माता पिता के गौरव क्या बच्चों का कर्त्तव्य ।

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माता – पिता के गौरव की स्थापना : बच्चों का कर्त्तव्य ।


माता – पिता के गौरव की स्थापना : बच्चों का कर्त्तव्य ।


तीन का उपकार बहुत दुष्प्रतिकार होता है माता – पिता , गुरु और जीविकादाता | माता पिता ने जन्म दिया गुरु ने जीवन का मार्ग दिया और जीविकादाता जिसने जीविका दी / जीवन के निर्वाह का साधन दिया । जन्म ही नहीं मिलेगा तो क्या होगा ? लिखने वालों ने लिखा कि धरती के सारे रजकण और समुद्र के सारे जलकण को एक कर दिया जाये तो ‘ माँ – बाप के उपकारों को पूरा नहीं किया जा सकता ।

उस उपकार को याद रखने वाला कभी इधर – उधर नहीं होता ऐसे माता – पिता का परिवार में गौरव होना चाहिये । एक खुशहाल परिवार के लिये सबसे बड़ी जरूरत है माता – पिता के गौरव की स्थापना ।

आज जब माँ – बाप अपने ही बच्चों की अवज्ञा और प्रतारणा के शिकार होते हैं तो उन्हें हार्दिक वेदना होती है । बंधुओं मैं मानता हूँ कि वृद्ध अवस्था में बहुत सारी उम्र सुलभ दुर्बलतायें प्रकट हो जाती हैं लेकिन उन दुर्बलताओं को देखें और फिर उनके उपकारों को देखें तो उनके उपकारों की तुलना में उनकी दुर्बलतायें नगण्य हैं ।

जब बचपन में तुम्हारी दुर्बलताओं को उन्होंने प्रेम से दूर किया तो तुम्हारा कर्त्तव्य है कि बुढ़ापे में आज तुम्हें उनकी दुर्बलताओं को स्वीकार करना चाहिये । वैसे भी वृद्ध अवस्था बचपन का पुनरावर्तन है ।

बच्चे के सिर में बाल नहीं होते और बूढ़ों के सिर सफाचट होते हैं । बच्चों के दांत उगे नहीं होते और बूढ़ों के दांत टिके नहीं होते । बच्चे के शरीर में शक्ति नहीं होती , चल नहीं पाता , बूढ़ा भी अशक्त हो जाता है । बच्चों में बुद्धि नहीं होती बूढ़ों में समझ नहीं होती वृद्धावस्था में तुम्हें उनका सहारा बनना चाहिये ये तुम्हारा कर्त्तव्य है ।

सम्बन्धों का आधार नहीं हो अनुपयोगिता का पैमाना 

बंधुओं सम्बन्धों के तीन आधार हैं एक है उपयोगिता , दूसरी है भावना और तीसरा हैं कर्तव्य उपयोगिता , हमारे जो लोक संपर्क बनते हैं वे उपयोगिता मूलक होते हैं जो हमारे लिये उपयोगी है उससे हम अपना सम्बन्ध बनाते हैं चाहे व्यावसायिक हो या अन्य प्रकार , ये सारे संपर्क और सम्बन्ध उपयोगिता के ऊपर निर्भर करते हैं ।

जब तक एक दूसरे के लिये उपयोगी साबित होते हैं तब तक लोग एक दूसरे का साथ देते और निभाते हैं और उपयोग शून्य हो जाने के बाद उसको भूल जाते हैं ।

लेकिन माता – पिता और परिवार के सदस्यों के साथ जो संबंध हैं वो उपयोगिता मूलक नहीं होते हैं । पति और पत्नी का सम्बन्ध भावना मूलक होता है । गुरु के साथ और प्रभु के साथ जो सम्बन्ध होता है वह भी भावना  मूलक सम्बन्ध होता है पर माता – पिता के साथ जो सम्बन्ध होता है वह कर्त्तव्य मूलक होता है ।

अब उपयोगी हो या नहीं हो पहले वो तुम्हारे लिये सब कुछ करते थे अब कुछ नहीं करते तो भी तुम्हारा इतना कर्त्तव्य है कि उन्होंने इतना कुछ कर दिया है कि तुम उनका ख्याल रखो कर्त्तव्य के आधार पर चलो उनको आघात मत पहुँचाओ । 

उन माँ बाप की दशा बड़ी दयनीय हो जाती है जो अपनी ही संतानों की उपेक्षा के पात्र बनते हैं । एक बच्चे की अगर उपेक्षा कर दी जाये तो बच्चे में तो समझ नहीं होती लेकिन वृद्ध समझते हैं बेचारे न कह पाते हैं न सह पाते हैं उनकी बड़ी विषम स्थिति हो जाती है ।

