कबीरदास रहीमदास के अनमोल दोहे।

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                            अनमोल दोहे

कबीर दास के दोह

रहीम के दोहे


 ‘ दादू ‘ मन ही माया उपजे , मन ही माया जाय ।
    मन ही राता राम सों , मन ही रह्या समाय ।।

 


 -दादू दयाल अर्थात् दादू का मानना है कि सब कुछ मन से ही होता है । मन में ही माया का मोह पैदा है और ज्ञान होने पर मन से माया का आकर्षण समाप्त हो जाता है । मन में ही राम का प्रेम उत्पन्न होने पर राम से मन लग जाता है तथा पूर्णता आने पर मन ही राम के साथ तद्रूप हो जाता है । मन और ईश्वर एक हो जाते हैं ।


बरषत करषत आपुजल , हरषत अरिधन भानु । ‘
 -तुलसी ‘ चाहत साधु सुर , सब सनेह सनमानु । –       


तुलसीदास

तुलसीदास जी कहते हैं कि साधु , देवता व सज्जन सभी केवल सम्मान के भूखे होते हैं । सूर्यदेव को जल की कुछ कमी नहीं होती , वह चाहें तो समुद्र का सारा जल सोखकर , उसे भाप बनाकर बादलों से धरा को सराबोर कर दें , परन्तु वह भक्तों के थोड़े से जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं ।

चाह जगत की दास है , हरि अपना न करें । ‘
चरनदास ‘ यों कहत है , व्याधा नाहिं टरै । 


                                                         चरनदास
चाह मनुष्य को संसार का दास बना देती है । चाह रखने वाले को प्रभु भी अपना नहीं मानते । चाह रखने वाला बाधाओं से घिरा रहता है । जो मनुष्य किसी वस्तु की इच्छा रखता है , उसे उस इच्छा के अधीन  रहना पड़ता है । उसे अपनी इच्छा के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ।
 इच्छा के दास को भगवान भी नहीं अपनाते । ‘

दादू’माया का सुख पंच दिन , गरव्यौ कहां गंवार ।
सुपने पाया राजधन , जात न लागे वार ॥ 


दादूदयाल सांसारिक माया का सुख नश्वर है । वह कुछ ही दिन का है । हे मनुष्य ! इस पर तू क्या अभिमान करता है ? यदि सपने में तू राजा बन गया तो क्या आंख खुलने पर तेरा राजधन , राजगद्दी तुमसे छिनेगी नहीं ? इसी प्रकार समय आने पर मनुष्य के पास जो धन – दौलत है , वह भी समाप्त हो सकती है । अत : उसका गर्व क्या करना ?

तासों ही कछु पाइए , कीजै जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए , कैसे बुझै पियास ॥ 


–                                                   रहीम
समर्थ लोग ही किसी की आवश्यकता पूरी कर सकते हैं । मनुष्य को उससे ही आशा करनी चाहिए , जिसके पास उसकी आशा को पूरा करने की सामर्थ्य हो , अन्यथा तो ऐसे ही खाली हाथ लौटना पड़ेगा , जैसे बिना पानी के तालाब से प्यासा व्यक्ति प्यासा ही लौटता है ।


नित – नित दुख गृह को सहै , जहां अमित उत्पात ।
रोग दुखित तन त्यागियौ , घर की कितीक बात । -नागरीदास मन मारै तन बस करै , साधे सकल शरीर । फिकिर फारिकफनी करे , ताकौ नाम फकीर ।।


चरनदास ‘


दादू ‘ सांचा गुरु मिल्या , सांचा दिया दिखाय ।
सांचे सौं सांचा मिल्या , सांचा रहा समाय ॥ –


                                                     दादू दयाल
 दादू दयाल कहते हैं कि जब मनुष्य को सच्चा गुरु मिल जाता है , तो वह सत्य परमात्मा के दर्शन करा देता है और फिर सच्ची आत्मा से सच्चे परमात्मा का मिलन हो जाता है । परिणामत : सच्ची आत्मा सच्चे परमात्मा में ही समा जाती है ।

जहां दया तहं धर्म है , जहां लोभ तहं पाप ।
 जहां क्रोध तहं काल है , जहां छिमा आप ॥ –
 


                                                   

                                                       कबीरदास
दया धर्म का , लोभ पाप का , क्रोध काल का मूल है । कबीरदास कहते हैं कि जहां दया है , वहीं धर्म है । जहां लालच है , वहां पाप है । जहां क्रोध है वहीं मृत्यु है और जहां क्षमा है , वहां प्रभु स्वयं विराजमान रहते हैं ।

 दिव्य दीनता के रसहिं , का जाने जग अंधु ।
 भक्ती बिचारी दीनता , दीनबंधु से बंधु ।। 


-रहीम

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अलौकिक दैन्यभाव की भक्ति के आनंद को साधारण लोग नहीं समझ सकते । दीनता स्वयं अपने में सुन्दर है . क्योंकि दीन – हीनों के सखा स्वयं ईश्वर उनके मित्र होते हैं । अभिप्राय यह कि अहम भाव को छोड़कर जो दीनता के साथ व्यवहार करता है , उसे उस विनम्र दीनता में जो सुख प्राप्त होता है , उसे यह संसार समझ नहीं पाता है More info click here

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