नर , नरोत्तम , नारायण आध्यात्मिक ज्ञान।

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  नर , नरोत्तम , नारायण ।


महाभारत में सावित्री मंत्र जैसे जिन दो श्लोकों का हमने उल्लेख किया , उनमें से आरंभ के श्लोक में महाभारत में लेखक ने जिन विषयों की चर्चा की है , उनकी सूची दी है , परंतु इस सावित्री मंत्र का जो दूसरा श्लोक महाभारत के अंतिम अध्याय में दिया है , उसमें रचनाकार व्यास स्वयं हाथ ऊपर उठाकर आक्रोश करते हैं कि मेरी बात कोई सुनता नहीं । इसका क्या ऐसा अर्थ लगाया जा सकता है कि महाभारतकार अपनी रचना के उद्देश्य में निष्फल सिद्ध हुए हैं ? इसके साथ ही महाभारत की समग्र रचना का यदि एक ही उद्देश्य बताना हो तो वह कौन सा बताया जा सकता है ?

महाभारत के आरंभ का जो सर्वप्रथम श्लोक है , उसे ध्यान में लिये बिना इस समग्र प्रक्रिया को नहीं समझा जा सकता है । महाभारत के विषय में कोई बात निश्चितता के साथ नहीं कहीं जा सकती । महाभारत में ऐसे अनगिनत प्रसंग और कथानक हैं कि जिन्हें ‘ दो धन दो बराबर चार ‘ जैसी सरलता से मूल्यांकित नहीं किया जा सकता ।

परा और अपरा विद्या की बात करते हुए उपनिषद्कार ने स्वयं वेदों को भी अपरा विद्या कहा है । वेद यदि ईश्वर कथित हैं तो ईश्वर के प्रमाणभूत वाक्य अपरा विद्या कैसे हो सकते हैं , ऐसा संशय मन में पैदा होता है । परंतु यह संशय तभी तक टिका रहता है , जब तक ब्रह्मविद्या शब्द समझ में न आया हो ।

ब्रह्मविद्या ही पराविद्या है और बाकी की तमाम विद्याएँ यदि इस ब्रह्म विद्या की दिशा में न ले जाती हों तो अपराविद्या है । इसी प्रकार महाभारत में भी अब तक संदर्भ और प्रबल रहस्य स्फुट नहीं होते , जब तक प्रसंगतः संशय पैदा होते ही हैं । 

महाभारत का पहला श्लोक बहुत प्रसिद्ध है । इस श्लोक का पहला चरण इस प्रकार है – ‘ नारायणं नमस्कृत्यं नरं चैव नरोत्तमम् ‘ , समग्र महाभारत की आधारशिला ये तीन शब्द हैं : नर , नरोत्तम और नारायण प्रत्येक मानव की अभीप्सा और मनुष्य के पास से परमात्मा की अपेक्षा भी यही है कि नर से नारायण की ओर गति करे । इसे आप शिव में से प्रकट हुआ जीव पुनः शिव में मिल जाए , ऐसे एक वर्तुल की बात भी कर सकते हैं ।

जीव का आरंभ शिव से हुआ है और जीव का अंतिम गंतव्य स्थान भी शिव ही हो सकते हैं । ‘ नर ‘ शब्द यहाँ पुरुषवाचक नहीं है । नर माने प्रत्येक मानव फिर वह पुरुष हो या स्त्री ! नर इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम नरोत्तम बनने की दिशा में गति करे और अंतिम चरण में वह नारायण को प्राप्त करे , तभी यह वर्तुल पूरा होता है ।

इसी श्लोक का दूसरा चरण देवी सरस्वती का स्मरण करता है । नर की नरोत्तम और नारायण की दिशा में गति ज्ञान के बिना संभव नहीं । याद रहे कि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग , इन दोनों से ज्ञानयोग को ऊपर बताया है । यह ज्ञान देवी सरस्वती की कृपा के बिना संभव नहीं ।

याद रहे कि भगवतगीता में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग और भक्तियोग , इन दोनों की अपेक्षा ज्ञानयोग श्रेष्ठ बताया है । यह ज्ञान देवी सरस्वती की कृपा के बिना प्राप्त नहीं होता और इसीलिए देवी सरस्वती की वंदना करके इस श्लोक का अंतिम चरण वे इस प्रकार पूर्ण करते हैं , ‘ ततो जयमुदीरेयत ‘ ( तभी जय – जयकार होती है )

इसके बावजूद नर से नारायण की प्राप्ति तो बहुत कम ही होती है । अधिकतर लोग तो ईश्वर प्रदत्त अपनी नर प्रवृत्ति में भी नहीं जी पाते हैं और नर से भी नीचे की श्रेणी में अपना संपूर्ण जीवन बिता देते हैं । अनेक व्यक्ति अपनी नर प्रकृति में ही जीवन व्यतीत करते हैं ।