बंधुओं संपत्ति की क्षति का आघात हर कोई सह सकता है बेआबरू होने का आघात भी व्यक्ति सह सकता है लेकिन संवेदना का आघात सह पाना व्यक्ति के लिये बहुत मुश्किल होता है । कैसे – कैसे लोग होते हैं ? कई प्रकार के प्रसंग और घटनायें सामने आती हैं जो हमारी रूह को कंपा देती हैं ।

माँ वृद्धाश्रम में थी । रात के बारह बजे उसने अपने बेटे को काल किया । उधर से रिसीवर उठा कर बेटे ने पूछा क्यों क्या बात है ? कुछ नहीं , अचानक मुझे ख्याल आया कि आज तेरा जन्मदिन है सो मैं तुझे आशीष दे दूँ ।

बेटे ने रूआब झाड़ते हुये कहा कि आशीष ही देना था तो सुबह भी दे सकती थी रात में नौटंकी करने की क्या जरूरत थी ? माँ ने कहा बेटे ! माँ की ममता को नौटंकी मत कह मैंने कलेण्डर देखा ख्याल आया आज तेरा जन्मदिन है मुझसे रहा नहीं गया , ठीक आज के ही दिन मैंने इसी समय तुझे जन्म दिया था सोचा कम से कम बेटे को आशीष तो दे दें ।

बेटे ने कहा इन व्यर्थ की बातों में मैं विश्वास नहीं करता तूने मेरी नींद खराब कर दी । माँ ने रुंधे गले से कहा बेटे मुझे माफ कर देना आज मैंने तुझे फोन किया तो आज तेरी नींद खराब हुई पर तीस बरस पहले जब मैंने तुम्हें जन्म दिया था उस दिन तो मेरी पूरा रात खराब हो गयी थी और उसने रिसीवर रख दिया ।

काश इस संवेदना को व्यक्ति समझे तो उसे ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं होगी । जिस संस्कृति में व्यक्ति के सन्यास का मार्ग रहा आज उसे वृद्धाश्रमों में जाना पड़ रहा है ये बड़ी विडम्बना की बात है । ये दयनीय दशा हमें बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है तो पहली बात माता पिता का स्थान सबसे ऊँचा :

होना चाहिये । माँ परिवार की धड़कन है और पिता परिवार क मस्तक । माँ नहीं रहेगी दिल की धड़कन खत्म , संवेदना खत्म , ममत्व खत्म , प्रेम खत्म और सिर नहीं रहेगा तो गौरव ही खत्म हो जायेगा इसलिये यदि अपने परिवार की सलामती चाहते हो तो सबसे पहले अपने माँ – बाप को याद रखो उनके प्रति कृतज्ञ रहो उनके चरणों के सेवक बनो उनकी जितनी सेवा सुश्रूषा बन सके उतना करो उत्तम पुत्र बनो ।

 पुत्रों की हैं चार कोटियाँ

शास्त्रों में चार प्रकार के पुत्रों की चर्चा होती है । एक है अतिजात पुत्र , दूसरा होता है अनुजात पुत्र , तीसरा अवजात और चौथा कुजात या कुलांगार पुत्र । अतिजात पुत्र सबसे उत्तम पुत्र होते हैं । अतिजात पुत्र की श्रेणी में वो पुत्र आते हैं जो अपने आचार और व्यवहार से अपने कुल की कीर्ति में चार चांद लगा देते हैं अपने कुल के गौरव को बढ़ाते हैं श्रीराम जैसे लोग , पांडव जैसे लोग और श्रवणकुमार जैसे लोग ऐसे ही अतिजात पुत्रों की श्रेणी में आते हैं जिन्होंने अपन कर्त्तव्य निष्ठा से अपने कुल को रोशन किया और कर रहे हैं वे अतिजात पुत्र हैं ।

अतिजात पुत्र सबसे उत्तम पुत्र होते हैं श्रीराम को जब वनवास की आज्ञा गया तो किसी ने कहा आप वन को जा रहे ‘ इतना सुनते ही उनका चेहरा पितृ भक्ति से उद्दीप्त हो उठा और उन्होंने कहा तुम वनवास की बात करते हो ।


 अहं हि वचनाद् राज्ञः पातेयमपि पावके , 

 भक्ष्येयं च विषं तीक्ष्णं पातेयमपि चार्णवे । 


वाल्मीकि रामायण

पिता की आज्ञा की खातिर वन जाना तो मेरे लिये बहुत साधारण सी बात है मैं अपने पिता के वचनों को पूरा करने के लिये समुद्र में कूदने के लिये तैयार हूँ , विष खाने को तैयार हूँ , और वो कह देंगे कि आग में कूद जाओ तो मैं आग में कूदने को तैयार हूँ ये अतिजात पुत्र का उदाहरण है । दूसरे हैं अनुजात पुत्र : माँ बाप की सेवा सुश्रूषा करते हैं उनके चरणों में समर्पित रहते हैं कुछ अ कार्य क्षमता के बल पर बढ़ा नहीं सके तो घटाते भी नहीं हैं ।

