परिवार की खुशहाली का राज ।

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परिवार की खुशहाली का राज । जीवन मूल्यों की शिक्षा मिलती हमें रामायण से।


परिवार की खुशहाली का राज  

विश्व परिवार नहीं विश्व बाजार भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम् की संस्कृति है । हम उस संस्कृति में जीने और पलने वाले लोग हैं जहां सारे विश्व को एक परिवार की तरह देखने की प्रेरणा दी गयी लेकिन आज का युग बहुत तेजी से बदला है । हमारी संस्कृति में विश्वबंधुत्व की और विश्वकुटुम्ब की अवधारणा थी ।

ऐसी उदात्त वैश्विक भावना थी जहां पूरे संसार को एक परिवार की तरह देखा जाता था । आज ग्लोबल युग आया और ग्लोबलाइजेशन होने के बाद पहले जहां पूरे विश्व को एक परिवार की भांति देखा जाता था आज सारे विश्व को एक बाजार के रूप में देखा जा रहा है ।

बढ़ती हुयी उपभोक्तावादी मनोवृत्ति और इस ग्लोबल परिवर्तन का प्रभाव वैश्विक रूप से हमारी चेतना पर पड़ा है । चूंकि भारत की मूलभूत संस्कृति प्रेम , आत्मीयता , परस्परता , बंधुत्व , सहयोग और सदभावना जैसी जीवन मूल्य परक संस्कृति रही है इसलिये इस नवीन संस्कृति में यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिल रहा है ।

जहां लोग इस कन्सेप्ट से बाहर रहे हैं वहां की स्थिति में कुछ ज्यादा परिवर्तन नहीं आया लेकिन भारत जैसे देश में जहां वसुधैव कुटुम्बकम् का संदेश गूंजा जहां सारे विश्व को अपना मानने की प्रेरणा हमें हमारे संस्कारों में मिली , आज वही जब परिवार बिखरता दिखायी पड़ता है , तो बहुत  कुछ सोचने को मजबूर होना पड़ता है । 

क्या यह वही देश है जिसने सारे विश्व को प्रेम का पाठ पढ़ाते हुये सारे विश्व को एक परिवार मानने का संदेश दिया और आज उसी देश में रहने वाले लोगों का परिवार ही बिखर रहा है ।

आखिर ऐसा क्यों ? कुटुम्ब संस्था तो नष्ट हुई ही परिवार भी बिखर गये पहले लोग घर में रहा करते थे अब मकानों में रहना शुरू कर दिया और मकान क्या ? मकान का स्थान फ्लैट ने ले लिया । जैसे – जैसे ये सब परिवर्तन हुआ हमारे भीतर की भाव दशा में भी बहुत बड़ा परिवर्तन आया ।

घर , मकान और फ्लैट तीनों में अंतर है । समझियेगा , ऊपरी तौर पर सब एकार्थिक दिखते हैं पर ईंट – सीमेंट – लोहे के ढांचे को घर नहीं कहा जाता वो मकान है । दीवारों से निर्मित जो ढांचा खड़ा है वो मकान है । घर वो है जिसमें घरवाली हो और सबके बीच में प्रेम – आत्मीयता – स्नेह और सौजन्य के संबंध हों ।

वो घर घर है । सच्चे अर्थों में घर वहीं है , जहां रहने वाले लोगों के चित्त में एक दूसरे के प्रति प्रेम हो , उत्सर्ग की भावना हो , एक दूसरे के प्रति लगाव और जुड़ाव हो , वो घर है । हमारे यहां एक पुराना मुहावरा है कि उसे ये बात घर कर गयी । घर कर जानें का मतलब अंतस को छू गयी जहां हमारी अंतस चेतना जुड़ी है वो घर है बाकी ईंट पत्थर की इमारत है । लिखने वालों ने लिखा है कि :


जा घर प्रेम न संचरै , ता घर जान मसान

 बढ़ गई ऊँचाइयाँ माकान की , घट रहा है कद यहाँ इन्सान का ,


पहले हम लोग घर में रहा करते थे घर में एक बहुत बड़ा कमरा हुआ करता था । लोग एक कमरे में ही आनंद से रह लिया करते थे । आज लोगों ने अपना मकान और फ्लैट बनाना शुरू कर दिया सबके लिये अलग – अलग कमरे होने लगे लेकिन उसमें भी अब अन्य किसी के लिये जगह नहीं बचती ।

घर में सबके लिये जगह होती थी क्योंकि दिल में जगह होती थी और जब से मकान और फ्लैट आये वहां जगह की संकीर्णता महसूस होने लगी । लोग एक छत के नीचे रहते हैं लेकिन लोगों की एक – दूसरे से दूरी बहुत ज्यादा देखने को मिलती  है ।

कहने को लोग एक ही मकान , एक ही फ्लैट में रह रहे हैं , दोनों का पता एक है लेकिन लोगों को एक दूसरे का पता नहीं । ये कैसी विडम्बना है ? आज के मनुष्य की जिन्दगी ऐसी है कि ऊपर से जो बहुत चमक दमक दिखायी पड़ती है । 

लेकिन नीचे से बहुत नीरस नजर आती है । इसका कारण क्या है ? हमारी संवेदनायें ज्यों – ज्यों क्षीण होती हैं , वैसे – वैसे ऐसे कुपरिणाम सामने आने लगते हैं । घर हुआ मकान , और मकान हुआ फ्लैट ।

