कर्मबंधन से कैसे छूटें?आध्यात्मिक ज्ञान।

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 कर्मबंधन से कैसे छूटें?

       


   

स्वरूपतः हम कौन हैं ? कहाँसे आये हैं ? हमारा   गन्तव्य क्या है ? यह संसारका अत्यन्त जटिल प्रश्न है । पूरा विश्व इसका समुचित उत्तर देनेमें बगलें झाँकने लगता है । मौन साध लेता है ।

संसारमें अनेक धर्म हैं । सम्प्रदाय हैं । धर्मगुरु हैं । विद्वान् हैं । मत – मतान्तर हैं । सब अपने – अपने ढंगसे अपनी – अपनी बात तो कहते हैं , किंतु इस गूढ़ प्रश्नका सार्थक समाधान नहीं कर पाते ।

दुनियाके सारे लोग अशान्त हैं । मानसिक रूपसे पीड़ित हैं , किंतु आखिर शान्ति है कहाँ ? क्या भोग विलासके समस्त साधन जुटा लेनेसे जीवको शान्तिका साम्राज्य प्राप्त हो जाता ? उत्तर होगा- नहीं । तब फिर उस शान्तिको कहाँ खोजा जाय ? क्या भौतिक जगत्में ? धर्म – सम्प्रदायोंके घेरेमें ?

दुनियाके अनेक देशोंने अपार भौतिक साधन जुटा लिये हैं । बड़े – बड़े राजमहलोंमें निवास करते हैं । अरबों – खरबोंकी सम्पत्ति है उनके पास । फिर भी वे अशान्त हैं । आखिर क्यों ?

आज मनुष्यके द्वारा अनेक वैज्ञानिक उपकरणोंका आविष्कार कर लिया गया है । सारी सुविधाएँ जुटा ली गयी हैं । चन्द्रलोकमें मानवके चरण पड़ चुके हैं । हिमालयकी सर्वोच्च चोटी एवरेस्टपर अपनी विजय पताका फहरायी जा चुकी है । सागरकी अतल गहराइयों को नापा जा चुका है । फिर भी मानव अशान्त है ।

हमने समस्त नक्षत्रोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया है । संसारके सारे धर्मग्रन्थोंका मन्थन कर डाला है , हर प्रकारके तकनीकी ज्ञानके कोने – कोनेको झाँक लिया है और इस दिशामें सतत प्रयत्नशील हैं । समस्त वेद – पुराण हमें जिह्वापर रटे हुए हैं । संसारका सारा भौतिक ज्ञान हम आत्मसात् कर चुके हैं । पर शान्ति – सरोवर हमसे अभी भी कोसों दूर है । पीढ़ी – दर – पीढ़ी बीतती जा रही है , किंतु हम प्यासेके प्यासे ही बने हुए हैं । तब हमारी प्यास आखिर तृप्त कैसे हो ?

हम अच्छी तरहसे समझ चुके होंगे कि शान्ति एवं सुख भौतिक साधनोंका अम्बार लगाने में नहीं है । उसका । समाधान अध्यात्ममें है । हमारे भीतर है । नाना प्रकारके साधनोंको अपनाने में नहीं है । बाह्य यात्रा में नहीं है , अपितु अन्तर्यात्रामें है ।

। हमारे ऋषि – मुनियों एवं सन्तोंने इसकी खोज बहुत पहले कर ली है । उनके द्वारा अपनी अनुभूतियोंके निचोड़को भारतीय धर्मग्रन्थों में सँजोकर रख दिया गया है । हमारे पास ज्ञानका अपार खजाना होते हुए भी हम भटक रहे हैं । अशान्त हैं , दुखी हैं ।

■ हमारे वेद , पौराणिक सम्पदा , ब्रह्मसूत्र , उपनिषद् , गीता , रामायण , महाभारत , श्रीरामचरितमानस , योगवासिष्ठ , अष्टावक्र गीता आदि सभी सद्ग्रन्थोंमें ज्ञानकी अपार सम्पदा सँजोयी गयी है । आवश्यकता है उस ज्ञानको अपने जीवन और आचरणमें उतारनेकी ।

