जब मअन्तस् में बैठा लो प्रभु को ।
जब मनुष्य किसी को अपने हृदय में स्थापित कर • लेता है तो उसके द्वारा दी गयी प्रेरणा उसके लिये वज्र लकीर बन जाती है वो उसको अनुशासित करती है , वो उसको प्रेरित करती है
अन्तस् में बैठा लो प्रभु को ।
साक्षर को संस्कृति में बहुवचन में बोलेंगे साक्षरा जो अक्षर सहित है अगर उनकी बुद्धि ठीक है तो ठीक अगर साक्षरा को पलटोगे तो राक्षसा हो जायेगा । संस्कार खो दिये तो साक्षर को राक्षस बनने में देर नहीं लगती उसकी प्रवृत्तियां ऐसी हो जाती है , जिससे उसकी मनोवृत्तियां राक्षसी हो जाती हैं और वो अपने जीवन का पतन कर डालता है सत्संगति कीजिये , बच्चों की संगति पर शुरू से नजर रखिये । बच्चों को इस बात की अच्छी हिदायतें दीजिये कि अपने संस्कार अपने चरित्र को सदैव ध्यान में रखकर रहो ।
जीवन का सबसे बड़ा धन यदि कुछ है तो चरित्र का धन है जो संस्कारों की पवित्रता से ही प्रकट होता है , बुरी आदतों से बचने पर ही प्रकट होता है , इसलिये अपने चरित्र के प्रति जो व्यक्ति शुरू से ध्यान रखते हैं और सजग रहते हैं उनके जीवन में बुराइयाँ कभी पनपती नहीं है । तो मैं कह रहा था कि बुराईयों से बचने के लिये दृढ़ संकल्प लें , बुराईयों के परिणाम को देखें , सत्संगति रखें और चौथी बात जो बहुत महत्वपूर्ण है वो ये है कि अपने हृदय में किसी उच्च आदर्श को स्थापित करें ।
मनोविज्ञान कहता है कि
जब मनुष्य किसी को अपने हृदय में स्थापित कर • लेता है तो उसके द्वारा दी गयी प्रेरणा उसके लिये वज्र लकीर बन जाती है वो उसको अनुशासित करती है , वो उसको प्रेरित करती है
और ऐसा हो जाने पर कुकृत्य से बच जाता है । अपने इष्ट को अपने आराध्य को , अपने गुरु को अपने हृदय में बसा लो , अपने मन में बसा लो और अगर ऐसा बसा लोगे तो तुम्हारे द्वारा कुछ नहीं होगा ।
तुम्हें लगेगा कि ये जो मैं कह रहा हूँ , मेरे गुरु , मेरे प्रभू ये जो मेरे दिल में बसे हैं वो देख रहे हैं , वो क्या कहेंगे ? यदि तुम्हारे अन्दर उनके प्रतिश्रद्धा है । केवल ऊपर – ऊपर से करोगे तो कुछ नहीं होगा अन्दर बसा लो । वो प्रेरणा ऐसी प्रबल प्रेरणा होगी जो जीवन में एक बहुत बड़ा रूपान्तरण घटित करेगी वो जीवन की क्रान्ति बन जायेगी आप ऐसा करेंगे तो बुरी आदतों से निश्चित छूट जायेंगे ।
फिर अच्छे परिवेश में रहें , अच्छा साहित्य पढ़ें और अपने मन में बुराईयों से जूझने का साहस उत्पन करें संकल्प – संवर उत्पन्न करें आप सब इन चीजों से मुक्त हो सकते हैं । तो बुरी आदतों से बचने की बात आज आप सबसे की गयी मैं चाहता हूँ आप सब बुरी आदतों से बचें ।
इतनी देर में बहुत कुछ आपके चित्त में उथल – पुथल भी रहा होगा । मैं तो ये मानता हूँ कि मेरा कहना तभी सार्थक होगा जब आज इस सभा को छोड़ने से पहले यहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति नशा मुक्ति का संकल्प लेकर उठें क्या आप लोग राजी हैं इसके लिये थोड़ा हाथ उठा लीजिये कितने लोग राजी हैं जो जीवन में नशा नहीं करेंगे । महिलायें क्या तैयार हैं नशा करने को ? उनके हाथ नहीं दिख रहे ? दिखाओ तो ।
प्रसन्नता का राजमार्ग ।
