कबीरदास तुलसीदास के अनमोल दोहे।
आध्यात्मिक ज्ञान।
अनमोल दोहे।
कबीरदास जी के दोहे
तुलसीदास जी के दोहे
करता था क्यों रहा , अब करि क्यों पछिताय ।
बोवै पेड़ बबूल का , आम कहां से खाय ॥
-कबीरदास
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मनुष्य को कोई भी काम करने से पूर्व सोच लेना चाहिए कि इसका परिणाम क्या होगा । कबीरदास कहते हैं कि हे मनुष्य ! जब तू काम कर रहा था , तब तूने क्यों न सोचा । अब कर्म करके पछताने से क्या लाभ ? जिसने बबूल का पेड़ बोया है , उसे आम के फल खाने को कैसे मिलेंगे ?
जल कृं पीजै छानकर , छान वचन मुख बोल ।
दृष्टि छानकर पांव धर , छान मनोरथ तोल ॥ –
परसराम
पानी को छानकर ही पीना चाहिए , क्योंकि बिना छाने पानी को पीने से रोग होने के संभावना रहती है । मुख से वचन बोलते समय सोच विचार कर लेना चाहिए । नीचे पैर रखने से पहले देख लेना चाहिए कि कहीं कोई कीड़ा या अन्य कोई चीज नीचे तो नहीं है । नीचा ऊंचा पांव पड़ने पर चोट भी लग सकती है । इसी प्रकार सोच – समझकर जीवन का लक्ष्य निर्धारण करना चाहिए ।
सहज सुहृद गुरु स्वामि सिख , जोन करई सिर मानि ।
सो पछताय अघाय उर , अवसि होय हित हानि ॥ –
तुलसीदास
जो मनुष्य अच्छे मित्र , गुरु और स्वामी की सीख के अनुसार काम नहीं करता , उसे बाद में हृदय से पछताना पड़ता है और उसके हित की अवश्य ही हानि होती है । अतएव बुद्धिमान मनुष्य को सदा अपने शुभचिंतक मित्र , कृपालु गुरु तथा पालन – पोषण करने वाले स्वामी का सम्मान करना चाहिए । ऐसा करने से उसका भला ही होता है ।
तरुवर फल नहिं खात है , सरवर पियहिं न पान ।
कहि रहीम ‘ पर कारज हित , संपत्ति संचहि सुजान ॥
-रहीम
-कवि रहीम कहते हैं कि वृक्ष स्वयं अपने फल नहीं खाते । तालाब भी अपने पानी को स्वयं नहीं पीता । इसी प्रकार अच्छे लोग अपनी संपत्ति का स्वयं प्रयोग न करके परोपकार में लगाते हैं ।
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कलह न जानव छोट करि , कलह कठिन परिनाम ।
लगत अगिनि लघु नीच गृह , जरत धनिक धन धाम ॥ –
तुलसीदास
कलह से बड़े – बड़े अनिष्ट होने की संभावना रहती है । कलह को छोटी बात नहीं मानना चाहिए क्योंकि इसका परिणाम बहुत भयंकर होता है । जैसे गरीब की छोटी – सी झोपड़ी में लगी आग से उसके निकटस्थ बड़े – बड़े धनियों के धन – धाम जल जाते हैं ।
लोक रीति फूटी सहहिं , आंजी सहइ न कोय । ‘
तुलसी ‘ जो आंजी सहहिं , सो आंधरो न होय ॥ –
तुलसीदास
यह रीति है कि लोग आंखों के कष्ट को तो सह लेते हैं , परंतु अंजन लगाने का कष्ट नहीं सहते । जो अंजन यानी सुरमा लगाने का कष्ट सह लेता है , वह अंधा नहीं होता अर्थात् सद्कार्य , सद्व्यवहार , सदाचरण करते समय त्याग का कष्ट जो भोग लेता है , उस व्यक्ति को आगे चलकर आनंद ही आनंद प्राप्त होता है ।
दान दिए धन ना घटै , नदी न घटै नीर ।
अपनी आंखों देखिए , यों कथि गए ‘ कबीर ‘ ॥ –
कबीरदास
दान मनुष्य की धन – संपत्ति को बढ़ाता है , घटाता नहीं । जैसे नदी सबको जल देती है , फिर भी उसका पानी कम नहीं होता , उसी प्रकार दान करने से धन नहीं घटता । यदि इस बात में किसी को संदेह हो तो वह अपनी आंखों से देख सकता है ।
सरवर मरिया दहदिसा , पंखी प्यासा जाय । ‘
दादू ‘ गुरु परसाद बिन , क्यूं जल पीवै आय ॥
-दादू दयाल
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दसों दिशाओं में जल से भरा सरोवर है , फिर भी पंछी प्यासा ही घूमता रहता है । जब उसे कोई बता देता है कि अमुक स्थान पर पानी है , तभी वह पानी पीता है । इसी प्रकार संसार में चारों तरफ ज्ञान और भक्ति का भंडार भरा हुआ है , परन्तु जब तक मनुष्य पर गुरु की कृपा नहीं होती , वह अतृप्त ही भटकता फिरता है ।
कहु ‘ रहीम ‘ कैसे निभै बेर केर को संग
वे डोलत रस आपने , उनके फाटत अंग ॥
-रहीम
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परस्पर विरोधी स्वभाव वालों की मित्रता नहीं निभती । कवि रहीम का कथन है कि बेर और केले का निर्वाह एक साथ कैसे हो सकता है ? बेर तो अपने रस में झूमता रहता है , पर केले के तो अंग ही फट जाते हैं । इसी तरह सज्जन और दुर्जन की आपस में मित्रता नहीं निभ सकती ।