तीसरे हैं अवजात पुत्र जिनका जीवन दोषों से युक्त रहता है जो अपने माँ बाप के गौरव को गिराते हैं , उसे दूषित करते हैं , अपने खोटे आचरण के बल पर अपने कुल की कीर्ति को कलंकित करते हैं वे सब अवजात पुत्रों की श्रेणी में आते हैं और चौथा होता है कुलांगार रावण जैसा जो अपने पूरे कुल का ही नाश कर देता है ।

आज अतिजात और अनुजात पुत्र का अभाव तो नहीं , पर विरल हैं , अवजात और कुलांगारों की भरमार है । आज के संदर्भ में माता – पिता के एक भक्त व्यक्ति की बात मैं आप सबके सामने करना चाहता हूँ । 

मेरे संपर्क में एक सज्जन हैं जो पेशे से इंजीनियर थे अमेरिका में रहते थे । उनकी माँ धार्मिक विचारों की व्रती थी वो यहीं रहती थी । माँ गिर पड़ी और गिर जाने के कारण उनकी कमर की हड्डी टूट गयी ।

उस व्यक्ति ने सुना तो उससे रहा नहीं गया वो अपना सारा कारोबार छोड़कर यहां आ गया । पत्नी ने सहयोग नहीं दिया तो उसने पत्नी और बच्चों को वहीं छोड़ा और दस साल लगातार भारत में रहकर सारा व्यवसाय छोड़कर माँ की सेवा की एक अनुपम मिसाल प्रस्तुत की ।

जब लोगों ने उनसे कहा कि आपने अपना सब छोड़ दिया ? बोले जिसने मुझे जीवन दिया उसके लिए मैंने क्या छोड़ा ? ये तो बहुत थोड़ा है यदि मुझे जीवन भी लगाना पड़े तो भी लगा दूंगा ।

बेटे के जीते रहते माँ को कुछ सोचना पड़े ये तो बहुत दुर्भाग्य की बात होगी । उसने उनकी खूब सेवा की । ये होती है मातृभक्ति ऐसी भक्ति जिस व्यक्ति के अंदर होती है उस व्यक्ति के लिये कुछ कहने की जरूरत नहीं होती ।

कहीं ऐसे बेटे आप तो नहीं

दूसरे भी कुछ ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जहाँ बेटे माँ – बाप की कृपा से कुछ पढ़ लिखकर के योग्य बन जाते हैं और उसके बाद अपने माँ बाप को ही अयोग्य समझने लगते हैं । आज की स्थिति बड़ी विचित्र है । माँ – बाप :

चाहते हैं कि बेटा पढ़ लिखकर लायक बनें पर बेटा पढ़ लिखकर इतना लायक बन जाता है कि उसको अपने माँ – बाप ही नालायक लगने लगते हैं । ये विडम्बना है । एक वृद्ध पिता ने मेहनत मजदूरी करके पढ़ा लिखाकर अपने बेटे को वकील बनाया ।

पिता की इच्छा थी , कि मेरा बेटा पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन जाये और उसकी इच्छा के अनुरूप बेटा वकील बन गया । पिता बड़ा खुश हुआ कि मेरा बेटा बड़ा आदमी बन गया लेकिन उसे क्या पता था कि वो बड़ा आदमी तो बन गया लेकिन भला आदमी नहीं बन पाया ।

बेटे ने गांव छोड़कर शहर में रहकर प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया । उसका नाम चारों तरफ फैल गया । पिता सोचता था कि मेरे जीवन के दुर्दिन अब दूर होने वाले हैं , मेरे जीवन में अब खुशियों के अंबार लगने वाले हैं ।

जल्दी ही मेरा बेटा आयेगा और मुझे यहां से शहर में ले जायेगा अब बुढ़ापा सकून से गुजारूँगा । लेकिन बेटा ? बेटे को तो कुछ याद ही नहीं कि किसी ने उसे जन्म दिया था । हमारा कोई पिता भी है इस बात को भी भूल गया ।

पिता रोज अपने बेटे के संदेश की प्रतीक्षा में दरवाजे पर बैठकर आतुरता पूर्वक डाकिये को निहारता । डाकिया आता उससे पूछता भैया कोई चिट्ठी आयी कोई चिट्ठी नहीं वो निराश हो जाता ।