जब मन चंगा तो कठौती में गंगा के हर व्यक्ति सुख , शांति और प्रसन्नता से जीना चाहता है लेकिन उसके जीवन में उतना ही दुख , अशांति और उद्विग्नता दिखती है । सुबह से शाम तक हमारा मन सुख और दुख के बीच डोलता रहता है । कभी प्रसन्नता होती है तो कभी खिन्नता होती है , कभी सुख होता है तो कभी दुख होता है ।
कभी आनंद होता है तो कभी अवसाद , तो कभी उत्साह रहता है तो कभी उदासी । आखिर क्या कारण है कि हमारा जीवन सुख और दुख के हिण्डोले में झूलने के लिए अभिशप्त है क्या ऐसा भी कोई मार्ग है जो हमें स्थिरता और प्रसन्नता का जीवन दे सके ? संत कहते हैं कि मार्ग है । जो व्यक्ति अपने जीवन की वास्तविकता को समझता है , जीवन को समग्रता से पहचानता है और जीवन जीने की कला को जान लेता है उसे वह मार्ग प्राप्त हो जाता है ।
जिसे जीवन जीने की कला का ज्ञान हो , वो व्यक्ति अपने जीवन के तमाम उतार – चढ़ाव के मध्य भी स्थिरता और प्रसन्नता से जीने का आदी और अभ्यासी बन सकता है । हम कभी सुखी होते हैं कभी दुखी होते हैं । आदमी चाहता है कि वह सदैव आनंदित रहे लेकिन कभी सुख तो कभी दुख दिखते हैं । हम थोड़ा देखें कि ये सुख और दुख हैं क्या ? सुख और दुख कुछ नहीं ये सब हमारी इन्द्रिय चेतना की अभिव्यक्तियां हैं ।
ख का अर्थ होता है इन्द्रियां । जो हमारी इन्द्रियों ने अनुकूल है वह सुख और जो प्रतिकूल है वह दुख है । हमारी इन्द्रियों को कब क्या अनुकूल हो जाये और कब क्या प्रतिकूल हो जाये कहा नहीं जा सकता क्योंकि हमारी इन्द्रिय चेतना हमारी : मानसिकता से नियंत्रित होती है । मानसिकता ठीक रहने पर प्रतिकूलताओं में भी व्यक्ति को अनुकूलता का अहसास होता है और मानसिकता के बिगड़ जाने पर अनुकूलता में भी व्यक्ति तकलीफ भोगता है ।
जिसे व्यक्ति अपने जीवन का सुख अथवा दुख कहता है , सच्चे अर्थों में देखा जाये वे सब उसकी मानसिक परिणतियां हैं । एक व्यक्ति भोजन करने के लिये बैठा है और उसे रूखी – सूखी रोटी भी मिली है पर मन अनुकूल है तो रूखी – सूखी रोटी में भी रसगुल्ले से ज्यादा मधुर स्वाद का अहसास होता है ।
दूसरी ओर थाली में तरह – तरह के व्यंजन परोसे गये हैं पर मूड खराब है तो रसगुल्ले का भी रस गोल हो जाता है । चीजों से मिलता , सुख की अनुभूति मनुष्य की मानसिकता से होती है । हमारी मानसिकता कैसी है , हमारे जीवन का सारा सुख उस पर निर्भर करता है ।
मानसिकता अनुकूल रहने पर व्यक्ति तमाम प्रतिकूलताओं में भी प्रसन्नता से जी सकता है और मानसिकता की अनुकूलता के अभाव में व्यक्ति सब प्रकार की अनुकूलता में भी तकलीफ पाता है । एक गरीब मजदूर फुटपाथ पर अखबार बिछाकर पूरी रात चैन से गुजार लेता है और दूसरा व्यक्ति एयरकण्डीशन में भी करवटें बदल – बदलकर रात गुजारने को मजबूर होता है । बात स्पष्ट है कि बाहर की परिस्थितियों से ज्यादा महत्वपूर्ण हमारी मानसिकता है ,
मानसिकता के अनुकूल होने पर सब कुछ अनुकूल हो जाता है और मानसिकता के प्रतिकूल होने पर सब कुछ प्रतिकूल होता है । सुख और सुविधा बाहर की चीज है , दुख और दुविधा भी बाहर की चीज है । उसकी अनुभूति हमारी मानसिकता से सम्बद्ध है ।
जिन्दगी पंथ है मंजिल की तरफ जाने का।