वास्तवमें हम कौन हैं ? हमारा स्वरूप क्या है ? इसके ज्ञानसे हम अनभिज्ञ बने रहते हैं । मोह , अज्ञान एवं अविद्याके कारण हम अपने आपको देह मानते रहते हैं , जबकि यह देह हमें प्रकृतिसे प्राप्त होती है । माता पिताके संयोगसे मिलती है । यह पंच क्लेशों यथा अविद्या , अस्मिता , राग – द्वेष एवं अभिनिवेशसे आबद्ध होती है । काम , क्रोध , मदादिक षट् रिपुओंके चंगुल में फँसी हुई है । जन्म – मृत्यु , क्षय – वृद्धि आदि विकारोंसे ग्रस्त है । क्या यही हमारा स्वरूप है ? हम शरीर के माध्यमसे जिन कर्मोंका भी सम्पादन करते हैं । उन्हें अपना कृतित्व मानते हुए कर्मफलसे आबद्ध हो जाते हैं , जबकि वास्तविकता यह है कि कर्म प्रकृतिके द्वारा सम्पादित होते हैं । हमारे स्वरूपमें कोई कर्म नहीं है । स्वरूपतः हम प्रकृतिसे पूर्ण परे हैं । वहाँ न जन्म है , न मृत्यु है , न अन्य कोई विकार ही है । प्रकृति त्रिगुणात्मक है । सत् , रज , तम- ये तीन गुण ही सभी कर्मोंके सम्प्रेरक हैं । हम विशुद्ध आत्मस्वरूप हैं । ईश्वर के अंश हैं । अविनाशी हैं । चेतन , अमल एवं सहज ही सुखकी राशि हैं । श्रीरामचरितमानसके उत्तरकांडमें श्रीकाकभुशुण्डि और गरुड़जीके संवादके माध्यमसे इस रहस्यका उद्घाटन

कराया गया है । यथा

सुनहु तात यह अकथ कहानी ।

समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी ।

चेतन अमल सहज सुखरासी ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं बँध्यो कीर मरकट की नाईं ॥ 
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ 
तब ते जीव भयउ संसारी छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥ 
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी ग्रंथि छूट किमि परड़ न देखी ॥ ।
 

  हम ईश्वरके अंश हैं । चेतन स्वरूप हैं , किंतु  जड़ प्रकृतिसे जुड़कर अपने स्वरूपको अविद्याके कारण भूले हुए , जड़से अपना नाता स्थापित करके जड़तामें जा ही जीवन – यापन करते हुए जन्मपर जन्म गुजारते जा हैं रहे हैं । यह प्रकृति जड़ है । हमारी देह भी जड़ है ।  इसमें विराजमान आत्मा ही चेतन स्वरूप है । संसारमें एक एकमात्र उसीकी सत्ता है । शरीर असद् है । नाशवान् है । जन्म – मृत्यु शरीरमें है । स्वरूपसे हम अमर हैं । एकरस हैं । तीनों कालोंमें हैं । प्रकृति प्रतिक्षण  परिवर्तनशील है । यह सारा दृश्य – प्रपंच प्रकृतिका विकार ज है । बनने – मिटनेवाला है । कर्म प्रकृतिमें है । गुण ही गुणोंमें वर्तन करते हैं । श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा गया कि है कि ।


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढात्माकर्ताह मन्यते ॥ ( गीता ३ | २७ ) 


मोह एवं अहंकारके कारण हम अपनेको कर्मका कर्ता मानकर उनके फलोंसे बँधते हैं और दुःख – सुख प्राप्त करते हैं ।

हम अपने आपको शरीर मानकर प्रकृतिके बन्धनमें बँधे हुए हैं । मोहके अन्धकारके कारण यह बन्धन हमें दिखायी ही नहीं पड़ता । तब इससे मुक्त होनेका यत्न हम कैसे करें ?

काश , हम इस बंधनको समझ लें । अपने वास्तविक स्वरूपको पहचान लें । हमें यह बोध हो जाय कि इस प्रपंचमें दिखनेवाला यह शरीर हमारा वास्तविक स्वरूप नहीं है । जिनमें हमने अपना ममत्व जोड़ रखा है । वे सब अवास्तविक हैं । क्षणिक हैं । नाशवान् हैं । असद् हैं

वास्तवमें उनका अस्तित्व है ही नहीं । अस्तित्व तो  केवल सद् का रहता है । परमार्थ – तत्त्वका रहता है । सद्  अविनाशी है । एकरस है । उसीसे सारा दृश्य – प्रपंच प्रकाशमान है । सूर्य , चन्द्र , तारे एवं अग्नि उसीसे प्रभावान् होते हैं । सद् – तत्त्व हमारा स्वरूप ही है ।

सारा जगत् हममें ही विद्यमान है । सर्वत्र हमारी आत्माका ही  पसारा है । हमारा ही स्वरूप है । हम सबमें है । सभी  रूपोंमें है , लिप्त कहीं नहीं है । सबसे निर्लिप्त है । प्रकृतिसे परे है । गुणातीत है । अलख है । निरंजन है । अनन्त है । असीम है । मन एवं वाणीसे परे है ।

जब हमें अपने इस वास्तविक स्वरूपका बोध हो जाता है , तब फिर सारे कर्म – धर्मसे हम रहित हो जाते हैं । कर्ता प्रकृति है । अहंकारके कारण हम अपनेको कर्ता मान बैठते हैं । हम सभी मोहकी निशामें सोते हैं । एवं तरह – तरहके स्वप्न देखते रहते हैं ।


