीं हैं , बल्कि उन्हें यदि सही परिप्रेक्ष्य में समझा जाए तो व्यावहारिक जीवन की समस्याएँ भी हल की जा सकती हैं ।

जैसा इस घटना के लिए कहा जा सकता है , वैसा ही अन्य कथानकों के लिए भी समझा जा सकता है । भीष्म की प्रतिज्ञा अतिशय दुष्कर है , इसीलिए वे भीष्म बने हैं । अपने शरीर पर से कवच – कुंडल उतारकर भिक्षा माँगने आए ब्राह्मण को दान कर देने से मेरी पराजय होगी , यह जानते हुए भी कर्ण द्वारा प्रदर्शित औदार्य और चित्रांगद गंधर्व के हाथों बंदी हुए दुर्योधन को मुक्त करवाने की युधिष्ठिर की क्षमाभावना निश्चित ही व्यावहारिक जीवन में उतारना कठिन लगे , ऐसे कथानक हैं ।

परंतु जिस तरह युद्ध के सत्रहवें दिन अर्जुन और युधिष्ठिर के बीच उत्पन्न हुई समस्या कृष्ण ने धर्म का आसरा लेकर ही हल कर दी , उसी तरह भीष्म की प्रतिज्ञा , कृष्ण का औदार्य या युधिष्ठिर की क्षमाभावना को भी उनकी मूल भावना को समझ लें तो उन पर आचरण करना भले कठिन हो , असंभव नहीं ।

इन कथानकों को , ये जिस प्रकार कहे गए हैं , उसी प्रकार उनके शब्दों से चिपटे रहकर देखने से उन्हें नहीं समझा जा सकता है । उन्हें समझने के लिए किंचित् भिन्न प्रकार की दृष्टि अपनानी पड़ेगी । एक बार यदि यह दृष्टि प्राप्त हो जाए तो रामायण की ही तरह महाभारत के कथानक और पात्र भी समझे जा सकें , ऐसे रसप्रद और आत्मीय लगने लगेंगे ।

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