भौतिक सोच यानी पदार्थवादी चिंतन।
भौतिक सोच यानी पदार्थवादी चिंतन।
ये मन के गिरते चढ़ते आयाम हैं । मन गिरे तो एक दम गिरता है और मन चढ़े तो एक दम चढ़ता है । कब गिर जाये कब चढ़ जाये इसका कोई भरोसा नहीं । ये है मन की दशा । इसलिए संत कहते हैं कि
जलेन जनितं पंकं जलेनैव शुद्धयति ।
मनसैव कृतं पापं मनसैव शुद्ध यति ॥
कीचड़ पानी से पैदा होता है , पानी गिरने से कीचड़ पैदा होता है और कीचड़ को धोने के लिये पानी ही काम आता है । जो पानी कीचड़ मचाता है वही पानी कीचड़ को साफ भी करता है । सन्त कहते हैं मन से ही पाप होता है और मन से ही पाप को साफ किया जा सकता है ।
सारा खेल मन से है जो मन पाप करता है वही मन पाप को साफ कर सकता है बशर्ते हमारा मन जागरूक हो , हमारे अंदर सजगता हो और हमारे मन की दिशा ठीक हो । उस मन की दिशा को ठीक करने की बात आज आप सबसे की जा रही है । कहा जा रहा है जीवन में मधुरता कैसे आये ? मधुरता तब आयेगी जब हम अपने भीतर की कटुता का शमन कर. देंगे और कटुता का हम तब शमन कर सकेंगे जब हमारे चित्त की धारा बदलेगी ।
दो तरह के लोग हैं एक वो लोग हैं जो भौतिक सोच से ग्रसित हैं और दूसरे वो लोग हैं जो आध्यात्मिक सोच से भरे होते हैं । जिनकी सोच भौतिक होती है उनका चिन्तन पदार्थवादी होता है ।
उनके जीवन का एक ही लक्षय है पदार्थ और पदार्थ जन्य भोग । ऐसी भोगवादी मनोवृत्ति के शिकार लोग अपने भीतर की दुर्वत्तियों को बल देते हैं उन्हें पुष्ट करते हैं ऐसे लोगों के अंदर काम , क्रोध , लोभ और मोह कभी भावनायें दिनोंदिन बलवती होती जाती हैं और वे उनके जीवन के माधुर्य को नष्ट – भ्रष्ट कर देती हैं ।
उनके जीवन में एक प्रकार की कड़वाहट प्रकट हो जाती है । वे अपने जीवन में कोई उपलब्धि अर्जित नहीं कर सकते इसलिये संत कहते हैं ये तो भोगवादी मनोवृत्ति के धनी हैं जो संसार में उमड़ते घुमड़ते रहते हैं और उनके जीवन में कुछ हासिल नहीं होता ये केवल अंत हीन तृष्णा का दौर है , लेकिन जिनकी आध्यात्मिक मनोवृत्ति होती है जो आध्यात्म को आत्मसात करके चलते हैं वे अपने अंदर की वृत्तियों के प्रति सावधान रहते हैं ।
वे देखते हैं कि मुझसे चूक हो रही है मैं कहाँ क्या गलतियाँ कर रहा हूँ । वे उन तमाम गलतियों को सुधारने के लिये सचेष्ट रहते हैं । उनकी यही सचेष्टता उनकी यही जागरूकता उनके जीवन में माधुर्य प्रकट करती है जिसके बल पर वे अपने जीवन को संशोधित करते हैं ।
हमारे अंदर तब मधुरता आती है जब हमारे भीतर का सकारात्मक पक्ष विकसित होता है । उसे हम विकसित करते हैं , पुष्ट करते हैं और जितना – जितना नकारात्मक पक्ष बलवान बनता है तब हमारे मन में कटुतायें बढ़ती जाती हैं । हम अपने जीवन में मधरुता लाना चाहते हैं तो नकारात्मकता को कम करें और सकारात्मकता को बढ़ाये । दोनों चीजें एक साथ होती हैं ।
मनुष्य की सकारात्मक वृत्ति जितनी प्रबल होती है उसकी नकारात्मक वृत्तियां उतनी क्षीण होने लगती हैं और नकारात्मक वृत्तियां जितनी क्षीण होने लगती हैं सकारात्मक वृत्तियां उतनी बलवती होने लगती हैं ।
तो अपने भीतर के सकारात्मक पक्ष को बढ़ाने की हमारी कोशिश होनी चाहिये । आने वाले दिनों में आप सबसे इन्हीं की चर्चा की जायेगी कि हम अपने भीतर की नकारात्मक प्रवृत्तियों को किस तरह से पहचान करके नष्ट करें और अपने भीतर की सकारात्मकता को किस तरह बढ़ायें जो हमारी सोच को , हमारी समझ को , हमारी चिंतनधारा को , हमारी प्रवृत्ति को और हमारे व्यवहार को अनुशासित करते हुये हमें जीवन का रस देती हो जिससे हम अपनी जिन्दगी का मजा लेते हों जिससे हमारे जीवन में आनंद स्फुरित होता हो उन सबको प्रकट करने के ये मार्ग हैं ।
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