बहुत थोड़े ही लोग नर से नरोत्तम होने की कोशिश करते हैं और मात्र दो – चार व्यक्ति ही ऐसे पुरुषार्थी होते हैं , जो नारायणत्व प्राप्त करते हैं । महाभारत इन सभी प्रकार के व्यक्तियों की कथा – सृष्टि है । ये पात्र , महाभारतकार ने आरंभ के सावित्री मंत्र में अपने जो उद्देश्य प्रकट किए हैं , उन्हीं उद्देश्यों से घिरे हुए जीते हैं ।

महाभारत में युद्ध है , वैर है , काम है , क्रोध है , ईर्ष्या है , प्रेम है , त्याग है , शांति है , अशांति है और यह सारा कुछ इस प्रकार परस्पर गड्डमड्ड होकर फैला है कि इनके अंत में जो निष्पन्न होता है , वह अतिशय रसप्रद हो उठता है । महाभारत के सबसे प्रमुख पात्र भीष्म का जीवन देखें या महाभारत के युग – प्रवर्तक पात्र श्रीकृष्ण का जीवन देखें , तो हम अभिभूत हुए बिना नहीं रहते ।

लेकिन जब उनके जीवन का अंत देखते हैं तो यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि ऐसे उदात्त जीवन का ऐसा दारुण अंत क्यों ? ‘ धर्म की जय और पाप का क्षय ‘ यह सूत्रवाक्य महाभारत में हमें बार – बार पढ़ने को मिलता है । परंतु महाभारत में क्या सचमुच धर्म की ही विजय हुई है ? महाभारत में धर्म शब्द का प्रयोग बार – बार हुआ है । लगभग हर पात्र अपने हर कृत्य को धर्म का नाम लेकर उचित ठहराने का प्रयास करता है ।

हस्तिनापुर की द्यूतसभा में द्रौपदी को निर्वस्त्र किए जाने के कृत्य को भी कर्ण और दुर्योधन धर्म का सहारा लेकर न्यायोचित ठहराने का प्रयास करते हैं । भरी सभा में कुलवधू को इस तरह अपमानित करना अधर्म है , द्रौपदी के ऐसा कहने पर धर्मतत्त्व अत्यंत सूक्ष्म है ‘ , यह कहकर भीष्म लाचारी में अपने हाथ ऊपर उठा लेते हैं । परंतु विकर्ण उस समय कहता है , ‘ द्रौपदी के साथ अधर्म किया जा रहा है ।

‘ इस प्रकार इस घटना के संदर्भ में धर्म के ज्ञाता इन सभी पात्रों के अलग – अलग अभिमत हैं । धर्म महाभारत का प्राणतत्त्व है । यह प्राणतत्त्व किसी निश्चित केंद्र में नहीं हो सकता । प्राण का वास तो संपूर्ण कलेवर और उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अंश में समान रूप से व्याप्त रहता है । प्राण का अर्थ है चैतन्य और धर्म का भी अर्थ चैतन्य ही है । धर्म के बिना चेतना नहीं हो सकती । मनुष्य जाति ने धर्म का आश्रय इसलिए लिया है कि मनुष्य को अपना गंतव्य स्थान हमेशा शांति की प्राप्ति ही लगा है ।

मनुष्य धर्म का अनुसरण इसलिए करता है कि उसे ऐसा लगता है कि धर्म के अनुसरण से ही उसे शांति मिलेगी । इस प्रकार धर्म एक साधन है और शांति साध्य है । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि हर बात में धर्म का नाम लेने वाले इन सभी पात्रों को अंत में शांति प्राप्त हुई क्या ? महाभारत में असंख्य पात्रों में से सभी ने धर्म का सही अनुसरण नहीं किया और इसीलिए वे परास्त हुए या अशांति पाए , ऐसा कहना सरल है ।

दुर्योधन , धृतराष्ट्र , शकुनि को हम खलनायक के रूप में देखते हैं , इसलिए उनके अंत के लिए यह अनुकूल अर्थघटन हम तत्काल स्वीकार कर लेते हैं कि वे धर्मनिष्ठ नहीं थे , इसलिए शांति प्राप्त नहीं कर सके और उनका दुःखद अंत हुआ , परंतु जिन्हें हम धर्मिष्ठ मानते हैं , ऐसे युधिष्ठिर और अन्य पांडव , द्रौपदी , विदुर , ये सभी पात्र भी शांति पाए क्या ?

युद्ध के अंत में विजेता हुए युधिष्ठिर तो अत्यंत व्यथित होकर आक्रोश भी करते हैं कि ऐसी विजय प्राप्त कर राज करने का क्या अर्थ है ? वे स्वयं आत्महत्या करने के लिए भी तत्पर हो जाते हैं । इसके बाद के छत्तीस वर्षों तक उन्होंने राज्य तो किया , परंतु ये छत्तीस वर्ष उनके द्वारा कल्पना में सँजोए सुख या शांति के वर्ष नहीं रहे । छत्तीस वर्ष तक मन में उद्वेग , उचाट और

अपराध – बोध का भार सँभालने के बाद पांडव स्वर्गारोहण करने के उद्देश्य से अपनी मृत्यु को गले लगाने के लिए जाते हैं । एक तरह से देखें तो यह आत्महत्या का ही एक प्रकार है । आत्मविलोपन का विचार जीवन की निराशा में से ही उत्पन्न होता है ।