घर में सबको स्थान हुआ करता था अब फ्लैट जब से शुरू हुआ तो बीवी बच्चों के अलावा और किसी के लिये स्थान नहीं रहा । आदर्श घर वह घर होता है जहां माता – पिता , भाई – बंधु , पुत्र और संतान सब मिलकर रहें वो घर है । और जहां केवल बीवी बच्चों तक सीमित रहा जाये वो फ्लैट है ।

युग की विडम्बना है कि मनुष्य की सोच में कितना बड़ा परिवर्तन आता जा रहा है । कहते तो यह हैं कि लोगों की अट्टालिकायें ऊंची होती जा रही हैं वैसे – वैसे इधर नीचे घट रहे हैं पहले छोटे से मकान में घर के सब प्राणी रहते थे अब रहने के लिये किसी को जगह नहीं ।

एक – दूसरे के लिये जगह नहीं । औरों की बात तो जाने दो जो मां व्यक्ति को नौ माह तक अपने पेट में रखती है उसी मां को रखने के लिये आज के आधुनिक लोगों के फ्लैट में जगह नहीं रहती ।

उसने तुम्हें पेट में रखा पेट में जगह दी । विडम्बना है कि आज उसे घर में जगह नहीं है । ऐसे लोगों के लिये क्या कहा जाये कि उस मां को रखने के लिये फ्लैट में जगह नहीं है । ये क्षीण होती हुयी संवेदनाओं का परिणाम है ।

 जीवन मूल्यों की शिक्षा मिलती हमें रामायण से

बंधुओं हम भारत के पुराने इतिहास को पलट कर देखते हैं तो पाते हैं कि वहां पारिवारिक और कौटुम्बिक जीवन में कितना प्रेम और कितनी आत्मीयता का रस घुला हुआ था ? त्याग और समर्पण की कितनी उदात्त भावना थी जिसकी आज केवल कल्पना ही की जा सकती है ।

रामायण का आदर्श कितना ऊंचा आदर्श है । रामायण सब लोग सुनते हैं पर एक घटना की भांति सुनते हैं । या श्रीराम के चरित्र को सुनकर रह जाते हैं लेकिन उनके आदर्श को समझने की  कोशिश बहुत कम लोग कर पाते हैं ।

एक पुत्र अपने पिता की प्रतिष्ठा की खातिर कितना बड़ा त्याग कर सकता है ये शिक्षा हमें रामायण से मिलती है और एक पत्नी अपने पति के लिये कितना कष्ट सह सकती है , कितना त्याग कर सकती है । ये प्रेरणा हमें रामायण से मिलती है । 

सब जानते हैं कि श्रीराम ही दशरथ के उत्तराधिकारी थे । जन समर्थन भी श्रीराम के पास था । दशरथ की आंतरिक इच्छा थी और श्रीराम के पास इतना बल भी था कि वो चाहते तो दशरथ की बातों को अनसुना करके उनकी खुली अवज्ञा करते और अयोध्या के राजा बन सकते थे , पर बंधुओं ऐसा करने से राम अयोध्या के राजा भले बन जाते अयोध्या के सिंहासन पर भले बैठ जाते लेकिन जन – जन के सिंहासन पर नहीं बैठ पाते । आज राम राम बने हैं अपने त्याग के कारण ।

कितना बड़ा त्याग ? जब श्री राम से कहा गया तो उन्होंने कहा कि यदि मैं वनवास स्वीकार नहीं करूँगा तो मेरे पिता की प्रतिष्ठा अधूरी रह जायेगी । एक सच्चे सपूत का यही कर्तव्य है कि वह अपने पिता के प्रण और प्रतिष्ठा को जीवित बनाये रखे ।

वो पूत कपूत है जिसकी करतूत से उसके पिता की प्रतिष्ठा को आंच आती है । रामचंद्र जी ने इसी भाव कसे स्वीकार कर लिया कि मुझे वनवास नहीं मुझे दण्डकारण्ड्य का राज्य मिला है । वे निकल गये साम्राज्य छोड़ दिया क्योंकि वो जानते थे कि जड़ साम्राज्य का मूल्य नहीं चेतन साम्राज्य का मूल्य है ।

ये जड़ साम्राज्य तो अशाश्वत है नश्वर है भीतर का साम्राज्य ही शाश्वत है । जमीन के टुकड़े के लिये हम किसके डुकड़े करें ? वो निकल गये दूसरी तरफ । रामचन्द्र जी जब महल से निकले तो सीता ने भी उनका अनुकरण किया । आज के संदर्भ में विचारों कि किसी की तुंरत तुंरत शादी हुई हो और पति संकट में फंसा हो तो पत्नी साथ देगी क्या ? विचारने की बात है ।

आज की कोई सीता और उसके राम को इस तरह का वनवास स्वीकारना पड़े तो वह उसके साथ जंगल में जाने की जगह किसी वकील के पास जायेगी और उससे कहेगी कि डायवोर्स का केस बनाओ जिससे ज्यादा से ज्यादा रकम वसूल हो जाये और अपना काम हो जाये काम खत्म हो उनको जाने दो , यही होगा न ? बहुत बड़ा अंतर है ।

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