मोह बड़ा दुख रूप है , ताकूं मारि निकास ।
प्रीत जगत की छोड़ दे , जब होवां निर्वास ॥ –
चरनदारा
चरनदास जी कहते हैं कि मोह स्वयं ही दुख रूप है , इसलिए मोह को मारकर हृदय से निकाल दो । संसार का प्रेम छोड़कर ही मुक्ति मिल सकती है । संसार झूठा है , नश्वर है , इसलिए उसके बंधन में नहीं फंसना चाहिए , क्योंकि फंसने पर उससे निकलना बहुत ही कठिन होता है ।
जल माहीं ऐसे रहौ , ज्यों अंबुज सर माहिं ।
रहै नीर के आसरे , पै जल छूवत नाहिं । –
चरनदास
चरनदास जी कहते हैं कि संसार रूपी सरोवर में कमल की भांति रहना चाहिए । जैसे कमल तालाब में जल के सहारे जल में ही रहता है , परन्तु जल का स्पर्श नहीं करता । इसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं का भोग तो करना चाहिए , परन्तु उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए । ‘
दरिया ‘ तो सांची कहै , झूठ न मानै कोय ।
सब जग सुपना नींद में , जान्या जागन होय ॥
—दरिया
महाराज दरिया महाराज कहते हैं कि यह सारा संसार सपने की तरह झूठा है । जैसे सपने में जागना महसूस होता है , परन्तु जागना नहीं होता , ऐसे ही संसार लगता तो सच्चा है , पर वास्तव में वह झूठ ही होता है अर्थात् संसार की समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर हैं , नाशवान हैं , फिर भी मनुष्य अज्ञानवश उन्हें सत्य और अमर माने रहता है ।
परन्तु जल का स्पर्श नहीं करता । इसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक वस्तुओं का भोग तो करना चाहिए , परन्तु उनमें आसक्त नहीं होना चाहिए । ‘
कीटा अंदरि कीटुकरि , दोसी दोसु धरे । ‘
नानक ‘ निरगुणि गुणु करे , गुणवंतिया गुणु दे ॥ –
नानक देव जिस व्यक्ति पर ईश्वर की कृपा नहीं है , ऐसा व्यक्ति तो कीट से तुच्छ माना जाएगा । दोषी व्यक्ति भी उस पर दोष लगाएंगे । नानकदेव कहते हैं कि वह अकाल पुरुष ( परमात्मा ) निर्गुणी को भी गुणी अथवा ज्ञानी बना देता है और जो पहले से ही ज्ञानी है , उसे और भी ज्ञानवान बना देता है । ‘
दादू ‘ होणा था सो रह्या , जो कुछ कीय पीव ।
पल बधै ना छिन घटै , ऐसी जाणी जीव ॥
– दादू दयाल
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संसार का सारा क्रिया – कलाप ईश्वर की इच्छा से ही चलता है । दादू जी कहते हैं कि परमात्मा की इच्छा के बिना न पल बढ़ सकता है और न क्षण भर भी घट सकता है । प्रत्येक प्राणी की जीवन सीमा भी उसने निश्चित कर रखी है जिसे क्षण भर भी घटाया अथवा बढ़ाया नहीं जा सकता , जब तक वो चाहेगा , तभी तक प्राणी जी सकता है ।
जे गरीब पर हित करै , ते ‘ रहीम ‘ बड़ लोग ।
कहां सुदामा बापुरो , कृष्ण मिताई जोग ॥ –
रहीम
गरीब से प्रेम करने वाले लोग महान होते हैं । कवि रहीम कहते हैं कि जो निर्धन से प्रेम करते हैं , वे बड़े लोग होते हैं । कहने का अभिप्राय है कि संसार में लोग धन – संपत्ति वालों से ही प्रेम करते हैं , निर्धन से प्रेम करने वाले तो कुछ ही महान लोग होते हैं , जैसे कृष्ण ने राजा होकर भी गरीब सुदामा से प्रेम किया था ।
कथा कीरत न रात दिन , जाके उद्यम येह ।
कह ‘ कबीर ‘ ता साधु की , हम चरनन की खेह ॥
-कबीरदास
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सच्चे साधु सदैव प्रभु की कथा और कीर्तन में ही लगे रहते हैं । कबीरदास जी कहते हैं कि जिस साधु का रात दिन कथा – कीर्तन करना ही कामं हैं , हम उस साधु के चरणों के सेवक हैं । कबीर साधु थे . इसलिए उन्हें सच्चे ईश्वर भक्तों के प्रति श्रद्धा थी । ‘
दादू ‘ संगी सोई कीजिए , जे व्यक्ति अजरांबर होय ।
ना वह मर न बीछुड़ै , ना दुख व्यापै कोय ॥
दादूजी कहते हैं कि हमें उस व्यक्ति को अपना साथी बनाना चाहिए , जो अजर और अमर है अर्थात् हमें ईश्वर से प्रेम करना चाहिए , क्योंकि न तो वह मरता है और न ही बिछुड़ता है । वह तो हमारे हृदय में ही निवास करता है । इसलिए उससे बिछुड़ने का दुख हमें भोगना नहीं पड़ता ।