जब तक शरीर चला तब तक वो मेहनत मजदूरी करके अपना काम चलाता रहा लेकिन जब उसका इतना शिथिल हो गया कि पेट भरने की व्यवस्था भी उसके पास नहीं रह पायी तो उसकी स्थिति अत्यन्त दयनीय होने लगी ।

क्या किया जाये क्या करे और क्या न करे कुछ समझ में नहीं आया । गांव भर के लोगों ने इकट्ठे होकर कहा कि , सुनो तुम्हारा बेटा अमुक शहर के अमुक मोहल्ले में रहता है तुम यहां से शहर चले जाओ तुम्हें देखकर कुछ तो पसीजेगा ऐसे कब तक काम चलेगा ? लोगों ने चंदा करके उसके टिकट का इंतजाम किया ।

उसे बस पर बिठाया । वो शहर पहुँचा लोगों से पता पूछता पाछता अपने बेटे के बंगले की तरफ बढ़ा बंगले के पास जैसे ही पहुँचा देखा कोई कार खड़ी है , अचानक बंगले का गेट खुला एक युवक तेजी भागता हुआ बाहर निकला । कार का गेट खोला और बैठने को हुआ तक , तक वह बूढ़ा नजदीक पहुँच चुका था , देखा ये तो मेरा बेटा है । मन में बड़ी खुशी हुयी कि मेरा बेटा कितना बड़ा आदमी हो गया , इतना बड़ा बंगला और इतनी अच्छी : कार ।

पूछा बेटे कैसे हो ? बेटे ने पिता को घूरती निगाह से देखा और कहा ठीक हूँ और इतना कहकर कार पर सवार हुआ कार आगे बढ़ गई । पिता हक्का बक्का रह गया । तभी उसकी ममता ने फिर जोर मारा अरे कोई जरूरी काम होगा तभी तो गया और मैं हूँ कि बिना बताये आ गया ।

अदालत का टाईम हो रहा है हो सकता है अदालत गया होगा । कोई बात नहीं अदालत गया चलो मैं भी अदालत चलता हूँ इस बहाने शहर भी घूमना हो जायेगा । अभी तो मैंने अपने बेटे को जी भर निहारा भी नहीं ।

ये सोचकर वो आगे बढ़ा सीधे अदालत तक पहुंच गया । अदालत में ज्यादा भीड़ नहीं थी पहले ही केस में उसके बेटे को बहस करनी थी प्रतिपक्षी वकील की प्रतीक्षा की जा रही थी ।

वो वृद्ध संकोचवश देहरी पर बैठ गया भीतर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया । जज साहब की दृष्टि उस बूढ़े पर पड़ी और फिर ध्यान से देखा कि ये बूढ़ा इस वकील को टकटकी लगाकर देखे जा रहा है , तो उन्होंने वकील से पूछा वकील साहब दरवाजे पर बैठा ये आदमी कौन है आपका कोई सम्बन्धी तो नहीं उसका चेहरा भी आपसे कुछ मिलता जुलता है ।

वकील साहब को तो ऐसा लगा जैसे किसी ने उन पर घड़ों पानी डाल दिया फिर भी उन्होंने अपने आप को तत्क्षण सम्भालते हुये कहा कि जी वो मेरे गांव का आदमी है । ये शब्द उस बूढ़े ने सुने तो उसके हृदय को बींध गये और स्वाभिमान से उसका चेहरा उद्दीप्त हो गया ।

उसने खड़े होकर उसी मुद्रा में कहा कि जज साहब ये आदमी ठीक कहता है कि मैं इसके गांव का आदमी हूँ मैं इसके गांव का आदमी तो हूँ ही इसकी मां का भी आदमी हूँ । 

ये आज के लोगों का चरित्र है । जज साहब उठे और उस बूढ़े व्यक्ति के पावं छू लिये और वकील साहब को समझाते हुये बोले कि वकील साहब यद्यपि आपके व्यक्तिगत जीवन के विषय में मुझे कुछ कहने का अधिकार नहीं है पर इतने अभावों के बीच रहकर यदि मेरे पिता ने मुझे इस योग्य बनाया होता तो गांव का आदमी कहना तो बहुत दूर मैं उन्हें जमीन पर पांव भी नहीं रखने देता ।

कुलांगार व्यक्ति वे हैं जो कुल को नष्ट करने वाले हैं कुल को विनष्ट करने वाले हैं । बंधुओं सोचने की जरूरत है कि पहली बात माता – पिता का घर में सम्मान होना चाहिये दूसरी बात पिता – पुत्र के सम्बन्ध भी ठीक होना चाहिये ।

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