 यथा – मोह निसाँ सबु सोवनिहारा ।

देखिअ सपन अनेक प्रकारा ॥


तब जागें कैसे ? क्या उपाय है इसका ? श्रीरामचरितमानसमें श्रीलक्ष्मणजी कहते हैं कि

जानिअ तबहिं जीव जग जागा । जब सब बिषय बिलास बिरागा ॥

अर्थात् जब संसारसे पूर्ण उपरति हो जाती है । विषयोंसे विरक्ति हो जाती है , तब कहीं जाकर हमारा जागरण हो पाता है । जाग जानेपर हम आत्मानन्दमें विभोर हो जाते हैं । तब न संसार रह जाता है । और न हमारा यह शरीरबोध ही । फिर हममें कर्म कहाँ रह जायँगे । सब कुछ मात्र चेष्टाएँ बन जायँगी । सारी क्रियाएँ स्वयमेव चलती रहेंगी । हम मात्र उनके द्रष्टा बन जायँगे । सर्वत्र हमारी आत्माका प्रकाश ही प्रतिभासित होगा । संसारका लोप हो जायगा ।

प्रश्न यह उपस्थित होता है कि हम इस असद् संसारसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें कैसे स्थित हों ? स्वरूपका बोध कैसे हो ? कर्मजालसे मुक्ति कैसे मिले ? क्या उपाय है इसका ? इस प्रश्नका समाधान उत्तरकांडमें श्रीकाकभुशुण्डिजी करते हुए कहते हैं कि –


सदगुर बैद बचन बिस्वासा । संजम यह न बिषय कै आसा ॥ 

  रघुपति भगति सजीवन मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ॥ 

 


जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई । जब उर बल बिराग अधिकाई ॥

 सुमति छुधा बाढ़इ नित नई । बिषय आस दुर्बलता गई ।।


 

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई । तब रह राम भगति उर छाई । 

 

( रा ० च ० मा ०७ । १२२।६-७ , ९ -११ )


यह है कामादि मनोरोगोंसे मुक्त होनेका उपाय । यह काम सभीको नचाता है ।

को जग काम नचाव न जेही ।

कामसे क्रोध उत्पन्न होता है । क्रोधसे बुद्धि भ्रमित हो जाती है । यही जीवके विनाशका कारण है । अतः पर इस कामको मिटाना परमावश्यक है । कामके कारण ही हम संसार है । संसारके प्रति ममता होनेके कारण ही हम अपने में वास्तविक स्वरूप आत्मतत्त्वको भूले हुए हैं । नयी – नयी  कामनाओंके जालमें उलझकर राग एवं द्वेषके वशीभूत  होकर नाचते हैं । अतः सद्गुरुकी शरणमें जायँ । उनकी वाणीपर विश्वास करें । विषयोंकी आशासे मुक्ति प्राप्त कर लें । ईश्वरका भजन करें । उसके चरणोंमें दृढ़ प्रीति करें । अपने सब कर्म एवं धर्मोंको उसीके चरणों में समर्पित कर दें । कर्तापनकी अहंतासे मुक्ति प्राप्त कर लें । कर्मकी कर्ता प्रकृति है और प्रकृति अर्थात् माया परमात्माके अधीन है । इस विश्वासको अपने मनमें दृढ़तासे स्थापित कर लें ।

अपने स्वरूपको पहचानें । कर्म हमारे स्वरूप में नहीं है । फिर कर्मफल हमें कहाँसे बन्धनमें बाँध पायेंगे । हम सबसे सर्वथा मुक्त हैं । आनन्दस्वरूप हैं । परमात्माके परम अंश हैं । छुद्र जलबिन्दु नहीं , अपितु अगम समुद्र हैं । बस , इस भावमें डूबनेकी देरी है । फिर लय होनेमें विलम्ब कहाँ ? फिर तो सारी दूरियाँ समाप्त ही समझें ।

हम परमात्माके परम धाममें परम आनन्दमें निमग्न हो जायँगे । सर्वत्र हमारी आत्माका प्रकाश ही होगा । गीता ( २।७० ) – में कहा है –


आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ 


स्वरूपबोध हो जानेपर यह हमारी स्थिति हो जायगी । यह है अध्यात्मकी उच्चावस्था । इसे प्राप्त कर लेनेपर संसारके सारे झगड़े समाप्त हो जाते हैं । परम शान्तिकी स्थापना होती है । आज संसार अनेक संघर्षों से जूझ रहा है । स्वार्थपरता अपनी जीभ लपलपा रही है । सन्तोष अस्तित्वहीन है । अतः इस आध्यात्मिक ज्ञानमें निमग्न होनेमें ही पूर्ण शान्ति स्थापित हो सकती है ।

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