पांडव जो जीवन पिछले छत्तीस वर्ष से जी रहे थे , उसमें एकमात्र कृष्ण का प्रेरणाबल था । जैसे ही कृष्ण ने इस संसार से विदा ली , वैसे ही केंद्र विहीन पांडवों के लिए जीवन दुष्कर हो गया और उन्होंने स्वर्गारोहण का मार्ग अपनाया । विदुर जैसा समर्थ पुरुष अपने जीवन के अंतिम दिनों में अन्न , जल , वस्त्र , स्मृति , सबकुछ त्यागकर काष्ठ जैसा बनकर अरण्य में मृत्यु को प्राप्त हुआ ।

पुत्र की अपेक्षा धर्म की विजय बड़ी है , ऐसा माननेवाली और कहनेवाली तथा पति को जो अलभ्य है , वह दृष्टि अपने लिए भी त्याज्य है , ऐसा जीवन जीनेवली सती गांधारी सदैव धर्मनिष्ठ रहकर पति तथा बड़ों की सेवा करनेवाली कुंती और प्रतापी राजा धृतराष्ट्र , ये सभी रण्य में दावानल के बीच जलकर भस्म हो गए । भीष्म ने अट्ठावन दिन तक शरशय्या पर सोए रहकर पुत्रों और प्रपौत्रों का संहार होते देखा ।

स्वयं श्रीकृष्ण ने भी अपनी ही आँखों से यादव कुल का विनाश देखा और वे स्वयं भी एक आदिवासी शिकारी के हाथ से पशु की भाँति तीर लगने से मारे गए । यह समग्र घटनाचक्र मानो पाठक को यह मानने की दिशा में खींच ले जाता है कि जीवन व्यर्थ है । जीवन में भवितव्य निश्चित है ।

महाकाल की अपनी स्वतंत्र गति होती है और यह महाकाल अपने प्रवाह के बीच जीनेवाले किसी पात्र को किसी भी निश्चित दृष्टि या विभावना से मूल्यांकित नहीं करता है । पश्चिम के कई विचारक , जिसे Absurd कहते हैं , वैसा ही यह जीवन है । इसमें कोई हेतु नहीं । जन्म और मृत्यु , इन दो बिंदुओं के बीच हमें जो वर्ष मिले हैं , वे वर्ष हम जी कर निकाल देने वाले हैं , पर जीवन की गति हम निश्चित नहीं कर सकते ।

उसका निश्चय तो महाकाल ने ही करके रखा होता है , और यह अंत किसी को उसके निश्चित कर्मों के आधार पर निश्चित प्रकार से प्राप्त होता है , ऐसा नहीं कहा जा सकता है । अंत का संबंध हैं , वहाँ तक तो महाकाल मानो ऐसा संकेत देता है कि जीवन व्यर्थ है और मृत्यु ही सार्थक है ।

यह मृत्यु कर्म के अनुसार नहीं बल्कि महाकाल की एकवाक्यता के अनुसार प्राप्त होती है । इसमें जाँघ टूट जाने के कारण लहूलुहान होकर कुत्ते – बिल्ली की तरह तड़पता दुर्योधन हो , जंगल में भड़कती अग्नि में लाचार होकर जल रहे धृतराष्ट्र , गांधारी और कुंती हों , या फिर स्वर्गारोहण के नाम पर आत्म – विलोपन कर रहे पांडव हों या अनजाने पारधि के हाथों शिकार हो जानेवाले युगपुरुष श्रीकृष्ण हों , इन सभी के प्रति महाकाल एक समान ही तटस्थ और निर्मम है ।

महर्षि व्यास इस विराट् कथानक में मानो जीवन की विषमता की बात हमें बता रहे हैं । धर्म के अनुसरण से सबकुछ प्राप्त होता है , यह कहकर रचनाकार जो व्यथा व्यक्त करता है , वह यह है कि ऐसा होने पर भी मानव धर्म का अनुसरण नहीं करता ।

जीवन की निष्फलता तो है ही , पर इस निष्फलता को भी संतोष व शांतिपूर्वक स्वीकारना हो तो धर्म का अनुसरण ही एक मात्र मार्ग है । विदुर , युधिष्ठिर , भीष्म या कृष्ण , इनका भी अंत तो महाकाल के हाथों निर्ममता से ही आया है , पर यह अंत इन पात्रों को सहज लगा है । अंत को प्राप्त करने के समय वे व्याकुल नहीं हुए ।

उन्होंने चीत्कार नहीं किया । यह व्यर्थता समझ गए हों , इस तरह उन्होंने शांति से अपने अस्तित्व का विघटन कर डाला है । जो धर्म का अनुसरण करने में निष्फल हो गए या सिद्ध हुए , ऐसे पात्र दुर्योधन , अश्वत्थामा या धृतराष्ट्र इन सभी ने अशांत चित्त से जीवन का अंत प्राप्त किया । इस प्रकार महाभारतकार ने अपने उद्देश्य की एक तरह से पूर्ति ही की है , पर मनुष्य इस रहस्य को प्राप्त नहीं कर सकता है , यह उसकी समझने की शक्ति की मर्यादा है । :

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