इन दोनों शब्दों से ऊपर का एक शब्द है वह है आनंद । आनंद भीतर से होता है उसका संबंध हमारी इन्द्रिय चेतना से नहीं वह हमारी अन्तस चेतना से स्फूर्त होता है । आनंद शब्द की संरचना संस्कृत की नंद धातु में अ उपसर्ग लगाने पर हुई । इसका मतलब है हर स्थिति में प्रसन्न रहना , संतुष्ट रहना , आनंदित रहना , मग्न रहना , लीन रहना , वो आनंद है । जो व्यक्ति अनुकूलता में सुखी
होता है निश्चित तौर पर वह प्रतिकूलता में दुखी होगा और जो व्यक्ति ऐसे अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंगों में सुखी और दुखी होता रहेगा उस व्यक्ति का जीवन सदैव द्वन्द और दुविधा से ग्रसित रहेगा । लेकिन जीवन की एक तीसरी भूमिका भी है जो व्यक्ति दोनों स्थितियों में भी तटस्थ रहता है न अनुकूलता में ज्यादा खुशी होती है और न प्रतिकूलता में ज्यादा तकलीफ होती है , वह सुख और दुख दोनों में समभाव रखकर परम संतोष के साथ जीवन जीता है ।
वस्तुतः जीवन जीने की कला उसी को प्राप्त है जो हर हाल में मस्त और संतुष्ट होकर जीने का अभ्यासी है । हमारी संस्कृति हमें हमारे जीवन का वो मार्ग देती है जो ये बताती है कि आज तुम सुख और दुख को जो भोग रहे हो वो तुम्हारे अपने अज्ञान की परिणाति है । तुम संसार में रह रहे हो , संसार को कोसते हुए मत जियो । संसार में रह रहे हो तो संसार में आनंदित होकर के जियो संसार में जीने वाले लोग अपने बाहर की प्रतिकूलताओं के कारण अनेक प्रकार की निराशा , हताशा और तनाव से ग्रस्त हैं । लोगों का जीवन बोझिल बना हुआ है ।
संत कहते हैं जीवन को बोझा बनाकर मत जियो , अपने जीवन को आनंद की बनाओ । अपने संपूर्ण जीवन को आनंद की यात्रा बनाकर के जिया जा सकता है यदि व्यक्ति को जीने की कला प्राप्त हो तो किसी भी व्यक्ति से बात की जाये , यही कहता है कि मेरा जीवन इस कारण से दुखी है , मेरा जीवन उस कारण से दुखी है । हर व्यक्ति के अपने – अपने दुख हैं और दुखों का अलग – अलग रोना ।
लेकिन यदि संसार के सभी व्यक्तियों के दुखों का हम विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि सारे दुख मनुष्य के अज्ञान के कारण उत्पन्न होते हैं । एक अज्ञानी व्यक्ति जिन स्थितियों में दुखी होता है , ज्ञानी व्यक्ति उन्हीं स्थितियों में प्रसन्नता से जीता है और यही हमारे जीवन का सबसे बड़ी कला है । यदि व्यक्ति को तत्व ज्ञान हो जाये , जीवन की वास्तविकता का बोध हो जाये जिससे उसे मालूम पड़ जाये कि संसार की सारी व्यवस्थायें मेरी इच्छाओं के अनुरूप नहीं बरततीं । मुझे अपने आपको व्यवस्थाओं के अनुरूप एडजस्ट करने की कला भर सीखने की जरूरत है बल्कि जो व्यक्ति व्यवस्थाओं में एडजस्ट होने की कला प्राप्त कर लेता है । उसके जीवन में सदैव प्रसन्नता की लहर उत्पन्न होती है । जो इस जीवन की
व्यवस्था को नहीं समझ पाता है वो व्यक्ति सदा दुखी बना रहता है । हमारे जीवन के जितने भी दुख हैं वे सब अज्ञान से प्रेरित हैं । देखें हर व्यक्ति के अपने – अपने दुख हैं , लेकिन संसारी व्यक्ति के दुखों का जब हम अंतर्विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि संसार के प्राणियों के दुखों की केवल चार जातियां हैं । पहला है , कल्पना जन्य दुख , दूसरा है , अभाव जन्य दुख , तीसरा है , वियोग जन्य दुख , और चौथा है , परिस्थिति जन्य दुख ।